प्रियंवदा और प्रेम की अविरत लहर: एक भावनात्मक आत्मस्वीकृति || Many mountains fall in love for the flat land...

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ठंडी हवाओं के बीच प्रियंवदा की गर्म यादें

    प्रियंवदा.. शीतलहर बह रही है बाहर, भीतर तब भी तुम्हारी लहर ही अविरत अखंड है। यह प्रकृति भी बड़ी अजीब है, तुम भी। प्रकृति शीतल हो तो तब तुम्हारी कल्पनाए उष्मावान होती है। प्रकृति गर्म हो तब तुम्हारी यादे ही मन को शीतल-शांत रखती है। विपरीत चलती हो उससे.. और मुझसे भी..! शायद तभी तो मैं तुम्हे रटता रहता हूँ। कामना उसी की होती है जो नहीं होता। जैसे तुम.. पर नहीं तुम तो हो। बस बाह्य स्वरुप तुम्हारा मुझसे कई मिल दूर है। अंतर्मन तो मेरा ही तुम्हारे पास रहता है। 

    फिर भी तुम्हारी कमी तो खलती है। क्यों? मुझे भी तो तुम्हारी गोद में सर रखकर अपने दिनभर के परिश्रम से उपजी अशांति को त्यागना है। लेकिन कुछ स्वप्न कभी भी वास्तविकता में नहीं उतर सकते। उन्हें वहीँ धीरे धीरे अपना अस्तित्व मिटाना होता है। जैसे कई पहाड़ गिर जाते है, समतल धरा के स्नेह में।


स्वप्न जो हकीकत नहीं बनते

    तुम्हारे ख्याल में चाय भी ठंडी हो चुकी। कहते है ठंडी चाय जहर है। मुझे मंजूर है। उस चाय में तुम्हारी यादे संमिश्रित है। उन यादो के अर्क सा अमृत ठंडी के विष को अप्रभावित कर देगा। तुम्हे याद करते हुए आजकल कुछ भी लिख रहा हूँ मैं। अतार्किक। अवैज्ञानिक। सब तुम्हारी मेहरबानी है प्रियंवदा ! सब। 

प्रेम की पीड़ा और उसकी स्वीकृति

    अनेको वर्षो से मुझ जैसे प्रेम को नापने निकलते है। बड़ी ही मुँह की चोट खाते है, कुछ रोकर अपनी पीड़ा पचा लेते है। कुछ उस पीड़ा को भी अपनापन देते है, उसे भी प्रेम से सम्हालकर रखते है। फिर किसी दिन वह पीड़ा का एक कतरा कागज़ पर उतर आता है। सराहा जाता है, बखाना जाता है।

रूप, गुण और तुम्हारी मूरत

    प्रियंवदा ! रूप और गुण यह दोनों सदा से प्रशस्ति के सिद्धहस्त रहे है। सदा से इन दोनों ने बहुत कुछ किया है संसार में। जिसके पास रूप है, उसका अपना महत्त्व है, जिसके पास गुण है उसका भी अलग। यदि किसी के पास दोनों ही हो तब... पद्मिनी। रूप की प्रशंसा हो या गुण की, यदि किसी को प्रशंसा करनी आती है तब तो उसे अपने प्रभाव हेतु और चाहिए क्या? पता नहीं आज शब्द मुझे पीछे धकेल रहे है। बहुत पीछे। 

    क्या हम कभी वास्तव में मिलेंगे? लगता नहीं। यहाँ मेरा भाग्य कड़क पहरा भरता है। उस आखरी बातो के बाद मिलना तो मानो 'अस्तु' ही हो गया। तुम्हे कितना कुछ लिख चूका हूँ मैं, तुम्हे कितना कुछ बताता रहता हूँ इन पन्नो पर। लेकिन तुम हो कि बस पथ्थर। मैं फिर भी तुम्हे ही उस पथ्थर से अनावृत होती मूरत मानकर पूजता हूँ। तुम्हारे उस रूप को जो मूरत की ही भांति अंकित हो चूका है। अमिट शिल्प। अखंडित।

|| अस्तु ||


प्रियंवदा…
कुछ लोग, कुछ शब्द, कुछ चाय की प्यालियाँ —
कभी फीकी नहीं पड़ती।
There Are Some Things That Never Fade

प्रिय पाठक!
क्या आपने कभी प्रेम को पूजा की तरह निभाया है?
कभी किसी के पत्थर-सन्नाटे में भी उसकी मूरत देखी है?
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ताकि जान सकूँ कि प्रेम केवल संवाद नहीं, संवेदनाओं की साधना भी है।

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