नौकरी और मुहब्बत: कौन ज़्यादा मुश्किल है?
प्रियंवदा ! नौकरी भला कौन ढंग से करता है या कर पाया है? लोग कहते है मुहब्बत में बड़ी जेहमत मांगती है, मैं कहता हूँ प्रियंवदा कोई एक बार नौकरी करके देखे। नौकरी पर तो मैं पहले एक बार लिख चूका था जब गजे से बहस हुई थी मेरी। उसका मानना था कि नौकरी ग़ुलामी है। जबकि यह गुलामी नहीं, लेकिन आप अपनी मेहनत, समय तथा स्किल बेच रहे हो..! मेहनत तो खुद के धंधे में भी उतनी ही है, जितनी इस में है। यहाँ आपको बस अपने ऊपरी की कभी कभार सुननी पड़े, वहां खुद के धंधे में सबकी सुननी है। यहाँ लाभ-वेतन एकसमान है, वहां कोई नक्की नहीं। आज यह नौकरी पर इस लिए लिख रहा हूँ क्योंकि आज सवेरे ही किसी के नौकरी की जिम्मेदारी का भार पढ़ा..!
दुकानदारी की वो गर्मियाँ: कांडला का पहला सबक
मैं अपनी करता हूँ, हंमेशा की तरह। हुआ कुछ यूँ था कि मैं अपने जीवन में अचानक से एक मोड़ मुड़ गया। बहुत कर ली इंजीनियरिंग, (वैसे हो भी नहीं रही थी।) अब या तो धंधा शुरू करेंगे या नौकरी..! बचपन से हुकुम को नौकरी करते ही देखा था। जीवनचर्या तो समझ आ ही गयी थी की नौकरी के लाभालाभ क्या है? और तकलीफ एक यह हुई थी दसवीं के बोर्ड्स के बाद एक लम्बे वेकेशन के दौरान मुझे कांडला में एक दूकान सँभालने को कहा गया..
बंडलों की गड़बड़झाला और साहबों की अमानतें
मेरा वेकेशन ही था, ऊपर से वो दुकान वाला गाँव जा रहा था कुछ दिन, उसकी दूकान बंध रहती तो बहुत से लोगो का सिड्यूल खराब हो जाता, तो सोल्यूशन यह निकाला गया कि मेरे एक पहचान वाले ने मुझे दस-पंद्रह दिन वो दूकान सँभालने को बोला..! मैं तैयार हो गया। वे दिन अलग थे, उस समय गेट पर खड़े साहबो की जेब में अनलिमिटेड इनकमिंग चालु थी, वे लोग जेब का भार मुझे सौंप जाते थे, और शाम को घर ले जाते..! उस समय यह चलता था। सामान्य भी था।
दुकान ठीक गेट के बाहर थी। एसटीडी पीसीओ, गुटखा, तम्बाकू, बीड़ी, और कुछ नाश्ते के पैकेट की दूकान थी वो..! उन दिनों कीपेड फोन चार्ज करने के पांच रुपये लिए जाते। एक साहब आए, मैंने उनकी शकल देखि न देखि एक छोटा सा गोल बंडल रबर लपेट के मुझे दे गए, बोले शाम को ले जाऊंगा। मैंने रख लिया। कुछ देर बाद दूसरे साहब आए, उन्होंने भी ऐसा ही एक बंडल दिया, वे भी बोले शाम को ले जाऊंगा। इसी तरह एक और साहब शाम के वायदे पर अपनी अमानत मुझे सौंप गए। उस समय मेरी उम्र शायद पंद्रह की।
ऊपर से दुकान का गल्ला अलग। शाम को मैं भूल गया कौनसे साहब का कौनसा बंडल था.. लक्ष्मी जी तो हर चित्र में एक सी ही दिखती है। एक का दूसरे को, दूसरे का तीसरे को हो गया.. दूसरे दिन से वे साहब खुद ही अपने नाम की पर्ची अपने बंडल पर लगाते गए..! उसमे भी उनको तो खतरा ही था की चेकिंग आ जाए और पकडे जाए तो..! लेकिन लक्ष्मीजी की कृपा के लिए उतना रिस्क तो ले सकते है। खेर, यह तो उनकी कमाई थी, मुझे इस दूकान के अलावा कुछ लोग गेटपास बनाने के पैसे दे जाते थे, कांडला भारत का आज भी सबसे व्यस्त तथा हेंडलिंग में सर्वप्रथम बंदर है।
इंजीनियरिंग से अकाउंट तक: कैसे मुड़ा ज़िन्दगी का मोड़?
