कमलपूजा: सोंदरडा के अमरसंघजी रायजादा की वीरगाथा || Amarsangh ji Rayjada of Sondarda ||

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कमलपूजा: अमरसंघजी रायजादा की आत्मबलिदान कथा

राजा सिर्फ राज्य नहीं, मर्यादा भी होता है। और जब मर्यादा ही खंडित हो, तब वह अपने रक्त से धर्म की पूजा करता है—जैसे अमरसंघजी ने की।

"कमलपूजा"

प्रतीकात्मक चित्र - स्केच आर्टिस्ट 'करशन ओडेदरा'

सोंदरडा का इतिहास और रायजादा वंश

    जूनागढ़ के पास केशोद तहसील में सोंदरडा नामका गांव है। सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दीमे जूनागढ़ से सारंगजी रायजादा केशोद में आए तब से आसपास के विस्तार में रायजादाओ का अधिकार स्थापित हुआ था। सारंगजी से सातवीं पीढ़ीमे अमरसंघजी हुए, और वे सोंदरडा आकर बसे। जूनागढ़ में उस समय मुस्लिम नवाबी सत्ता अपने मजबूत पैर जमाने लगी थी। केशोद विभाग में उन दिनों चोरवाड़, केवद्राके रायजादा ओ का जोर चरम पर था। दूसरी ओर काठी, तथा तीसरी ओर बिलखा के खांट भी समय समय पर शक्ति परिचय पर उतारू हो जाते थे। इन सब पर दबाव बनाने और नियंत्रण में रखने को जूनागढ़ नवाब ने महियाओ को अजाब, शेरगढ़, कणेरी, मेसवाण आदि जगह स्थापित किया।

    इतिहास का वह समयखण्ड मर्दानगी, दृढ़निश्चय, एकवचनीपना तथा निति का था। व्यक्ति इन मापदंडो पर हस्ते हस्ते जान न्योछावर कर देता था।

महियाओं का आतंक और प्रजाहित का संकट

    सोंदरडा के ठाकुर रायजादा अमरसंघजी की वृद्धावस्था, कमजोर आँखों से दिखाई भी कम पड़ता, ऊपर से आजुबाजु से महियाओ का अनहद त्रास, जुल्म, लूंट, और गोधन ले जाना बिलकुल सामान्य बात हो गई थी।

    सोंदरडा के किसी दरजी की गाय इस तरह महिया उठा ले गए। दरजीने ठाकुरसाहब के पास राव (फरियाद) की। अमरसंघजी उस समय वृद्ध थे, दरजी को तो समजा-बुझा और दिलासा देते घर भेज दिया, किन्तु खुद के अंतर्मन में अनेको प्रश्न उठने लगे। यदि गाँव की प्रजा की रक्षा न कर सके वह अपना फर्ज चूक गया। ऐसे व्यक्ति को जीने का क्या अधिकार? पूरी रात इन्ही विचारो में बीत गई। प्रभात को वे जल्दी जाग जाते है, स्नानादि से निवृत होकर शिवमंदिर की तरफ चल पड़ते है। हाथ में तलवार है, तथा खुद की महियाओंके प्रति असमर्थता का मन में अति रंज है।

अमरसंघजी का प्रायश्चित: कमलपूजा की परंपरा

    शिवमंदिर का द्वार उत्तर दिशा में है। पास में ही नागदेव का भी मंदिर है। अमरसंघजी शिव समक्ष पूजा विधान पूर्ण करते है, तथा शिवलिंग के सम्मुख पालथी मार कर बैठ जाते है। सर्वप्रथम हाथ के दसो उंगलियों के नाख़ून कटार से उतारते है, तत्पश्चात पैरो के नाख़ून भी उतारकर शिवलिंग के पास रख देते है। गोपालक अपने गले पर जैसे लाठी रखकर दोनों हाथ से पकड़ता है, बिलकुल वैसे ही खुली तलवार अपनी गर्दन पर रख, दोनों हाथो से जोर देते ही, मस्तक धड़ से अलग हो जाता है। अमरसंघजी का धड़ इस मस्तक को दोनों हाथो से उठाकर शिवलिंग पर रखता है, तथा दोनों हाथ जोड़कर खड़े होकर तीन कदम पीछे हटकर वही बैठ जाता है। इस तरह उन्होंने अपने देह का शिव को अभिषेक किया। (भगवान शिव को स्वयं का मस्तक अर्पण करना 'कमलपूजा' कही जाती है।)

मंदिर, स्मृति स्थल और आज की परंपराएं

    सोंदरडा में आज भी वह शिवमंदिर वही उस शिवभक्त का शिव के प्रति समर्पण को व्यक्त करता खड़ा है। कुछ समय बाद शिव मंदिर का जो द्वार उत्तर की तरफ खुलता था उसे बंध कर दिया गया। इस कमलपूजा के पश्चात पश्चिम दिशामे नया द्वार बनाया गया। जिस स्थान पर अमरसंघजी का देह गिरा वहां एक छतरी निर्माण किया गया।

    सोंदरडा के रायजादा राजपूत काली-चौदस के दिवस अमरसंघजी की पूजा करते है, दादा की खंभि को स्नान कराकर सिंदूर लगाया जाता है, धुप-दिप किए जाते है। अमल-कसुंबा दादा को अर्पण किया जाता है, उसके बाद गुड़ और चावल से नैवेद्य किया जाता है। श्रीफल भी चढ़ाते है। नव-विवाहितो को विवाह के दूसरे दिन यहां दर्शन करना ही होता है। राजपूतोमे लाज-मर्यादा के रिवाज के अनुसार रायजादा की वधु किसी कारणवस यहाँ से पसार हो तो उसे पूरा घूँघट ओढ़ के ही निकलना पड़ता है।

    अमरसंघजी के क्षात्रधर्म को नमन, जो अपनी अवस्था के कारण भी अपना दायित्व का निर्वहन होने में चूक हुई तो उसके प्रायश्चित के रूप में उन्होंने भगवन शिव के समक्ष कमलपूजा की। प्रजा के किसी एक सामान्य व्यक्ति की भी हानि हो तो वह राजा की भी उतनी ही हानि है। कहा जाता है न की, यथा राजा तथा प्रजा, इसी लिए राजा के व्यक्तित्व में आदर्शता होनी अनिवार्य है।

    ले. - राजेन्द्रसिंह रायजादा के लेख से हिंदी अनुवाद।


|| अस्तु ||


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कभी तलवार से, कभी त्याग से — यही होती है 'रायजादा' की पूजा।
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इतिहास की यह लौ बुझने न दें...


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