झुकाम के बीच भी चलती रही ज़िंदगी — एक दिन की छोटी-छोटी कहानियाँ || दिलायरी : ०६/०३/२०२५

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झुकाम, जिम्मेदारी और ज़िन्दगी के नाश्ते

    मुझे लगता है दिलायरी में आलस नही करना चाहिए। कल कर दी थी, वो नौकरी वाली पोस्ट लिखने के बाद झुकाम के चलते आलस कर गया। रात को भी घर जल्दी जरूर चला गया था लेकिन जल्दी सो भी गया था। शुरू से शुरू करते है, सुबह आफिस पहुंचते ही कई छोटे मोटे काम मेरा ही इन्तेजार कर रहे थे। मेरी केबिन में आसन ग्रहण करते ही स्नेही की एक पोस्ट पढ़नी शुरू की, लेकिन कोई बिल बनवाने आ गया, कोई लिस्ट बनवाने, तो कोई और कुछ काम के लिए। फिर मैंने हार मानते हुए स्नेही को कह भी दिया कि आज तो शायद यह न पढ़ पाऊं। लेकिन कुछ चंद मिनिट मिल गयी तो पढ़कर पूरा जरूर कर लिया।


प्रसाद, दवा और दाबेली: एक दिन की दिलायरी

    दोपहर को पड़ोसी का एक बिल रहे गया था, वो चढ़ाने चला गया। और वहां से गजे को बुलाकर मार्किट। मार्किट में दो-तीन काम थे, चित्तु की कुछ दवाइयां लानी थी, ca के पास डेटा पहुंचाना था, और माताजी की यात्रा सकुशल पूर्ण हुई इस लिए कुछ पहचान वालो तथा रिश्तेदारों में प्रसाद बांटना था इस लिए पित्तल की कटोरियाँ लेनी थी। चले गए मार्किट। सारे काम निपटा लिए। फिर पहुंच गए सर्कल पर, दाबेली जिंदाबाद.. 

    कभी कभी लगता है कहीं यह नाश्तों की इच्छा किसी दिन बीमारी के रूप में महंगी न पड़े। जैसे यह झुकाम, पहले कभी इतना नही होता था, इस बार दो महीने में दो बार हो गया.. या फिर बढ़ती उम्र कारण है? जो भी हो, इन नाश्तों पर थोड़ा कंट्रोल होना जरूरी है। बीच मे अच्छा फैंसला लिया था मैंने और गजे ने, इन नाश्तों के बदले फ्रूट्स के जूस पीने का.. लेकिन वो हमने दो तीन दिन ही निभाया, फिर वापिस इन नाश्तों पर ही लौट आए।

    खेर, रात को आठ बजे घर के लिए निकल गया था, और लगभग ग्यारह बजे से पहले सो भी गया था। झुकाम एक बला ही है, जो चैन नही आने देती जरा भी..

    (०६/०३/२०२५)

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और जब जीवन के रंगीन पहलुओं की बात होती है, तब एक बेटे का अपनी माताजी के स्वागत हेतु हार लेकर खड़ा होना भी उतना ही मार्मिक दृश्य है — यहाँ पढ़ें

प्रिय पाठक,

अगर कभी झुकाम के साथ दाबेली खाई हो, या ऑफिस में स्नेही की पोस्ट अधूरी छोड़ी हो — तो ये दिलायरी आपके लिए है।

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