"जब प्रेम पीटा गया और रंगों ने दिशा बदली" || 'Good writers' need topics for writing, not me...

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प्रेम: नगाड़े जैसी पीटी हुई उपमा

    तुम्हे पता है प्रियंवदा.. लिखने के लिए विषयो की आवश्यकता 'अच्छे लेखकों' को होती है, मुझ जैसे फेकू को विषय की आवश्यकता नहीं होती..! तात्पर्य है कि मैं  लिखता हूँ मेरा टाइमपास करने के लिए, न की किसी विषय पर अधिक गंभीरता को धारण करते हुए, आँखों को अर्ध-मींचते हुए, अपने सर को इधर-उधर हिलाते हुए अपनी राय रखने के लिए। चलो फिर घसीटते है प्रेम को। प्रेम को सबसे अच्छी उपमा देनी हो तो वह होगी की प्रेम नगाड़ा जैसा है..! कोई भी बजा सकता है। नगाड़ा बजाने के लिए बस दम लगता है, क्योंकि नगाड़े में कोई ताल, या लय नहीं होता, उसे बस पीटना होता है। 


    अरे हां ! नगाड़ा और नोबत में फर्क होता है हां..! भारतीय संगीत वाद्य यंत्रो को मुख्यतः  चार विभाग में बांटा हुआ है, तत् वाद्य (जिसमे तार हो जैसे तम्बूरा, या एकतारा), सुषिर वाद्य (बांसुरी, शंख या शहनाई), अवनद्ध वाद्य (नगाड़ा, मृदंग, ढोल) और घन वाद्य (झालर, मंजीरा, झांझ).. समय समय काल में इन वाध्ययंत्रो में भी विकास हुआ। समय की मांगनुसार इन यंत्रो में भी नवसंस्करण होते गए.. लेकिन नगाड़ा आदि से लेकर आज पर्यन्त उसी स्थिति में बना हुआ है। देखो समाज भी एकलता पसंद नहीं करता.. नगाड़ा बेचारा अकेला पड़ा रहता था, तो संशोधकों ने नोबत खोज निकाली। युगल ही पसंद आते है हमारी मानसिकता को। किसी को अकेला रहना हो तो भी उसे रहने नहीं देते लोग।


नगाड़ा और प्रेम: एक हास्यपूर्ण साम्यता

    अब प्रेम के साथ नगाड़े को जोड़ते है। देखो नगाड़ा पूजनविधि से लेकर रणभूमि तक रचा रहता है, प्रेम भी बाल्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक अनचाहा भी बना रहता है। नगाड़ा पीटा जाता है, प्रेमी कूटे जाते है। नगाड़ा एकांत, और शांत स्थानों पर पड़ा रहता है। प्रेम भी शांतिप्रिय तो है ही भले ही प्रेम के कारण मारकाट मचती रहे वह गौण बात है। नगाड़ा ढुलमुल और बड़े आकार का है, प्रेम में भी विवाह के पश्चात लोगो को बाह्य और आंतरिक आकार ढुलमुल ही हो जाता है। 


    नगाड़े पर चमड़े का आवरण है, प्रेम भी चमड़ी वालो में ही उत्पन्न होता है। नगाड़े का स्वर-ताल ठीक करने के लिए रस्सी से कसा जाता है, प्रेमी को भी कईबार पेड़ से कसकर बाँध दिया जाता है। नगाड़ा एक ही स्वर में बोलता है, कहीं से बजा लो, चाहे केंद्र में दांडी पीटो या किनारे पर पीटो, उन्नीस-बीस का ही स्वरभेद है। प्रेमी भी एक ही स्वर में बोलते है, अमावस्याकी रात को एक प्रेमी कहे की दिन है तो दूसरा प्रेमी स्वीकार लेता है कि "हाँ मध्यान्ह का सूर्य तप रहा है।" 


    जर्जरित होने पर नगाड़ा बदलता है, अब कोई यह मत कहना की प्रेम नहीं बदलता, वह भी बदलता है.. प्रेम तो गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलता है। अब रंग को व्यवहार, भाव, किसी भी तरह से विश्लेषित कर सकते हो। वो होते है न, दो बिछुड़े आशिक, जो सालो बाद किसी अन्य जीवनसाथी के साथ एकदूसरे से टकरा जाते है। वह प्रेम का ही एक बदला हुआ रंग ही तो है। 


