प्रियंवदा, प्रकृति सबका हिसाब करती है। सब नपा-तुला है पृथ्वी पर... || Priyamvada, nature takes account of everything. Everything is measured on earth...

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प्रियंवदा, जब से दिलायरी शुरू की है, और इन वैवाहिक प्रसंगो की यात्राओं में व्यस्त हुआ हूँ, तब से तुम से ठीक से बात ही नहीं हो पायी है। तुम भी तो व्यस्त हो, तुम्हारी अपनी उलझनों में..! वैसे तुम्हे क्या कहूं, मेरे प्लान हंमेशा से बिगड़ने के लिए ही बनते है। अगले माह फिर से एक प्लानिंग कर रहा हूँ। देखते है, फरवरी ख़त्म होते होते क्या होता है। वैसे फ़िलहाल बहुत सी उलझने मेरे दिमाग में भी चल रही है। कई बाते ऐसी लग रही है जैसे बहुत पीछे छूट गयी है। जिन्हे वापिस पाना अब बहुत कठिन लगता है। प्रियंवदा, हाल यह है कि फिलहाल अकेला बैठा हूँ, लेकिन बात करने के लिए कोई चाहिए। किसी को मैसेज किया है, पर वो भी शायद व्यस्त है। पता नही, यूँ मुझे अकेलापन चाहिए लेकिन साथ मे भी कोई होना चाहिए। न कुछ लिखने को मन करता है, न कुछ पढ़ने को, आजकल तो फिल्म्स देखने का भी मन नही होता।



कई बार तुम्हे बता चूका हूँ, मन बड़ा ही विचित्र है। कब कौनसी इच्छा जागृत हो जाए, कोई आकांक्षा उठ आए। और उस के पीछे मन प्रवृत्त हो जाए पता नहीं चलता। होता ऐसा है की या तो मन की मानो, वरना एडजस्ट कर लो। दोनों एक साथ नहीं हो सकता। या तो मनमानी चलती है, या फिर एडजस्टमेंट। या तो मुझे जो चाहिए, या मेरी जो इच्छा है वो ही मैं करूँ.. जैसे मुझे घूमना पसंद है, तो मैं घूम ही सकता हूँ, कुछ काम करते करते घूमना असंभव ही है। या तो काम हो सकता है, या तो घूमना। लेकिन हम क्या करते है? एडजस्टमेंट.. हम काम करते रहते है, और मन घूमता रहता है। और परिणामस्वरूप बेमन और चिड़चिड़ा सा स्वाभाव निर्माण हो जाता है। मन थोड़ा उदास भी हो चूका है आज.. बस तुम्हारे कारण प्रियंवदा..! तुम्ही ने कहा था, टाइमपास करना है तो फिल्म देखो.. देखी एक.. 'मिसिज़'..! Zee5 पर, जिओ का सब्सक्रिप्शन काम तो आता है।


वैसे तो अपने काम की मूवी है नही, क्योंकि मुझे जॉन वीक टाइप मूवीज़ पसंद आती है, या तो मारवेल्स की..! अब मैं अपने नजरिये की बात करूं तो मैं मानता हूं कि एक स्त्री घर संभाले वह ज्यादा सही है। संभालने में तो वह दुनिया संभाल सकती है, क्षमता की बात नही है, बात यह है कि उसे दोहरी जिंदगी जिनी पड़ती है। मान लो कि वह नौकरी करती है तो तब भी उसे बच्चे भी पालने पड़ते है। प्रकृति ने कुछ सोच समझकर उसे बच्चे सौंपे होंगे..! एक दिन मेरी किसी के साथ अच्छी बहस हो गयी, पूरी की पूरी हायपोथेटिकल.. सोचो यदि पुरुष गर्भधारण करते तो? कैसा लगता जब पुरुष की गोदभराई होती, एक हाथ से अपनी मूंछो पर ताव देते हुए दूसरे हाथ से अपना पेट संवारता कैसा लगता? मासिक धर्म यदि पुरुषों को होता तो पांच दिवस दुनिया के धंधे ठप्प हो जाते.. युद्ध का कारण सेनिटरी पेड़ अच्छा भी नही लगता..! वैसे यह सब कल्पना है, यही अच्छा है। तो मिसिज़ मूवी की कहानी इतनी ही है कि एक लड़की को डांस का शौख था, लेकिन शादी हो गयी, गृहस्थी नही निभा पाई, और वापिस लौट आयी अपने पिता के घर, अपने पैरों पर खड़े होने के लिए। देखो मेरा मंतव्य है कि यदि उसे गृहस्थी निभानी ही नही थी, या उसने शिखी ही नही थी, तो बाप के और ससुर के पैसे क्यों बर्बाद किये शादी के खर्चे में? एक बात यो पूर्णतः निश्चित है कि स्त्री के लिए नौकरी भी करना और घर भी संभालना बहुत कठिन है, पुरुष भी नही संभाल सकता। शायद इसी लिए काम बंटे हुए है कि दोनों में से किसी एक को घर पर ही रहना पड़ेगा, अगली पीढ़ी के अच्छे निर्माण के लिए। एक तो उसे रसोई बनानी आती नही, दूसरा उसे व्यवहार निभाना आता नही, फिर भी फ़िल्म संदेश देना चाहती है स्त्री को अपने पैरों पर खड़े होना चाहिए। लीड एक्ट्रेस है सान्या मल्होत्रा, मेरी फेवरिट। उसकी आंखें बड़ी सुंदर है। फ़िल्म का दिग्दर्शन बहुत सही है। एक एक फ्रेम में एक एक अनकही बाते है। नौ बजे यानी नाश्ता.. नववधू सुबह चार बजे उठकर किचन में लग जाती है, तब भी उसका काम पूरा नही होता, और अपने पति को टिफिन तक नही दे पाती..! अब सोचने वाली बात ही यह है कि उसे काम ही नही आता, मतलब इतनी बड़ी हुई पर सीखी कुछ नही। फिर उसकी दिली तमन्ना है डांस कोरियोग्राफी करने की, लेकिन अब विवाहिता है, उसके घर की आबरू है, नाच नही सकती अब, वह उसे मानना नही है। देखो, तुम्हे विवाह के पश्चात भी वह सब करना था तो पहले ही कॉन्ट्रैक्ट क्लियर कर लेती। 


