प्रेम, पहली पसंद और दिल की अदालत – प्रियम्वदा संवाद || Instead of explaining the matter, you complicate it..

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जब प्रेम सिर्फ विकल्प नहीं रह जाता


हम लगे रहे उन्हें रोकने में, मनाने में।
एक वो थे जो चले गए नए ज़माने में।


    "तुम्हे क्या लगता है प्रियम्वदा ! यह कीमियागर अपने गंतव्य को पहुँच पाएगा?" मैंने अपना सर अलकेमिस्ट पुस्तक से उठाए बिना ही पूछा।


    "पहले यह बताओ तुम्हे इतनी जल्दी क्या है?"


    "पता नहीं मुझे चींटिया काटने लगती है आगे क्या हुआ वो अभी से जानने की।"


    "फिर मत पढ़ा करो।"


    "अरे बताओ न.."


    "खुद ही पढ़ लो, परिणाम पहले से ज्ञात हो तो उसमे मजा काहे का?"


    "बात तो वो भी सही है। 


    "तुम्हे पता है, हमारे दिल में एक साथ ज्यादा लोग हो तो उन्हें बुरा क्यों माना जाता है?"


    "शायद यही सामाजिक संरचना है, एक पुरुष और एक स्त्री का ही साथ में रहना उचित माना जाता है, क्योंकि समाज में स्त्री पुरुष की संख्या समान बनी रहनी चाहिए।"


    "अरे ऐसे नहीं, तुम तो पुरुष हो, तुम्हारा दिल तो च्युइंगम जैसा लचीला है, बर्फ की तरह कहीं भी पिघलने लगते हो, तो फिर तो तुम अन्याय कर रहे हो किसी एक के साथ।"


    "लेकिन रहना तो एक के साथ ही है, और उसे ही सर्वस्व मानना है। यही नियम है।"


    "फिर पहले तो कई लोग बहुपत्नीत्व करते थे तो वे लोग गलत थे?"


    "पता नहीं लेकिन वो विवाह-संबंध तो राजनैतिक शांति बहाल रखने के लिए होते थे।"


    "ऐसे नहीं, यूँ समझो की तुम्हे शादी करनी है, दो प्रस्ताव है, एक का स्वभाव अच्छा है, एक का रूप, फिर कैसे पसंद करोगे?"


पहली पसंद और बाकी सब के बीच मन का द्वंद्व

    "यह तो मुझे भी नहीं पता, लेकिन फिर भी किसी एक पर ही पसंदगी उतारनी पड़ेगी।"


    "हाँ ! लेकिन वह पसंदगी करोगे कैसे? तुम्हे तो दोनों पसंद है, एक का स्वभाव और एक का रूप।"


    "कहाँ से खोज लाती हो ऐसी समस्याए?"


    "तुम्हारे भीतर से ही।"


    "मुझे लगता है, फिर गुणवत्ता देखनी चाहिए। स्वभाव तो रूप से अच्छा माना जाता है।"


    "फिर यह तो समझौता हुआ, तुम्हे तो दो पसंद है।"


    "नहीं ! शायद किम्मत चुकानी पड़ी।"


    "लेकिन फिर क्या हृदय से पूर्णतः रूप को भुला पाओगे?"


    "वो तो शायद नहीं हो पाता किसी से भी.."

    

    "तब तो स्वभाव से अन्याय हुआ, पूर्णतः तुम उसके साथ नहीं।"


    "स्वर्ण भी पूर्ण शुद्ध हो तो आभूषण में नहीं ढल पाता।"


    "यह तो तर्क हुआ, जवाब नहीं।"


    "अच्छा तुम बताओ, मुझे क्या करना चाहिए? व्यवस्था तो अनुमति नहीं देती, दो पसंदगी की।"


    "ऐसे नहीं चलेगा, मेरे बिल्ली मुज ही से म्याऊं? मेरा सवाल था, मुझसे ही नहीं पूछ सकते।"


    "देखो, ऐसा है, तुम भी सही हो, अगर मुझे एक से अधिक पसंद है और फिर भी किसी एक चयन करना पड़े तो मेरा मुझ से ही विश्वासघात भी हुआ। लेकिन इसे तुम किम्मत समजोगे कि किसी एक को पाने के लिए बाकी ओ का बलिदान दिया है।"


    "फिर वही बात... लेकिन तुम किसी एक के तो पूर्णतः हो ही नहीं सकते हो.. अच्छा मुझे यह बताओ, तुम्हे तुम्हारी पहली पसंद याद है?"


    "हाँ, कोई भी नहीं भूलता..."


क्या दिल का बड़ा होना अपराध है?

