प्रियंवदा ! जीवन हर पल कुछ नया सिखाता है। और थोड़ा बहुत सुरूर हो तब तो और बहुत सी बातें समझ आने लगती है। एक तो मेरा लोभी स्वभाव, हर समय पैसों के बारे में सोचता रहता हूँ। लेकिन इतना अच्छा है कि अनीति से कमाने का ख्याल नही आता। आज रविवार था। कल रात को झुकाम सा मुझे भी लग रहा था। तो सुबह जब आठ बजे आंख खुली तब भी पौने नो तक तो बिस्तर में पड़ा ही रहा था। आजकल चित्तु भी नींद में बड़बड़ाता है। सुबह जागने की जरा इच्छा नही होती है। बस पड़े रहो देर तक यही मन करता है। वैसे भी रविवार था, आराम से ग्यारह बजे ऑफिस गया.. क्योंकि सरदार खुद बारह बजे आता है। पता था कि यह आज चार बजाएगा। ऊपर से महीना खत्म हुआ था तो सबकी सेलरी वगेरह में, और छुट्टियां वगेरह काटने में भी समय लगता है।
लगभग चार बजे तक यही चला फिर भी चार आदमी के लिए पैसे कम पड़ गए। सरदार मेरी ओर देख रहा था तो मैंने तुरंत कह दिया, मुझे मार्किट में कुछ काम है, मैं निकलता हूँ। क्योंकि उसका मेरी ओर देखने का मतलब था कि मैं उसके घर जाऊँ, वहां से पैसे ले आऊं, फिर वापिस ऑफिस आऊं, और इन पैसों को बांटकर वापिस अपने घर जाऊँ। माना कि मुझे ऑफिस पसंद है लेकिन इतनी भी नही कि सन्डे का पूरा ही दिन बर्बाद कर लूं। वैसे ही चार बज गया था। दूसरे लड़के को यह काम पकड़ा के मैं घर पहुंचा। चार बजे क्या ही खाया जाए? दो रोटी, फिर भी टिका ली.. तभी पत्ते का फोन आया। बैठकी के लिए। पत्ते की कार, श्मशान के पास कोई आता जाता नही, तो वहीं बैठ गए। लेकिन अब यहीं से एक रास्ता गुजरता है तो बार बार वाहन आ-जा रहे थे। फिर एक पेप्सी की बोतल में मिक्स कर लिया और ग्राउंड में ही बैठ गए। पेप्सी पर कोई क्या ही शंका करेगा?
बस फिर, रात का खाना खाकर कुछ देर दुकान पर बैठकर यह दिलायरी लिख दी और क्या, बस, शुभरात्रि।
(०२/०३/२०२५)