प्रियंवदा ! निराशा से मैत्री, और आशा की चुभन
प्रियंवदा ! हमारी कुछ पूर्वधारणाए भंग होती है न, तब उत्पन्न होता भाव थोड़ा विचित्र और आश्चर्यमिश्र होता है। क्योंकि पूर्वधारण का अर्थ ही है की हमने अनुमान कर रखा था की ऐसा ही होगा, या यही होना चाहिए। जैसे गणित का कोई विकट प्रश्न सुलझा रहे है, पता है की उत्तर नहीं आता है पर सॉल्व करते करते उत्तर अपने आप सही हो जाए तो? वही बात हुई की सोते हुए खुले मुंह में पतासा गिरा..!!
यहां कुछ असामर्थ्यता पर ही पूर्वधारणाए जन्म लेती है, और वे पूर्वधारणाए बिलकुल ही निराशाजनक होती है। लेकिन मेरी तो सारी ही निराशाजनक पूर्वधारणाए सत्य ही हुई है.. और फिर क्या मैं चला जाता हूँ चुपचाप निराशा की गर्ता में.. वहां घने अंधेरो से मैत्री भी कर लेता हूँ..! और फिर उधेडबुनो से स्नेह... समस्या यह नहीं है। समस्या तब है जब इस निराशावाद को स्वीकार लिया था, तभी कोई न कोई आशा की उजियारी किरण से रूबरू कराता है, जब निराशा से मैत्री हो चुकी हो तब यह आशा भी चुभती है, हर्ष नहीं होता, बल्कि सहज भाव होता है। इस आशा में भी नयापन न दिखे न तब लगता है की समस्या तो है..
निराशा की संगति और आशा का हस्तक्षेप
निराशा से मैत्री इतनी जल्दी टूटती नहीं। निराशा और निरुत्साह की जोड़ी को हराना कतई आसान नहीं है। क्योंकि यह दोनों कभी अकेलापन अनुभव नहीं कराते, जबकि आशा जरूर कुछ करने को प्रेरित करती है पर वह क्षणिक होती है। क्योंकि उसमे साहस और उत्साह ने यदि आशा का साथ नहीं दिया तो बस हो गया.. निराशा की गर्ता मुंह फाड़े कंटकमाला लिए सज्ज खड़ी होती है।
जब मन रचने लगे विचारों की गाँठ
काश निराशा की कोई छलनी होती, या फिर उसे कैद की जा सकती, या फिर एक पक्की डोर होती जो आशा को मेरी कलाई से बांधे रखता.. क्योंकि आशा और निराशा दोनों का ही अंत नहीं है.. उन दोनों के प्रभाव जरूर भिन्न है, लेकिन शायद दोनों ही अंतःकरण को कम्पायमान करने के समर्थ है।
खेर, जो भी हो.. हमे उससे क्या प्रियंवदा ! यह तो मुझे कुछ न कुछ उटपटांग लिखकर अपनी स्ट्रीक बनाए रखनी है उसी चक्कर में फ़ालतू का विचारक बन रहा हूँ.. ज्यादा गंभीरता और वैचारिकता हानिकारक है हाँ..!!
|| अस्तु ||
तो बताइए प्रिय पाठक,
क्या आपने भी कभी निराशा को अपना साथी बना लिया है?
क्या उम्मीद भी कभी चुभी है आपको?
👇 नीचे कमेंट में ज़रूर बताइए।
और हाँ, अगर ये डायरी मन के किसी कोने को छू गई हो,
तो एक ‘❤’ या ‘लाइक’ ज़रूर कीजिए…
क्योंकि एक छोटी प्रतिक्रिया भी निराशा की जेल में हवा का झोंका बन सकती है।
ये भी पढ़ें:
-
मन छिछरा है, जल्दी भर जाता है – लेकिन कुछ चीज़ें फिर भी नहीं भरती...
क्योंकि मन की गहराइयों को मापा नहीं जा सकता... -
जब मन बेमन होकर भी लिखता है…
एक स्ट्रीक, एक मजबूरी, एक मन की बात — शायद आप भी इससे गुज़रे हों… -
बेमन से भी कुछ लिखा जा सकता है, अगर मन थोड़ा सा साथ दे…
कभी कभी दिल की बात मन से नहीं, उंगलियों से निकलती है। -
जब मन के उलझे धागों से एक पोस्ट बन जाती है…
क्योंकि हर लिखी पंक्ति किसी न किसी उलझन की सुलझन है।
#निराशा
#आशा_की_चुभन
#मनकीबात
#प्रियंवदा_डायरी
#सोच_और_संवेदनाएं
#भावनात्मक_यात्रा
#innerconflict
#hopeVsdespair
#writerlife
#HindiBlog