जनवरी का आखिरी दिन: ट्रैफिक, झुकाम और ‘कैथी’ की रात || दिलायरी : ३१/०१/२०२५ || Dilaayari : 31/01/2025

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जनवरी, झुकाम और जिजीविषा

    सररर से बीत गया २०२५ का जनवरी। आज 31 जनवरी है। नूतन वर्ष के प्रथम मास का अंतिम दिवस... सच बताऊं तो इस महीने आधे दिवस कुम्भ जाने के कारणों को समझने में बीते है, और आधे दिवस वहां की अत्यधिक भीड़ को देखकर ना जाने के कारणों को आत्मसात करने में गुजरे है। आज तबियत कुछ ज्यादा ही बिगड़ी हुई लगी, कारण है कि झुकाम से जकड़े देह को और थोड़ा जकड़ने के लिए बाहरी नाश्तों का सेवन कर लिया।



    दोपहर बाद तो चार से छह ऑफिस में ही कुर्सी पर सो गया था। सरदार है नही तो कोई खास काम भी न था। बस फर्क इतना कि छुट्टी नही रख सकता था। शुक्रवार था, नेशनल हाइवे टच मस्जिद से कुछ पहले हुए एक्सीडेंट के कारण साढ़े चार किलोमीटर से लंबा ट्रैफिक जाम था, मैं और गजा मार्किट जा रहे थे। पता है कि झुकाम लगा है फिर भी नाश्ता करने और थोड़ा काम था वो भी निपटाने। ट्रैफिक जाम को चीरते हुए हमने कई ट्रक के बीच मे से हॉर्न दे देकर रास्ता निकाला, और आखिरकार मस्जिद तक पहुंचे तो वहां शुक्रवारी ट्रैफिक और लगा हुआ था। 


ट्रैफिक जाम के बीच ‘कभी-बी’ की पफ

    जैसे तैसे वहां से निकले और मार्किट में 2-3 काम निपटाकर चले 'कभी-बी' इसके पफ बड़े लज़ीज़ होते है। चीज़ पफ दबाए.. मुझे पता है मैं बीमार हूँ लेकिन जिह्वा को नही पता है, न ही स्वीकारना-समझना चाहती है। हालात यूँ हुए की मार्किट से रिटर्न आने पर चार बजे नींद आने लगी और कुर्सी पर ही सो गया। शाम छह बजे आंखे खुली, काम तब भी कुछ न था। लेकिन पहचान वाले आए, तो थोड़ा चाय-बिस्कुट का सेवन किया और घर चला गया, जैसे यह जनवरी गया है, खालीखम होकर।


बीमार जिह्वा और मार्किट की लालच

    आंखे अब भी निंद्रा से घिरी थी। खाना खाकर, हुकुम से कुछ ताने सुने, क्योंकि दवाई लेने गया नही था। पता नही, अपने को दवाई लेने से कोई घिन्न या असहजता नही होती फिर भी मैं झुकाम जैसी चीजो में दवाई लेने जाता है नही हूँ। जब लगे कि अब नही सह जाएगा तब जाके डॉक्टर की जेब मे कुछ डालता हूँ। कंजूसी नही है यह, लेकिन पता नही झुकाम को मैं कुछ समझता ही नही। धीरे धीरे झुकाम अति हावी हो जाए तब भागता हूँ। बुरी बात है, शत्रु को उगने/उठने नही देना चाहिए। 


कैथी/कैदी — एक रात, एक वादा

    अच्छा, यूँ तो निंद्रा के कारण आँखी घिरी हुई मालूम होती है, लेकिन निंद्रा नही आती.. रात को ग्यारह तक तो तब भी मैं 'कैथी' / 'कैदी' देखता रहा था। दक्षिण में अंग्रेजी स्पेलिंग के उच्चारण मुझे समझ नही आते। क्योंकि वो कैदी होना चाहिए जिसका स्पेलिंग 'Kaithi' लिखा है। होगा कुछ। बड़ी सही कहानी है। कुछ पांच-छह लोग गलत समय पर एक जगह फंस गए थे। दक्षिण की फिल्मों की कहानी में एक्शन यानी कि मार-कुटाई में वैज्ञानिक या तर्कसंगत सिद्धांतो को तो भूल ही जाओ.. क्योंकि एक हीरो के शरीर मे ढेरो छेद होने के पश्चात भी वह जिंदा रह सकता है.. जिजीविषा कहते है शायद उसे..! 


दक्षिण भारतीय फिल्मों की अद्भुत जिजीविषा

    लेकिन उच्च श्रेणी की जिजीविषा यह दक्षिण भारतीय फिल्मों में ही देखने को मिलती है..! पूरी कहानी बस एक रात की है। शाम को शुरू हुई फिल्मी कहानी सुबह होने से पहले खत्म हो जाती है। अभिनंदनीय है कि अंतिम सिन में दिन का उजियारा तो दिखाया। मजाक छोड़कर, मुझे बहुत ज्यादा पसंद आई यह फ़िल्म। एक नैतिकता तो है, किसी ने वादा किया है तो वह निभाएगा जरूर। विश्वास है, अब आधे रास्ते साथ नही छोड़ा जा सकता। ठीक है, फिलहाल तबियत, आलस, और फ़िल्म देखने के चक्करों में और कुछ लिखना रास भी नही आ रहा और इच्छा भी नही हो रही है।


शुभरात्रि।

(३१/०१/२०२५, २३:०३)


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