जब कुछ नया न दिखे, भीतर की थकान ही सामने आती है
कोई भी नयी स्फुरणा नहीं हो रही, न ही कुछ लिखने के लिए, न ही कोई कविता के विषय में। होता रहता है, फ़िलहाल सब कुछ आधा-अधूरा ही चल रहा है, एक-दो पुस्तकों के कुछ पन्ने पलटे और बंद कर दी। अनिंद्रा, यात्रा, व्यवहार इन सब ने एक साथ घेर लिया, कि नया तो बहुत कुछ हो रहा था, पर नया नजरिया नहीं बन पाया। फ़िलहाल एक लम्बी कहानी यॉरकोट पर पढ़ रहा हूँ, लेकिन वह भी पूरी करने का समय नहीं मिल पा रहा।
प्रियम्वदा ! एक बार तुम्ही ने शायद कहा था की कभी ऐसा हुआ है की कोई व्यक्ति बहुत समय बाद मिले तब वो सिरे से अलग लगे..? हुआ.. हाल-फिलहाल में हुआ। एक ही शहर में भी कुछ लोग सोसियल मिडिया से कनेक्ट होते है, और वे अच्छे से कनेक्टेड रह पाते है क्योंकि उनके विचार मिलते थे, तभी वे कनेक्ट हुए थे। समय के साथ सबकी स्थिति और मनोस्थिति भी बदलती है, यही खेल है, प्रकृति का, या फिर कहीं से हम पर नजर रखे हुए किसी अदृश्य शक्ति का..
मैं भी तो बहुत बदला हूँ, और मैं इन बदलावों को स्वीकार कर चुका हूँ। एक स्थिरता को पा चुका हूँ..शायद। उस मित्र की स्थिति इस बार सिरे से भिन्न लगी.. या सिर्फ मैंने ही अनुभव की हो ऐसा भी हो सकता है, क्योंकि व्यवहार, बोलचाल-रंगढंग की बात नहीं हो रही यहां.. लेकिन जो एक अनुभूति होती है, या फिर मैं बदल चुका हूँ इस लिए अब वह मुझे पहले जैसा नहीं लगा ऐसा भी तो हो सकता है। खोखला शरीर.. लेकिन छटा अभी भी वही पहले वाली थी। सीधी सी बात है, जीवन है तो जीना भी पड़ता है! यहाँ कोई समाधान काम नहीं करता..
प्रेम, व्यसन और AFTER EFFECTS की चोट
कुछ आदते बनानी पड़ती है, कुछ छोड़नी भी.. कुछ बीते समय, बीते ठाठ को आज तक घसीटना भी सही नहीं है, और उन परम्पराओ को निभाना भी यदि असह्य हो पड़ता है तब बदला जा सकता है। वैसे पहाड़ भी स्थायी नहीं है पृथ्वी पर तो फिर रूढ़ियाँ भी कैसे रह सकती है, समय समय पर संशोधन अनिवार्य है।
अति प्रबुद्धता भी ले डूबती है, अति वांचन भी। रहस्यवाद से लेकर कहानियां तक हमे एक सीमारेखा के भीतर रहकर उनका रसास्वाद लेना होता है। कितना ग्रहण करना और कितना त्याग देना है वह विवेकबुद्धि बनाए रखनी पड़ती है। कभी गलतिया हो जाती है, उत्सुकतावश भी। फिर से वही लेक्चर खुद को देना चाह रहा हूँ कि मन को नियंत्रण में रखना जरुरी है.. लेकिन पुरुष भाव ही यही है, शायद जिद्द है, या फिर व्यसन...
जब नीति और हृदय दो राहों पर खड़े हों
अच्छा मुझे कभी कभी लगता है की इस दुनिया के यह कथित प्रेम में सच्चा प्रेमी यदि किसी को ठहराना हो तो वह व्यसन ही होगा। क्योंकि यह कभी पीछा नहीं छोड़ता.. मार ही डालता है। यदि व्यक्ति बेवफा निकले, और व्यसन से मुंह फेर ले तब व्यसन भी छोड़े जाने के बाद जैसे बदला ले रहा हो वैसे 'AFTER EFFECTS' तो दिखाता है। सच में प्रेम एक बुरी बला है, चाहे किसी से कर लो.. कुत्ता भी काट लेता है कितना ही आपने प्रेम जताया हो..!
प्रियम्वदा ! जीवन में हर जगह दोराहे है, मन की कहनी मानूं तो अनैतिकता हो रही है, हृदय फिर भी उत्सुक है कहीं जाने को.. लेकिन निति उस जगह जाने को मना कर रही है। उद्देश्य रत्तीभर झलक का..
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक !
क्या कभी आपने भी महसूस किया है —
कि एक पुराना रिश्ता अब बिल्कुल अलग सा लगता है?
या प्रेम, एक मीठा व्यसन बनकर पीछा नहीं छोड़ता?
अगर हाँ — तो यह डायरी आपके लिए है।
नीचे अपनी कोई "After Effect" वाली कहानी छोड़िए...
शब्दों से ही कुछ सच्चाईयाँ हल्की लगती हैं।
और जब बात बदलते शहरों, बदलती पहचान और उस अजीब से खालीपन की हो ही रही है —
तो एक बार "City to City" वाली वो पुरानी डायरी भी पढ़ लीजिए,
Towards City to City
क्योंकि हर शहर कुछ छीनता है... और कुछ सिखा भी जाता है।
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