प्रेम के बदलते स्वर और बदलते रंग

    नगाड़े पर दांडी पड़ती है, नगाड़ा संगीत के ताल को व्यक्त करता है, लेकिन प्रेमी पर दांडी पड़ते ही 'माईबाप और माफ़ी' करने लगता है... ऐसा भेदभाव क्यों? बस सजीव और निर्जीव में स और न का ही तो फर्क है। फिर भी शायद अंतर बहुत है, इसे उन्नीस-बीस के भेद में नहीं खपा सकते। तो इस भेद का निराकरण क्या लाया जाए? वज्रांग-दल वाले इस भेद को चौदह फरवरी पर अच्छे से समझा सकते है। अब तो मंदिरो के लिए आटोमेटिक नगाड़े आए है.. तो प्रेम में भी नूतन संस्करण हुआ होगा न.. लेकिन लिखना नहीं चाहता। और कितना कोसु इस आकर्षण, आवश्यकता और उत्तरदायित्व के नाम पर चरने वाले प्रेम को..!


इंद्रधनुषी सोच का उदय: आत्म-चिंतन या भीड़ की प्रेरणा?

    एक थोड़ा गंभीर विषय है लिखने का मन भी है.. और नहीं भी..! मुझे है न एक बात बहुत खल रही है। क्योंकि मैंने बचपन से तीन ही रंग देखे थे, Black, White & Grey.. लेकिन पिछले कुछ सालो में यह इंद्रधनुष चारो और अपने रंगो की अतिवृष्टि कर रहा है.. विचारणीय है। वो बात ठीक है की अपनी पसंदगी की श्रेणी और मापदंड होते है, लेकिन यह जो इंद्रधनुषी रंगो का गुब्बारा फुलाया जा रहा है न वह कहीं एक आदर्श स्थापित न कर दे, भय मुझे वहां दिखाई पड़ता है। 


    मेरे स्कुल के दिनों में मुझे आँखों पर चश्मा नहीं था, मेरी आँखे बिलकुल स्वस्थ थी, लेकिन मैंने दुसरो को देखकर आँखों पर बस फैशन और शौक के लिए चश्मा पहना था, आज ढाई नंबर चढ़ गए है। हमारी प्रकृति है, दुसरो को देखकर, दुसरो के कार्य से प्रेरणा लेना। यह जो मार्चिंग, और रोडशो होते है, जामुनी और गुलाबी के अन्य Shades वाले रंगो के.. वो किसी स्वस्थ को अपने आकर्षण के पाश में न बाँध ले। अबे प्रेम तो इस इन्द्रधनुषिओ में भी है..!!! देखो प्रकृति ने तो एक या द्वय ही बनाए थे। 


    या तो एककोशी जिव, या फिर बहुकोशी ओ में नर-मादा। लेकिन अब तो पता नहीं कितने प्रकार बन चुके है। यह मुझे तो देखा-देखि ही दिखाई पड़ती है। जन्मता होगा कोई प्राकृतिक भाव.. पर उसका इस तरह से महिमामंडन (Glorify) करना ठीक नहीं है। अब इस विषय पर कुछ कहना मतलब है तो जजमेंट पास करने जैसा लेकिन इस जजमेंट के बचावपक्ष में मैं अपनी अभिव्यक्ति की आझादी आगे कर रहा हूँ..


    चलो फिर, बाबा दिलावरसिंह मनमौजी के बेस्वाद प्रवचनों में से आज इतना ही। 


|| अस्तु ||

    #प्रेमऔरनगाड़ा #इंद्रधनुषीचिंतन #व्यंग्यलेखन #DilayariDiaries #BabaDilawarSays 


वैसे नगाड़ा पीटने वाले प्रेम की चर्चा करते हुए अगर आपको असली दोस्ती की कसौटी पर भी चलना है, तो ये भी पढ़िए — Friendship वाली दिलायरी


क्या आपके जीवन में भी प्रेम नगाड़े की तरह ही बजता है?
या फिर इंद्रधनुषी सोच के शेड्स आपको भी कभी चश्मा पहनने पर मजबूर कर चुके हैं?

तो चलिए, आज इस व्यंग्य को अपने दोस्तों तक पहुँचाइए,
और पूछिए –

"क्या सच में प्रेम में लय होती है, या वो सिर्फ पीटा जाता है?"

शेयर करें | टिप्पणी करें | बाबा दिलावरसिंह के विचारों से सहमत हों या विरोध करें –
लेकिन नगाड़ा जरूर बजाइए..!

क्योंकि —
#BabaDilawarSays : व्यंग्य बजाओ, सोच जगाओ..!


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