कवियों की दुनिया और उनकी कल्पना
प्रियंवदा ! यह जो मनमे भाव इतनी त्वरा से उथलपुथल हो रहे है, अब मुझे इनका व्यसन हो गया है। चलता है, धुंए के साथ यह भी कुछ तो प्रभाव जरूर गिराएंगे।
मित्रता और वाहवाही का संघर्ष
आजकल हर कोई अपनी ह्रदय की भावना इतनी जल्द व्यक्त कर रहा है यह वास्तवमें आश्चर्यपूर्ण है। किसीने पहली दृष्टया किसी को देखा, बाह्य सौंदर्य से आकर्षित हुआ, तो गुड़ पर लपकती मख्खी की माफिक दौड़ पड़ता है। कविगण और मेरे जैसे ले-भागू लेखकों की तो लंबी कतार नजर पड़ती है.. कवियो की तो क्या बात करूं?
तुम गुलाब हो, मैं कांटा,
तुम गुच्ची हो, मैं बाटा..
हास्य और व्यंग्य की काव्यात्मक झलकियाँ
जूते खाने और पहनने की चीज है, पर लोग लिखते है..! मैं मेरे प्रिय मैदान में बैठा था, मस्त शांति से कुछ फाल्तुसा लिखने में लगा हुआ था, तभी मेरे परममित्रो में से गजा मदमस्त हाथी की तरह झूलता हुआ आया, आंखे उसकी उल्टे लटके चमगादड़ सी, पूरा लग रहा था कि बाबाओ वाला दम मारके आया है.. आते ही अपनी चिन्थरेहाल डायरी के फ़टे पन्ने से ललकारा,
"आओ सखी हम गीत गाए प्रणय के,
या तुम्हारा भी गला बैठा सनम..!
लो विक्स की गोली, गला उत्तिष्ठ हो,
गाओ, हमारा दिल जला बैठा सनम..!"
अब मैं इधर-उधर मूड मूड के देख लिया, इसकी सनम तो दिखी नही मुझे। हाँ फिर याद आया, कवि है.. कल्पना कर रहा होगा..! अब अगले ने चार पंक्तिया सुनाई है, मजबूरन मुझे वाहवाही तो देनी ही थी, और मेरे वाह कहते ही च्यूइंगगम की तरह चिपका..!
गजा का प्रेम, पंक्तियाँ और प्रतीक्षा
"और सरकार ! दर्शन दुर्लभ है आपके..!" मेरे पास जमीन पर ही आसन ग्रहण करते बोला।
"अरे वहां कहाँ बैठ गया, तेरी जगह यहाँ है।" कहते हुए मैने उसे अपने से दो फुट दूर बिठाया। कवि है भाई, सम्हाल ना पड़ता है, क्या पता कोई दर्दभरी कविता सुना दे, और त्यौहार के दिनों में मैं घायल होना नही चाहता।
"एक तो आप यह सब शिष्टाचार बहुत करते है, लो इसी पर मैंने दो पंक्तियां लिखी है सुनाता हूँ.."
अब ना तो मैंने इरशाद कहा, नही उसे रुकने को कह पाया, उससे पहले ही वह अपने दोनों हाथों को फैलाते हुए बोल पड़ा,
"अदब की इतनी भी जरूरत कहाँ है रिश्तों में,
अदब की...
अदब की......
सुनना हाँ,
"वाह.. वाह..वाह.." कुछ बातें अपने को सामने से समझ जानी चाहिए।
"अदब की इतनी भी जरूरत कहाँ है रिश्तों में,
की कोई वाहवाही करे तो भी किस्तों में ?"
"अबे.. वाह वाही की तो थी, फिर क्यों लपेटा?"
"थोड़ा सा विलंब कर गए, प्रशंसा में।" गजा हल्का सा मुस्कुराते बोला।
अब एक तो इन कवियों के हथौड़े जैसे गीदड़, (शेर कहने की श्रेणी में आती नही यह पंक्तियां) ऊपर से वाहवाही भी समय समय पर चाहिए, अनिच्छा से भी वाहवाही करते रहो। (मेरी भी वाहवाही कमेंट्स में करना हाँ।)
"देख गजे ! यह तो तू मेरा परममित्र है इस लिए..
"अरे परममैत्री पर सुनिए.."
(इरशाद तो क्या ही कहता यह मेरी बात को ही बीच मे काटकर सुनाने लगता है।)
"दोस्ती नायाब तौफा है, कभी निंदा ना करे,
दोस्ती..
दोस्ती नायाब...
अबकी बार तो मैंने ही कह दिया,
"आप भी बस दाद मांगकर शर्मिंदा ना करे.."
गजा अपनी जगह पर ही गुलाटी मार गया.. वाह.. वाह.. वाह.. क्या तुकबंदी की है, क्या कारीगरी की है.. भई वाह.. वाह..
"अबे बस कर पगले रुलाएगा क्या?"
"रुदन से स्मरण हुआ, एक निराशाजनक सुनाऊं?"
"बस कर भाई.. मेरा आज का क्वोटा हो गया..! अच्छी भली डायरी लिख रहा था मैं..!" मैंने हाथ जोड़ लिए।
"डायरी नही दैनंदिनी कहा कीजिए, स्वतः विचारोन्माद को लिखते है आप, कुछ कविता भी लिखा कीजिए।" शब्दो का हथौड़ा चलाने से गजा चूकता नही।
"आगे से ध्यान रखूंगा, और कुछ..?"
"ध्यान.. ध्यान से याद आया कुछ, सुनिएना, एक आखरी बस.."
"ध्यान रख, यह दौर है निर्दय सनम,
ध्या..
"वाह वाह.." मैंने ध्यान रखा था इसबार।
"ध्यान रख, यह दौर है निर्दय सनम,
रोज़ ही होते ह्रदय - विक्रय सनम.."
लेखक की चेतावनी और एक प्यारी विदाई
"वाह गजा, गजब ढा दिया, चल अब जाते जाते मेरी भी दो पंक्तियां सुन..
"स्वायत्तता, निस्पृहता मैंने बसाई है, अनंत!
समय रहते तू चला जाए, तभी भलाई है..!"
|| अस्तु ||
उस दिन की पूरी दिलायरी आप यहाँ पढ़ सकते हैं:
गजा, कविताएँ और व्यंग्य: 11 मार्च 2025 की दिलायरी
क्या आपके पास भी ऐसा कोई कवि-मित्र है, जो हर बात में पंक्तियाँ ढूँढ लेता है और वाहवाही न मिले तो मन-ही-मन आहत हो जाता है?
तो इस दिलायरी में डूबिए, जहाँ कविता है, व्यंग्य है, और एक दोस्त है जो हर शब्द के पीछे छिपे मन को समझता है...
पूरा लेख पढ़िए और कमेंट्स में अपनी 'गजा-कथा' जरूर साझा कीजिए..!