"परिवर्तन से परहेज: बदलाव, भ्रम और बिस्तर पर सोचती आत्मा" || Avoidance of Change ||

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डायरी, पंचात और व्यसन

    किसी की डायरी पढ़ने में मजा तो बहुत आता है.. गुजराती में 'पंचात' भी कह सकते ऐसी क्रियाओं को.. किसी और की चुगलियां करना, किसी और कि बातों में चंचुपात करना.. यह सब पंचात है..! कोई अपनी दैनिक घटनाओं को डायरी को सौंपता है, तो कोई अपने वैचारिक द्वंद्व को..! कोई बस कल्पनातीत जीवनी डायरी में उड़ेलता है, तो कोई अपने गुप्ततम रहस्यों को। व्यसन की शुरुआत धीमे धीमे ही होती है.. फिर भी व्यसनी कहते है "शौक है.. व्यसन नही।" ऐसा ही है कुछ डायरी लिखना.. मुझे तो समझ नही आता कि कैसे अंतर से उठती ज्वाला की लपटों से कागझ के पन्ने जले बिना रह पाते है ?



प्रियंवदा की फटकार और लेखक की चुप्पी

    आज प्रियंवदा ने ही कहा, "क्या तू बस एक विषय को अजगर की भांति लिपटा पड़ा रहता है.. जिंदगी मिली है तो भैंस की तरह बैठा मत रह कुछ नया लिख लाला.."


    अब मुझे प्रियंवदा की ऐसी रूपकदत्त बातों का बुरा नही लगता, वह क्या है, मैं पथ्थर समान हो चुका हूं.. एक गुजराती दोहा था मैं भूल चुका हूं पर तात्पर्य था कि पथ्थर पर कितना ही मख्खन लगा लो वह नरम नही पड़ता, बस मैं भी अब प्रियंवदा के कड़वे बोल को मीठी रसमलाई जान गटक जाता हूं।


परिवर्तन – जीवन का स्थायी अस्थिरता

    २२/०९/२०२४ की रात के १०:३३ पर मैं अकेला ही विचारमग्न उसी मैदान में बैठा हूँ जहां आजकल सवेरे मैं बढ़ते शरीर को काबू में लाने के लिए निरर्थक प्रयासरूप जॉगिंग करने जाता हूं। उम्र के साथ कई शारीरिक परिवर्तन होते है, किसे पसंद होता है दिनभर ऑफिस में ८-९ घंटे बैठे रहने से पेट छाती से आगे निकलने को आतुर हो? बैठा हूँ, सोच रहा हूं प्रियंवदा ने तो कहा ही है, परिवर्तन से सहेज परहेज कर..! लेकिन कैसे किया जाए ? परिवर्तन तो संसार का प्रथम नियम है, प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ बदलाव हो रहे है पृथ्वी पर, वातावरण में, देश में, राज्य में, जिले में, गांव-शहरों में, समाज में। 


    परिवर्तन को क्यों न मानव समुदाय का प्रथम प्रेम मान लिया जाए? जैसे सायकल वाला परिवर्तन चाहता है कि उसके पास ऑटो हो, ऑटो वाला कार चाहता है, कार वाला.. अनंत तक चल सकता है यह। हर कोई परिवर्तन चाहता है, लेकिन शुरुआत बस पडोशी के यहां से होनी चाहिए। परिवर्तन के साथ रिस्क भी तो आता है। परिवर्तन के फैल होने का.. कहीं परिवर्तन को अपना लिया और फ्लॉप शॉ रहा तो ? इस लिए पहले दूसरे आजमा ले फिर अपन सोचेंगे..!


अनचाहे परिवर्तन और मनोवैज्ञानिक डर

    अच्छा, यह तो हुआ परिवर्तन.. लेकिन कुछ परिवर्तन हो जाते है जो नही होने चाहिए थे, जैसे उम्र का बढ़ना.. फिर कुछ ने बढ़ती उम्र को रोकने के लिए और मृत्यु के भय को टालने के लिए प्रयास किया.. पर वो तो अटल है। कई सारे परिवर्तन है जो में स्वयं नही चाहता.. एक तो है पूरे पाकिस्तान पर कब्जा करना.. मैं सोचता हूं पाकिस्तान की जमीन तो घड़ी के छठे भाग में कब्जा लेंगे, लेकिन वहांकी बेलखणी औलाद को भी तो अपने साथ लेनी पड़ेगी..? मेरा ऐसा ही है.. कहाँ की बात को कहाँ पहुंचा देता हूँ बहुत देर में समझ आता है.. कुछ परिवर्तन सरकार सोचती है लाने का, पर हम भी तो ठहरे वही आदमी जो सोचते है पडोशी पहले.. कल ही नितिन गडकरी के भाषण सुन रहा था.. परिवर्तन की परिभाषा को यह आदमी सटीक बयान करता है..!