    "अरे जब तुमसे पूछा जाए तो तुम अपना बताओ, सबका ठेका साथ में लेकर मत चलो।"


    "हाँ ! मुझे याद है आज भी, नैन-नक्श भी.. बिलकुल जैसा हररोज देखा करता था।"


    "फिर भी उसके बाद जो भी, जितनी भी, तुम्हारे जीवन में आती गई, तुमने उन्हें भी क्या उतनी ही जगह नहीं दी है अपने ह्रदय में?"


    "हाँ ! है तो सही बात यह, बड़े दिलवाला हूँ मैं।"


    "अब तुम टाल रहे हो।"


    "तो और क्या करूँ, मैं कोई दार्शनिक, या सर्वगुण सम्पन्न तो नहीं।"


    "फिर तो जो लोग कहते है कि हर एक से इश्क करने वाले बीमार है वे सही है.. तुम भी बीमार हो, और हर वो व्यक्ति बीमार है जिसके हृदय में वह पहला आकर्षण अभी भी धबकता है।"


    "हैं.. मैं बीमार हूँ, तुम भी न प्रियंवदा.. कभी कभी तो कहाँ की कहाँ ले जाती हो..!"


    "लो, मुझे जो सवाल उपजा वह पूछा, तो इसमें क्या गलत है, या तो स्वीकार कर लो की तुम्हारे तर्क खोखले है।"


    "इसे तुम सीधे सीधे जीवन या एक प्रवाहधारा मान लो.. आज जो तुम्हारे साथ है उसे स्वीकार लो। जो कभी साथ था उसे यादो में वहीं रहने दो।"


एक के साथ रहते हुए, दूसरे को सोचने की भूल

    "फिर बात तो वहीँ आ गई ना कि पूर्ण रूप से तुम किसी एक के साथ हो ही नहीं।"


    "तुम साबित क्या करना चाहती हो?"


    "कुछ भी नहीं। मैं तो वास्तविकता समझने की कोशिश में हूँ कि मुझे पता है, प्रेम होता है, लेकिन क्या हो अगर मैं तुमसे प्रेम करते हुए किसी और से भी प्रेम करने लगूँ?"


क्या प्रेम की परिभाषा बदली जा सकती है?

    "फिर वही बात, प्रेम होता कहाँ है? या तो वास्तविकता को स्वीकारो की आकर्षण, आवश्यकता और..."


    "बस बस, सो बार एक ही डायलॉग मारने से सच नहीं होगा।"


    "तो फिर लगे रहो प्रेम की कोरी कल्पनाओ में.. मैं जिस वास्तविकता की बात कर रहा हूँ, वहां प्रेम एक कमजोर हृदय के व्यक्ति का विजातीय आकर्षण का जुड़ाव है जो वह कमजोर हृदय झेल नहीं पाता, और उसकी आँखे सदा ही बहती रहती है, यदि वह भी प्रेम की व्याख्या में सम्मिलित है तब तो प्रेम बड़ा ही दुखदायी भाव मालुम पड़ता है।"


    "तो क्या तुमने कभी अपनी पहली पसंद के पीछे आंसू नहीं बहाए?"


    "यह तुम बारबार मेरे सर पर ही ठीकरा क्यों फोड़ती हो?"

    

    "क्योंकि तुम अनुभवी बूढ़े ठहरे.."


    "झुबान बहुत तेज चलती है तुम्हारी सूर्या.."


    "दिमाग भी.."


    "है तुम्हारे पास?"


    "तभी तो तुम्हे उलझाए रखा है।"


    "आई बड़ी.. बताओ न फिर कीमियागर का क्या हुआ?"


    "खुद ही पढ़ लो, और मुझे आज्ञा दो.. वैसे भी तुम बात को बताने के बदले उलझाते हो.."


    "ठीक है आगे से कैंची साथ रखना, जहाँ उलझे वहां बात काट देना.."


    "शुभरात्रि।"


***


प्रिय पाठक !
क्या कभी आपके दिल में भी दो पसंदें एक साथ धड़कने लगी थीं?
क्या आपने कभी सोचा है — किसी एक को चुनना बाकी सबके साथ अन्याय है?

तो फिर इस संवाद को पढ़िए… और खुद को जवाब दीजिए।

कभी-कभी सवाल ही हमारे सबसे करीबी दोस्त होते हैं।


और यदि आपने अभी तक यह नहीं पढ़ा कि शहर-दर-शहर बदलते हालातों में
रिश्ते कैसे धुंधले और दिल कैसे भारी हो जाते हैं —
तो यहाँ भी झाँक आइए:
 Towards City to City


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