मेरी प्रतिदिन होती रोकड़ी से यूँ समझिये की बाघ के मुंह खून लग गया था। फिर तो कुछ ही दिनों में वह लीला ख़त्म हो गयी, दूकान का मालिक लौट आया। और मैं चला गया इंजीनियरिंग करने वड़ोदरा। आधी छोड़कर वापिस आया, और सोचा नौकरी ही कर ली जाए..! उस समय टैली की बड़ी बोलबाला थी। आज भी है। लेकिन अब थोड़ा इस काम में भी प्रोफेशनलिज्म आ गया है। तब न था। लगभग २०१२ की यह बात है। मेरा ड्राइविंग लइसेंस भी न बना था। फिर इस टैली नाम की बला का कोर्स किया। मुद्दा समझ आ गया कि जमा-उधार का मामला है।
टैली सीखा, नौकरी ढूंढी — और पहली बार कहा "ऑफिस बॉय के सिवा सब कर लूंगा"
सॉफ्टवेयर चलाना आ जाए उसका अर्थ यह तो नहीं कि काम भी आ जाए? अब काम करने के लिए पहले कहीं काम ढूंढा जाए..! हुकुम के पहचान वाले के यहां बात की, समस्या तो यह थी की अपने को तो बात करनी भी ना आए, बिलकुल फ्रेशर। की कहा कैसे जाए कि मुझे इतना आता है, और यह काम मैं कर सकता हूँ। क्योंकि यह बिलकुल ही नई फिल्ड थी। इंजीनयर बनते बनते एकाउंटेंट बनने जा रहा था मैं। फिर सोच लिया, और समझ भी आ गया, अनुभव से बड़ा कुछ भी नहीं, खुद को जो भी सीखा सकता है वह अनुभव ही है। मैंने अपने पहली नौकरी पर कह दिया था कि ओफ्फिसबॉय के सिवा कुछ भी काम दे दो, कर लूंगा।
वो अपशब्दों वाले सरदार और पहली नौकरी का डर
कम्प्यूटर चलाना आता है, मतलब थोड़ी रिस्पेक्ट की तो बात थी ही। लगभग २०१२-१३ में बहुत कुछ बदलने लग गया था, हर हाथ में मोबाइल आ चूका था। और बहुत से काम डिजिटल होने लगे थे। पहले जहाँ हाथ से केल्क्युलेट कर कर के शाम तक हिसाब होते थे वहां अब कोम्युटर कुछ ही मिनिटो में हिसाब बना देता, और प्रिंटर उसे छाप देता। पहला ही दिन नौकरी का, सवेरे आठ बजे पहुँच गया था, सरदार बड़ा मनमौजी था। उनकी जिह्वा थोड़ी जली हुई थी, प्रत्येक वाक्य की शुरुआत और अंत अपशब्दों के साथ ही उच्चारती उनकी जिह्वा। मतलब दुनिया के लिए होंगे वे अपशब्द या गालियां, उनके लिए प्यार जताना हो तब भी, मजाक करना हो तब भी, इन अपशब्दों के बिना सब अभिव्यक्ति अधूरी थी।
जब वर्तुल और घनफुट काम आए: स्कूल के फार्मूलों की वापसी
नौकरी की विशेषता ही यह है की नौकरी का पहला दिन और अंतिम दिन आपका मन बड़ा ही विचलित रहता है। सुबह से दोपहर होने को आयी थी, लेकिन मेरे पास काम के नाम पर कुछ भी नहीं था। दोपहर बाद मुझे एक भाईसाहब सारी सिस्टम समझाने ले गए। मेरी सिखने की या फिर नकल करने की क्षमता को मैं भलीभांति जानता हूँ, सब समझ में आ गया। लेकिन यह गाणितिक कार्य है, इसमें आपको घनफुट तथा वर्तुल से जुड़े फॉर्मूला याद करने पड़ते है।
स्कूलिंग के दिनों की याद आ गयी, जिसे मैं सोचता था की यह वर्तुल, और चतुष्कोण के क्षेत्रफल कहाँ ही काम आएँगे। लेकिन काम आते है। पहला ही दिन था, ठीक ही रहा। लेकिन धीरे धीरे सब सिख गया। पहले ही दिन कोई पंगा नहीं हुआ, पंगा हुआ जरूर जिस दिन हिसाब करने थे। क्योंकि रविवार को लेबर को हिसाब करने का सिस्टम है। और मैंने हफ्ते भर से गलत फार्मूला डालकर हिसाब बनाए थे। रविवार को सारे ही परेशान..!
हिसाब लिया, हिसाब चुकाया — और नौकरी को नमस्ते कर दिया
लेकिन नया आदमी था मैं, किसी ने कुछ कहा नहीं। कुछ देर हँसी मजाक जरूर चली की कम्पनी को बड़ा फायदा हो रहा था इसके बनाये हिसाब से मजदूरी का भुगतान करते तो। लेकिन फिर धीरे धीरे सब कुछ सिख गया। उस कम्पनी में जिसने मुझे काम सिखाया था, एक दिन उस से पंगा हो गया, उसने मुझ पर एक गलती थोप दी, जो मेरी थी ही नहीं। और अपन ठहरे नकचढ़े, ऑन ध स्पॉट हिसाब लेकर वहां से निकल गए।
यही था प्रियंवदा, मेरी नौकरी का पहला अनुभव।
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