रामायण का अभिशप्त संवाद: फिल्म और इतिहास के बीच
प्रियंवदा ! कुछ बाते ऐसी होती है जो कभी मिटती नहीं। कुछ कहानिया, कुछ इतिहास, नष्ट नहीं होते। कर्णोपकर्ण चलते जाते है। भारतवर्ष की इस भूमि पर कितने ही आक्रांता आए, लेकिन रामायण कभी नष्ट न हुई। कैसे होगी? जब कोई साहित्य ह्रदय में बस जाता है, जब कुछ नैतिक मूल्य आचरण में उतर आते है.. फिर नष्ट होना असम्भव है। शायद DNA में घुल जाते है। अनुवांशिक गुण समान। रामायण में कितने सारे नैतिक मूल्य है.. त्याग, समर्पण, महत्वाकांक्षा, राजनीति, स्नेह, सद्भाव, भक्ति, मैत्री, शत्रुता। त्याग और समर्पण यह दो मूल्य उड़कर आँखमे लगते है, पूरी रामायण में। कैसा दिन होगा वह, जब अयोध्या की राजगद्दी फुटबॉल की भांति एक भाई से दूसरे भाई के पेरो में आ पड़ती हो। कितना समर्पण, एक भाई दूसरे भाई की खड़ाऊ को सर्वस्व माने।
फिल्म मात्र मनोरंजन नहीं होती – वह विचार बन सकती है
वह कथा आज तक कोई आक्रांता नहीं मिटा पाया। कथा या कथा से जुडी जगह भी आजतक वहीँ स्थिर तपस्वी की भांति अड़ीखम है। नाटक के स्वरुप में, कविता के स्वरुप में, अब के समय में फिल्म के स्वरुप में भी वह कहानी कही जाती है। उसके नैतिक मूल्यों को आचरण में लाने का प्रयास किया जाता है। बहुत समय पहले मेने सुना था की रोहित शेट्टी भी रामायण पर फिल्म बना रहा है। तब लगा था की यह बॉलीवुड के लोग नहीं बना सकते, ताज़ा ताज़ा उदहारण प्रभास वाली रामायण का था ही। मनोज मुन्तशिर जैसे ने भी संवाद के नाम पर बतंगड़ ही बना दिया। तब थोड़ा भरोसा हो गया था कि नहीं, फिल्मीजगत कभी भी रामायण को न्याय नहीं दे सकता। रोहित शेट्टी का सुना की वह भी रामायण बना रहा है, और करीना कपूर का नाम सुना कि सीता बनेंगी यह, तब तो मुझे बड़ा ही विचित्र अनुभव हुआ था कि "भाई, तैमूर की मम्मी सीता के अभिनय में?" फिर दीपिका का भी नाम सुना। फिर आज सिंघम ३ देखि। सारा मामला सुलझ गया।
रोहित शेट्टी बनाम प्रभास – सिनेमाई संवेदना की तुलना
दो समांतर चलती अलग कहानियाँ। रामायण के समांतर सिंघम चलती हुई, रामायण से प्रेरणा लिए हुए। वैसे तो बिलकुल ही रामायण की नकल ही उतारी है। सीताहरण, लंकादहन, रावणवध। सब कुछ है, बस राम की जगह सिंघम है। और साथ साथ रामायण भी दिखाई जाती है। यह आजकल बहुत ट्रेंड में है। सनातन वाद। बॉलीवुड वाले कमाने के लिए बहुमति क्या पसंद करती है वह सोचने लगा है। और इन्हे यह भी पता है, रामायण की कहानी को कौन ही नकारेगा। खुद के पास कहानी थी नहीं, तो रामायण तो सदाबहार है ही, बस कुछ कार उड़ानी है। बाकी VFX जिंदाबाद।
हाँ ! सबसे अच्छा है वो कवि। नाम मैं भूल गया लेकिन राम पर जिसकी कविता खूब वायरल हुई थी। सायको शायर। जिसकी अंतिम पंक्ति का सार था कि त्रेता वाला तो मिल गया, द्वापर वाले को मत भूलना। अच्छी कविता है वो। उससे अच्छा है उसका प्रदर्शन का तरीका। ज्यादातर तो इस सिंघम ३ में एक्शन सीन्स है। लेकिन वो बात अच्छी लगी की उसने सूर्यवंशी, और सिम्बा की कहानी का भी रिकैप दिया है थोड़ा सा। तो मन थोड़ा डायवर्ट होकर वह कहानी भी याद कर आता है। चालु फाइट में थोड़ी थोड़ी कॉमेडी का मजा भी अलग है। खेर, मुझे तो अच्छी लगी, लेकिन जिसने सजेस्ट की थी मूवी, उसे इतनी पसंद नहीं आई, क्योंकि कहानी के नाम पर इन्होने रामायण ही बनाई है। सबकी अपनी पसंद है, मुझे भी न आती पसंद, क्योंकि जब रामायण का ही रीमेक बनाना ही नए पात्रो के साथ तो फिर रामायण ही बना लेते। वही रामानंद सागर की। जिसमे करुणा और प्रेम के अलावा कभी कुछ दिखा ही नहीं।
