सुनो प्रियंवदा, अधिकार के आगे लोग कर्तव्यों की बात कहाँ करते है? सच में, कभी कभी कहीं कोई चोटदार बात मिल ही जाती है। वास्तविकता है न.. चोटदार ही होगी।
अरे सुबह आज ऑफिस लेट भी पहुंचा था। कल मामा और ताऊ दोनों रिश्ते बने थे मेरे। दो दो लक्ष्मी जी का शुभागमन हुआ। तो सवेरे अस्पताल चला गया। वहां से बैंक में कुछ काम था तो sbi चला गया। सदाबहार sbi.. दस बजे का समय जरूर लिखा था काउंटर पर, लेकिन दस बजकर बारह मिनिट पर मेरा काम उन्होंने हाथ में लिया। फिर अधूरे में पूरा वहां एक और व्यक्ति टकरा गया, जो मेरी दस मिनिट इसी लिए खपा गया क्योंकि उसे कमीशन मिलता अगर मैं योनो sbi में उसके कहे अनुसार एक इन्सुरन्स प्लान खरीदू, जो की कुछ प्रतिमाह ढाईसौ रूपये में दस लाख के लाभ का था। मना करने में बड़ी झिझक होती है, लेकिन थोड़ी हिम्मत करने पर मुंह से 'ना' निकलता तो है। ग्यारह बजे ऑफिस आया तो काम कुछ इतना भी नहीं था की दिनभर व्यस्त ही रहूं। लेकिन उतना कम भी न था। दोपहर को मैं और गजा बिनमौसम छतरी खरीदने निकल पड़े। अब क्या ही करे, वादा तो वादा होता है। निभाना पड़ता है। वादा कोई और करे, और उस वादे को निभाने की मेहनत कोई और..! लगभग बाजार के बड़े बड़े मॉल छान मारे.. वे भी गलत न थे, अभी तो गर्मियां ही बाकी है, बारिश में बिकने वाला छाता असमय कौन ही बेचे? एकाध दुकानवाले ने तो दोबारा पूछा कि 'क्या चाहिए?' लेकिन चाहिए तो चाहिए। आखिरकार एक दूकान वाले ने अपना पुराना स्टॉक खंगाला.. मिला.. एक ही पीस..! खरीद लिया। अब एक ही काम था मार्किट में, वो तो हो गया। अब..? नाश्ता..! दो तीन रोड पर चक्कर काटने के बाद इच्छा हुई, नए वाले bmv के वडापाव ट्राय करने चाहिए आज। चले गए। एक एक ऑर्डर किया। कसम से चुटिया खड़ी हो जाए, उतना तीखा था वो..! वैसे भी मैं तो कम ही तीखा खाता हूँ। फिर दूसरा मंगाया उसमे तो उसे समझाना पड़ा की मिर्ची का नामोनिशान मत रखना..! दूसरा वाला ठीक था।
दोपहर बाद तो वही ऑफिस में जो काम होते है, किसी पर चीखना, किसी को समझाना, किसी को काम सौंपना..! फिर प्रियंवदा से चर्चा शुरू की.. वही कल्पनाओ की कश्ती में चढ़ो, और बिच मजधार में डुबो..! मतलब, वही वैवाहिक जीवन में बंटे हुए स्त्री पुरुष के काम.. लेकिन जो धीरे धीरे चलन ही बन गया। पुरुष कमाकर आएगा, स्त्री सेवा करेगी..! हकीकत है, पुरुष घर लौटता है तो स्त्री पानी पिलाने से लेकर पुरुष के मोज़े तक की सुविधा कर दी। पुरुष हुक्म छोड़ेगा, स्त्री निभाएगी..! लेकिन अगर स्त्री भी कमाती है तो तब भी स्त्री को ही घर के सारे वही काम करने है। कपड़े धोने से लेकर खाना बनाने तक। अब यह धारा धीरे धीरे बदल भी रही है। कुछ आलसी पुरुष भी स्त्री के पैसो पर पलने लगे है। घर सँभालने लगे है। स्त्री कमाती है। अब कुछ स्त्रियां ऐसे पुरुषो की भी कामना करने लगी है जो घर संभाले..! परिवर्तन संसार का नियम है ऐसा सुना था लेकिन ३६० घूमते भी दिख रहा है। वाह रे कन्हैया, तूने सही कहा था, समय के साथ चलो.. परिवर्तन को अपनाओ..! लेकिन कुछ हम जैसे आलसीओ का क्या होगा, जिन्हे चाय तक ठीक से उबालनी नहीं आती, और चाय की टपरी पर जाने में आलस आती हो..! जैसे परप्रांत से हमारे यहाँ बहुत से लोग कमाने के लिए आए हुए है। उन्हें हररोज देखता हूँ मैं। वे लोग अपना खाना बनाने से लेकर कपड़े तक धो लेते है, ताकि कुछ बचत हो जाए। मतलब स्त्री के बिना पुरुष सारा निभाव कर तो लेता है। फिर स्त्री की जरूरत बस एक ही काम के लिए पड़ती है। वैसा ही कुछ हाल स्त्री का भी है। वह भी चाहे तो बगैर पुरुष के अपना निभाव कर ले..! मतलब बस 'काम' के खातिर ही लोग जीवनभर की झंझट पालने को तैयार हो जाते है। या फिर यूँ कहूं की एक व्यवस्था में जानबूझकर बंध जाते है। पता नहीं..