ऐसा लग रहा है जैसे मैं सिर्फ उस लड़की के ही अवगुण गिना रहा हूं। देखो सीधी बात यही है कि मुझे जो लगा वही मैं बता रहा हूं। उसका पति भी गलत है। शाम को थका हुआ आता है, और पत्नी से पूछे बिना उपभोग करता है। वैसे लड़कियां आज भी अपने पिता की मानकर बेमन से विवाह कर लेती है, फिर न ही वो स्वयं खुश रह पाती है, न ही नए परिवार को अपना पाती है। फ़िल्म में उसकी माँ ने भी उसे समझाया कि एडजस्ट करना सीख, रसोई बनाना सीख, रसोई कितनी मात्रा में बनानी है वह सिख, लेकिन नही, उसे हरकोई उसपर दबाव बनाता, और उसका उत्पीड़न करता ही दिखाई देता है। उसकी पीड़ा यहां तक दिखाई है कि जैसे बात उसके अस्तित्व पर बन आयी हो। नजरिया थोपा जा रहा है फ़िल्म के द्वारा। विवाह के पश्चात मात्र स्त्री एडजस्ट नही करती, पुरुष भी करता है। फ़िल्म के अंत मे वह जैसे उसपर क्रूरता बरती गई हो, और वह प्रतिशोध लेती है, शिकंजी के बदले गटर का पानी पिला देती है मेहमानों को। मतलब घरमे घुलने मिलने के बदले यह फ़िल्म संदेश दे रही है कि नववधू को अपना स्वभाव नही बदलना चाहिए, उसके आने के बाद उस परिवार को अपना स्वभाव और जीवन बदल लेना चाहिए। यह फ़िल्म वुमन एम्पोवेर्मेंट की है ही नही, यदि मेकर्स ने सोचा होगा तो। सीधी बात है, समाज मे आज भी वधु वर के घर जाती है, वर घरजमाई बनकर नही जाता। जो जिसके घर जाए उसे अपने भीतर बदलाव करने पड़ेंगे। लेकिन इसका अर्थ यह भी नही है कि स्त्री को मात्र नौकरानी मानी जाए। वह रानी थी, है और बनी रहनी चाहिए। एक बात और है, फ़िल्म में उस लड़की ने अपने आप को बदलने की खूब कोशिश की, लेकिन परिणाम कुछ न आया। उसके ससुर को कमसे कम होंसला तो बँधाना चाहिए था। अगली मेहनत तो कर रही थी। बस उससे हो नही पा रहा था कुछ। रसोई के नाम पर नमक कम डालना, शिकंजी के नाम पर निम्बूपानी, और कई सारी गलतियां.. लेकिन वह कोशिश जरूर करती रही सुधारने की। यह तो प्रशंशनीय था।


मेरे दृष्टिकोण से तो यह फ़िल्म की कहानी घटिया है। हाँ, tv सीरियल टाइप बहु पर होते अत्याचार के नाम पर आत्म-आलोचना देखनी हो तो देख सकते है। प्रियंवदा, प्रकृति सबका हिसाब करती है। सब नपा-तुला है पृथ्वी पर। किसी की आकांक्षाएं अधूरी रहती है, तो उसे उससे अधिक लाभ भी कहीं मिल जाता है। 


समाज आज भी विवाह के मामले में भयंकर रूढ़िवादी है। लड़कीं कॉलेज से पास हुई, कि उसका रिश्ता पक्का कर देते है। वह और कुछ सीखे समझे, रिश्तेदारियां और व्यवहार सीखे तब तक उसका विवाह हो गया होता है। फिर तो रेस लगती है, हाँ रेस, पडोशी के यहां पहले ही साल बच्चा हो गया, अपने यहां अभी तक रामजी राजी न हुए। कैसे होंगे? लड़की के खुद के कुछ सपने थे। उससे पहले उसकी गोद में आये हुए के सपने पूरे करने में लग जाना पडेगा। लड़के को तो पता ही नही चलता कब वह पुरुष हो चुका है। हालांकि, सच्ची रीत भी यही है। क्योंकि यही उम्र है जब शरीर सबसे ज्यादा मजबूत होता है, और प्रसव जैसी प्रक्रिया का भार उठा सकता है। अन्यथा सोचने समझने में चालीस की उम्र हो जाए, तब संतान की कामना भी कुछ तो असहज कर दे। खेर, सबका अपना नजरिया है। यह मेरा विचार था, तुम बताओ प्रियम्वदा, तुम्हे क्या लगता है?


|| अस्तु ||


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2Comments
  1. काल्पनिक दुनिया में अपने रेतीले महल को सजा रही होती हूँ तबतक आप वास्तविक जगत के तर्क की आँधी से मेरे महल को धराशायी कर देते हैं...आगे क्या बोलूँ? 😂

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    1. कल्पना बस मन बहलाने के लिए है... वास्तविकता सदा से ही कठोर होती है।

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