    परिवर्तन का मूल है आवश्यकता.. कहीं कुछ आवश्यकता होती है फिर वहां परिवर्तन होता है। शायद इसी कारण से शरीर मे फेरफार होते है, इसी कारण वश किसी का साथ चाहिए होता है, इसी आवश्यकता के वश होकर शायद दो लोग प्रेम के बंधन में फंसते होंगे, क्या पता फिर किसी आवश्यकता का निर्माण होता होगा और प्रेमभंग, मोहभंग और विरह का परिवर्तन आता होगा.. विरह का परिवर्तन किसने मांगा होगा ? यह परिवर्तन वही है जिससे परहेज सब चाहते है..!


सामाजिक क्रांति और द्रष्टिकोण का फर्क

    समाज मे कई सारी क्रांतियां होती है, कई परिवर्तन होते है, जिन्हें अपनाना होता है, साथ कदम से कदम मिलाकर चलना पड़ता है। आझादी या स्वतंत्रता की कामना लिए कुछ सरफिरे जब निकल पड़े होंगे तब ब्रिटिश एम्पायर के लिए तो वह एक विद्रोह मात्र था। उनकी दृष्टि से देखे तो हमारे स्वातंत्र्यवीर उनके लिए उपद्रवी थे.. यह ऐसा परिवर्तन था जिसे हम चाहते थे लेकिन ब्रिटिशर्स परहेज करना चाहते थे। अतः आवश्यकता से उत्पन्न हुआ परिवर्तन का परहेज दृष्टिकोण पर निर्भर है।


मौसम का झगड़ा: किसान बनाम लेखक

    फिलहाल रात्रि का १ बज रहा है.. बिस्तर पर बस पड़ा हूँ, और निंद्रा आ नही रही है, बाहर मौसम गर्म है.. और मैं चाह रहा हूँ कि मौसम में परिवर्तन हो, गर्मी का प्रभाव कम हो और थोड़ी शीतलता बरसे..! ठीक इसी समय कोई किसान अपने खेत की रखवाली करता हुआ सोच रहा होगा कि मौसम में गर्मी बनी रहे, ताकि फसल पर दो मौसमी मार न पड़े और नुकसान न हो। वही.. परिवर्तन का परहेज..


बचपन की चाह और बुढ़ापे की सच्चाई

    बचपने मे हमने कई परिवर्तन ऐसे सोचे होते है जो अब चाहते है कि न हो.. बचपन मे एक ही तो ख्वाहिश हुआ करती थी, कब बड़े होंगे.. अब लगता है.. बस बहुत बड़े हो गए अब रुक जाना चाहिए.. स्त्रियां सिलिंडर का आकार ले रही है तो पुरुषों के सर से बाल जा रहे है.. यह वाला परिवर्तन तो कोई भी नही चाहता.. यहां लिंगभेद का सुनिश्चित अंत हो जाता है। चलो कोई तो परिवर्तन है जिससे सबको परहेज है...


    पता नहीं कब नींद ने घेर लिया था, सवेरे साढ़े छह आँखे खुली तो मोबाईल को तकिये के पास दबा पाया, फिर वही नित्यक्रम निपटाओ और पहुंचो ऑफिस... अभी सोच रहा हूं और कौन से परिवर्तन से परहेज किया जाए ?


    ठीक है यार, इतना परिवर्तन और परहेज लिख दिया, अब आगे कुछ सूझ भी नहीं रहा है, और एक परिवर्तन जो हो रहा है मैं नहीं चाहता की वो हो लेकिन लिख भी नहीं पा रहा हूँ.. तो बस ठीक यही... अस्तु..!

    (दिनांक : २३/०९/२०२४, १४:२४)


|| अस्तु ||


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वैसे यह सब कुछ केवल मानव की इच्छा या प्रयास से नहीं होता…
कई बार प्रकृति स्वयं हिसाब लेती है, और अपने ढंग से बदलाव कराती है।
Priyamvada: Nature Takes Account Of Everything

वहाँ विस्तार से लिखा है — कैसे जीवन का संतुलन कभी कभी हमारे हाथ में नहीं होता…!


आप किस परिवर्तन से परहेज करते हैं?
उम्र से? रिश्तों से? या खुद से?

प्रियंवदा कहती है, "भैंस की तरह बैठा मत रह, कुछ नया लिख लाला..."

मैंने तो लिख दिया…
अब आपकी बारी है —
कमेंट करिए, या बस मुस्कराइए —
क्योंकि बदलाव चाहे न चाहो,
वो दस्तक जरूर देता है।

 www.dilawarsinh.com पर और भी ऐसी ही दिल से निकली डायरी पढ़ें।

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