फ़िलहाल रेडिओ सुन रहा हूँ, जो की ठीक से चलता नहीं। हर दो मिनिट में बंद हो जाता है अपने आप। कुछ देर सुना, पर बार बार एप बंद करके वापिस चालू करने से ही वो फिर से प्ले होता है। सारी कहानी की लिंक ही टूट जाए तो क्या फायदा? बंद कर दिया मैंने। जिनका शो था, उनसे कॉपी या रिपीट मांग लूंगा।
वैसे शुरूआती बात यही थी कि अधिकारों की मांग में कर्तव्य कई बार पीछे छूट जाते है। जैसे कि कोई कम्पनी में लेबर ने हड़ताल कर दी.. और महीना भर हड़ताल खींची गयी.. तो अधिकारों के लिए हड़ताल कि उनका कर्तव्य तो पूरा हुआ नहीं। उल्टा कम्पनी को नुकसान हुआ, लेबर का भी हुआ, क्योंकि लेबर ने काम नहीं किया, तो उनकी हाजरी नहीं बनी, हाजरी नहीं बनी तो पैसा भी न मिला..! कम्पनी के ऑर्डर पुरे न हो पाए, तो कम्पनी को भी घाटा हुआ। कम्पनी को दोहरी मार यह भी पड़ेगी की लेबर ने जिन अधिकारों के लिए हड़ताल की थी वे भी पुरे करने पड़ेंगे। सबका घाटा.. कहीं सुना था, कि एक जूते की कम्पनी में लेबर ने हड़ताल की। हड़ताल मतलब काम बंद नहीं किया, एक पैर के जूते बनाने चालु रखे, उनकी मांग पूरी हुई तो दूसरे पैर के भी बना दिए। मतलब नुकसान भी किसी का न हुआ, काम - कर्तव्य - भी चालु रहा, और अधिकार भी संरक्षित हो गए। लेकिन यह तो सूझबूझ वाले करते है। हम नहीं। हम तो अधिकार चाहिए तो कर्तव्य गया कुए में।
वैसे आज दिलायरी के साथ साथ प्रियंवदा से भी वार्तालाप हो गया.. अब इसे कौनसी केटेगरी में रखा जाए? फ़िलहाल समय हो रहा है पौने आठ..! और मुझे एक जगह और काम करना बाकी है लेकिन समस्या यह है की उनका चल रहा है रमजान.. इस समय तो ऑफिस बंद करके निकल गए होंगे.. और मुझे भरने है टैक्स..! जपनाम.. जपनाम.. बाबा जाने सबके मन की बात..! सुबह ऑफिस पहुंचा तो सरदार भी आश्रम देख रहा था, तो मैंने भी शाम को २ हप्ते देख लिए। ठीक है फिर जपनाम जपनाम...!
अब विदा लूँ, यदि रमजान वाला भुला बिसरा ऑफिस की चाबी छोड़ गया हो तो मैं कुछ काम निपटा लूँ।
शुभरात्रि.!
(०४/०३/२०२५, २०:०६)