वाह.. फिर से कल शाम दिलायरी लिखना भूल गया..! सुबह आफिस से छुट्टी ले ली थी दोपहर तक की। दो काम थे, एक तो मातृश्री लौट रहे थे यात्रा से, और दूजा एक पहचान वाले के यहां मृत्युभोज था। तो सुबह तैयार होकर चला गया मिनीमार्केट सोचा एकाध फूल-हार ले आऊं, माताजी का घर मे स्वागत करेंगे। नौ बज रहे थे, मिनिमार्केट में एक ही फ़ूलोंवाला खुला था, उससे एक हार बनवा लिया। लगभग साढ़े दस को बस आई, माताजी को बाइक पर घर ले गया, घर पर फूलों से वेलकम, आरती, और चरण धोए। और थोड़ा बहुत इस तामझाम से माताजी राजी भी हुए, लेकिन साथ ही साथ थोड़े नाराज भी..! उनका विचार सही भी है, और गलत भी.. उनका मानना है कि स्वागत साधु-संत, धर्मात्मा का होना चाहिए। उनका नही। लेकिन मेरी इच्छा थी कि इतने धर्मस्थलों की यात्रा कर आए है तो घर के भीतर तो स्वागत कर ही सकते है।
सब सुख शांति से हो गया। फिर ग्यारह बज गए, बड़े दिनों से नाई से सलाह मशवरा नही किया था, तो वहां चला गया। वो बोला 'कैसे बाल करूँ?' तो मैंने हँसते हुए कहा, 'किसी से लड़ाई हो जाए तो उसके हाथ मे मेरे बाल न आए ऐसे कर दे..' उसने मशीन उठाई और मिल्ट्री कट कर दी.. नया लुक हो गया.. फिर उस मृत्युभोज में भी तो जाना था। वैसे इन सब कार्यक्रमो के बीच दो फोन-कॉल आए थे, दोनो ही कम्प्लेन कर रहे थे। हुआ ऐसा की मैं छुट्टी पर होता हूँ तो गजा थोड़ा परेशान हो जाता है, और फिर लोगो को जैसे-तैसे बोलने लगता है। मेरी आदत है, मैं गुस्से में भी थोड़ी शालीनता से बात करता हूँ, लेकिन कट टू कट। गजा ऐसा नही करता, गजा मारधाड़ की बात कर देता है, सीधे ही बोलता है 'काम होगा तो होगा, मेरा क्या जाता है..?' अब कोई पार्टी वाले कि गाड़ी खड़ी हो, और आप ऐसे बात करेंगे तो वो भी गुस्सा ही करेगा। ऐसे मामलों में मैं गुस्से में होऊं तब भी बड़ी ही शांति से उसे खर्चे गिनाता हूं तो अगला अन्य समस्याओ के डर से मुख्य मुद्दे से भटक जाता है, और अपना काम हल हो जाता है। देखो दुनियादारी ऐसे ही चलती है, अपना उल्लू सीधा करने के लिए सामने वाले का उल्लू आप मरोड़ दो..!
दोपहर को मृत्युभोज में भोजन कर के, घर आया। और ऑफिस के लिए निकल गया। गजे के फैलाये हुए रायते समेट लिए। और शाम तक ऑफिस के कार्य चलते रहे। आठ बजे फिर पड़ोसी का भी तो काम करना था। पांच तारीख हो चुकी थी, अभी तक टेक्स भरना भी बाकी था, और खरीदारी तथा बैंकिंग की भी सारी एंट्रीयाँ चढ़ानी बाकी थी। लगभग दस बजे तक वही सब चला, घर पहुंचा तब पौने ग्यारह बजे रहे थे।
एक बात और, सुबह से मौसम ने भी अचानक ही करवट बदली है। गर्मियों की जगह ठंड हो गयी वातावरण में। पानी भी ठंडा लगने लगा, बाहर निकलते ही ठंडे पवन भी घेर कर एक कंपन देने लगते। और पुनः एक बार झुकाम ने जकड़ लिया, मुझे भी। ऋतु में हल्का बदलाव होते ही शरीर झुकाम को न्यौता दे देता है। ठीक है फिर, इतनी दिलायरी काफी है।
(०५/०३/२०२५)