रामायण को कहानी क्यों न कहें? – इतिहास और प्रतीक
प्रियंवदा..! मुझे फिल्मे मात्र मनोरंजन के लिए भी पसंद है, और पटकथा के लिए भी। सीधी बात है, कहानी में दम हो तो गाड़िया न उड़ानी पड़े। लेकिन वह लंकादहन का सिन हो और गाड़ियां उड़ाई जाए तब प्रभावकारी भी है। ओवरॉल अच्छी बनाई है। और ढेर सारा शुक्रिया की मूल रामायण से कोई छेड-छाड़ नहीं की गई है। हालाँकि यह तो हम मूल रामायण मानते है, दक्षिण भारत की रामायण अलग है, थाईलैंड, और कम्बोडिया की रामायण अलग है। एक ही कहानी का इतना विस्तरण हुआ हो तो उसमे कुछ बदलाव आने स्वाभाविक है। अच्छा मैं यहाँ रामायण को कहानी लिख रहा हूँ तो कोई कट्टर सनातनी उग्र न हो जाए इस लिए कह भी देता हूँ की मैं मानता हूँ की रामायण इस भूमि का इतिहास है।
क्योंकि इतिहास साक्ष्य मांगता है। और इसी भारतवर्ष की भूमि ने कई साक्ष्य दिए है। रामसेतु.. आर्थिक उत्थान हेतु कुछ वर्ष पहले रामसेतु के मध्य से सामुद्रिक मार्ग बनाने की मांग उठी थी, क्योंकि आज भी बड़े 'वेसल' श्रीलंका की प्रदक्षिणा करके जाते है। भारत और श्रीलंका के बिच से होकर नहीं निकल सकते, समुद्र भी छिछरा है वहां, और आस्था का भी विषय है। उपरांत सामुद्रिक जीवो के संरक्षण के नाम पर भी रामसेतु बना रहा वह बड़ी अच्छी बात है। वरना सुएज और पनामा की तरह कुछ लोगो की मनसा यहाँ भी एक केनाल बनाने की जरूर रही होगी।
जब मूल्यों का समर्पण हो – अंगद विष्टि की महिमा
नैतिक मूल्य जीवन की आदर्शता स्थापित करते है। यदि जीवन में कुछ भी नीतिमत्ता है ही नहीं फिर तो पशुता ही है। ऐसी ही पशुता को धारण किये कई लोग हमे दिख ही जाते दिनभर में। विवरण की आवश्यकता है क्या? नहीं है। और न ही मैं करना चाहता हूँ। विष नहीं घोलना है राम का नाम लेने के पश्चात। मुझे कभी कभी अंगद का पात्र समझ नहीं आता। वह अपने पिता के हत्यारे के पक्ष में कैसे हो सकता है? लेकिन वह एक नैतिक मूल्य ही है की जब अपना पिता भी पथभ्रष्ट हो तो उसका पक्ष छोड़ देना चाहिए। हमारे यहाँ 'लोक डायरो' में अंगद का पात्र कभी कभी जरूर बखाना जाता है। कलाकार बड़े चाव और रसप्रद तरिके से सुनाता है कि अंगद जब रावण से विष्टि हेतु गया, और कैसे उसने अपनी पूंछ से रावण से भी ऊंचा आसन ग्रहण किया, कैसे उसने अपना पैर जमीन पर रखकर चुनौती दी कि, "पैर उखड़ा तो सीता हारा।"
अंगद और बाली – नैतिकता बनाम निजी पीड़ा
यह तर्क भी दिया जाता है कि उस दिन वह पैर इस लिए भी कोई नहीं उठा सका की अंगद के बल के उपरांत माता धरती भी अंगद के पैर को उखड़ने से रोक रही थी, क्योंकि सीता धरती पुत्री है। लोग पैसो की नदिया बहा देता है इस प्रसंग को सुनते हुए। और तब और पैसा उड़ाया जाता है जब अंगद रावण की हंसी उड़ाते हुए अपना परिचय देता है कि "मैं जब पालने में था तब तुझे मेरे पिता ने मेरे पालने में घुंघरू की तरह बांधा था। और मैं बचपने में तुझे लात मारा करता था। कैसे छह महीने तक मेरे पिता तुझे अपनी बगल में दाबे घूमते थे।" मजा ही आ जाता है यह प्रसंग सुनकर। क्योंकि अंगद छोटी उम्र का था। छोटी उम्र में किये पराक्रम हंमेशा उत्साहवर्धक ही तो होते है। क्या साहस रहा होगा उसमे कि वह सीता को दाव पर लगा सकता है। क्या विश्वास रहा होगा उस पर राम का, कि जिसके पिता का राम ने वध किया है फिर भी उसी बाली के पुत्र को राम दूत बनाकर विष्टि हेतु भेज सकते है। गुजराती भाषा में कवि शामळ ने महाकाव्य लिखा है इसी प्रसंग पर "अंगदविष्टि" नाम से। छप्पय, दुहा, सवैया, झूलणा छंदो में।
खेर, आज बहुत सी बाते कर दी.. चलता हूँ अब। फिर मिलेंगे, यही लेकिन किसी नए पन्ने पर।