झाड़-पोंछ डॉक्टर, बर्नआउट और मिडल क्लास की रात || दिलायरी : ०१/०२/२०२५ || Dilaayari : 01/02/2025

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डॉक्टर का क्लिनिक और बबूल की टहनी

    झुकाम बड़ी नार्मल सी चीज है वैसे तो, प्रत्येक ऋतुसंधिकाल में होनी तय है, सामान्य ही है। लेकिन ४-५ दिन हो गए। बड़ी कमजोरी सी लगने लगी थी। तो सुबह सुबह पास में ही एक क्लिनिक है, वहां पहुँच गया। बड़े सही डॉक्टर है। थोड़े से क्रोधी और मुंहफट भी है। छोटी-मोटी चीजों के लिए धक्के नहीं खाने का, सीधा मुँह पर बोलते है। घाव है, बर्फ लगाओ, दवाई पर खर्चा मत करो। मुंह के जबड़े की दिक्कत है, देशी बबूल की सींग चबाओ.. सुबह शाम। कच्छ की राते ठंडी होती है। कान ढंका करो। 

    एक दिन उन्होंने मेरे सामने एक पेशंट को धमका दिया, बोला, मेरे पास दूसरी बार नहीं आने का, एक बार में ठीक न हुआ तो सीधा MBBS के पास चले जाने का। बड़े अजीब आदमी है। जब भी जाओ, आयुर्वेद के बड़े बड़े थोथे खोले बैठे हुए होते है। कॉरोना काल में भी कई लोगो को कहते थे डरो मत.. 

    मुझे याद है, एक पेशंट आया था। डॉक्टर ने बहुत होंसला बंधाया, लेकिन वो डर के मारे हार्टटेक से मर गया। सुबह सुबह मेरे आगे भी ज्ञान का पिटारा खोल दिया। "देखो, अभी दोहरे मौसम हो रहे है, दिनको होती है गर्मी, रात को गिरती है औंस, बाहर का खाओ मत, कान ढके हुए रखो, और गर्म पानी पीओ..! तुलसी के पत्ते चबाओ.." और एक और कुछ आयुर्वेदिक आइटम के बारे में विस्तार से समझाया, लेकिन मुझे कुछ भी याद रहा नहीं।


ऑफिस और सरदार की उपस्थिति रिपोर्ट

    इन्ही के चलते ऑफिस पर पहुंचा तब पौने दस बज चुके थे। सरदार मुझसे पहले पहुँच गया था। दोपहर तक सरदार की गैरहाजरी में किये कामो के हिसाब-किताब देने में समय गुजरा। दोपहर को आज गजा अकेले ही मार्किट चला गया। अच्छा हुआ मैं नहीं गया, मैं भी जाता तो फिर से हरी घास का मैदान देखकर भैंसा राजी हो जाए ऐसे ही कुछ नाश्ते चरने लगता। दोपहर बाद फिर से शनिवारीय हिसाब-आदि में प्रवृत्त हुआ। 

    आज कुछ फालतू समय भी मिला था, और दवाई के प्रभाव से शरीर में भी स्फूर्ति है तो एक AI, तथा बजट और मिडलक्लास को मिलाकर एक फ़ालतू सा लेख भी लिख दिया है जो कल साढ़े दस बजे को शिड्यूलड़ कर दिया। कल पुरे दिन कुछ भी नहीं लिखा था, वह कल की दिलायरी भी लिखकर दोपहर बाद पोस्ट कर दी।

शनिवारी हिसाब और कल की पोस्टिंग

    अभी फ़िलहाल रोकड़ वगैरह मिलानी है। देखते है कहाँ कहाँ क्या क्या टूटता है। वैसे अभी नौ बजने आए है। दो गाड़ियां लगी है, दोनों ही लेट से फ़ाइनल होने वाली है। तब तक बैठना ही पड़ेगा, मतलब साढ़े दस बज जाएंगे शायद। एक तरफ L&T के करता-धर्ता कह रहे है की लोगो को हफ्ते में सत्तर घंटे काम करना चाहिए। लोग विरोध कर रहे है, कि उससे 'वर्क बर्नआउट' अनुभव होता है, और एक हम है, जो जानते ही नहीं की वो किस बला का नाम है। खेर, यह सब तो चलता रहता है। 

रील्स, लेट गाड़ियाँ और मध्यवर्गीय थकान

    अभी बज रहे है २१:५६.. ऑफिस पर ही बैठा हूँ। व्यापार एक ऐसी चीज है जिस में विश्वास नाम की चिड़िया कभी भी स्थिर नहीं बैठती। खरीदने वाला भी पूर्णतः भरोसा नहीं करता, ना ही बेचने वाला, क्योंकि बेचनेवाले को डर है कि अगला पूरा पेमेंट करेगा या नहीं। ज्यादातर ग्राहक लास्ट में राउंडोफ़ के नाम पर भी कुछ कम ही चुकाते है। 

    चलो अब, कुछ रील्स वगैरह को न्याय देना है। चलता हूँ, शुभरात्रि।
    (०१/०२/२०२५, २१:५८)

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प्रिय पाठक!
अगर कभी झाड़-पोंछ डॉक्टर की फटकार मिली हो,
या ऑफिस में रील्स ही सबसे ज़रूरी काम लगे हों —
तो आइए,
एक और दिलायरी देखिए:
31 जनवरी की दिलायरी

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