जुकाम, ‘आश्रम’ और ब्रिटिश भारत की झलक — जब थकान भी प्रेरणा बनी दिलायरी में || दिलायरी : ०७/०३/२०२५

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जब दिन सुस्त हो, पर दिलायरी जागती रहे

    आज के दिन कुछ ख़ास हुआ ही नहीं है तो क्या लिखूं? चंद वाक्यों में आज का दिन समाहित हो जाता है। लेकिन लिखना तो पड़ेगा, भले ही रसप्रद न हो तब भी खींचना तो पड़ेगा। कल झुकाम की वजह से रातभर सर, और मुंह पर कपडा लपेटे सोया था, तो सुबह कब हुई पता ही न चला..! हाँ, साढ़े पांच को जब एलार्म बजा तब आँखे जरूर खुली थी, लेकिन बड़ी जल्दी नींद फिर से आ गयी। लगभग आठ बजे तक नहाधोकर फ्रेश हो चूका था। नाश्ता कर रहा था तभी याद आया था कि कल दिलायरी लिखी ही नहीं। ऑफिस पहुँचने से पूर्व ही बिलिंग के लिए फोन कॉल्स शुरू हो गए थे। मतलब तय था कि सुबह सुबह समय तो मिलने वाला है नहीं। फिर भी सवेरे घर से निकलते ही दूकान पर बीड़ी फूंकते हुए थोड़ा बहुत लिख दिया। 


Jharokhe se jhaankte Dilawarsinh..

    ऑफिस पहुंचा तो २ जने इंतजार में ही बैठे थे की बिल बने और वे निकले। आधे-पौने घंटे में काम हो गया। फिर समय था तो दिलायरी लिख दी। वैसे बड़ा विचित्र अनुभव होता है भूतकाल को वर्तमान में लिखने में, मन थोड़ा भ्रमित अवश्य ही होता है। दोपहर तक लिखकर पब्लिश कर दी। तभी स्नेही का कल की नौकरी वाली पोस्ट पर कुछ प्रतिभाव आया, लेकिन उन्हें भी कुछ काम था तो वे भी चले गए अकेला छोड़कर..! 


आश्रम सीरीज़ और सिर पर सवार सवाल

    फिर क्या, हारे का सहारा, जपनाम.. जपनाम..! एक बदनाम आश्रम की थर्ड सीज़न देखनी शुरू की..! वैसे आधी देख चूका था, दो दिन से जब भी समय मिलता थोड़ी थोड़ी कर के देख ली थी। आज लास्ट एपिसोड ही बाकी था..! वैसे जिन्होंने आश्रम देखि है, वे समझ तो सकते है की इस ड्रामे में कोई निष्कर्ष नहीं है, ऐसा जरूर लगता है की कहानी खींची जा रही है बस.. मुझे लगता है ऐसी सिरिज़ में एक ही सीज़न होना चाहिए। क्योंकि हंमेशा सेकंड सीज़न या थर्ड सीज़न में ऐसा ही अनुभव होता है कि अब कुछ ज्यादा ही खिंच रहे है।


    आश्रम के नाम पर एक बाबा वो सारे ही गलत काम करता है, जो महाअपराध की श्रेणी में आते है। फिर एक व्यक्ति इस के विरुद्ध खड़ा होता है, उसके संघर्ष की कहानी है। मतलब क्या ही कहूं इसे? इस तीसरी सीज़न के अंत में फिर से एक प्रश्न छोड़ दिया की अब आगे क्या? पम्मी पहलवान तो आश्रम को ही बंध करवाना चाहती थी, फिर बाबा निराला को जेल भिजवाकर वो खुद ही आश्रम की प्रमुख सेविका क्यों बन गयी? भोपा भी जेल जाना चाहिए था, क्योंकि कोर्ट में दिए उस केस में तो भोपा और मोंटी दोनों ही शामिल थे..! उजागर का क्या हुआ..? जैसे फालतू बेमतलब में अब उस कहानी किसी मोड़ पर रोक दिया है। ठीक है, वैसे भी ऐसी सीरीज़ ज्यादातर न्यूडिटी और गालीगलौज से भरी रहती है। पता नहीं प्रेरणादायक तो कुछ दिखा नहीं मुझे, क्योंकि तीन सीज़न से तो संघर्ष करने वाले मुंह की ही खा रहे थे। देखते है, वैसे सस्पेंस वाली कहानियाँ मजेदार होती है, इसमें तो सब ओपन एंड शट वाला मामला ही था।


PS-1 की दुनिया में एक और डुबकी

    खेर, लगभग दो बजे एक बिल बनाया। तबियत उतनी जोर में थी नहीं की कहीं नाश्ता करने जाया जाए। पता नहीं वैसे आज ऑफिस में ही कुर्सी पर ही क्या नींद आयी है, गजा ने पुरजोर करके के मुझे हिलाया तब जाकर मेरी आँखे खुली। बड़ी गहरी नींद आ चुकी थी। घड़ी में देखा तो पौने चार बज गए थे। सरदार भी काम ले आया, शाम के छह बज गए। आश्रम के बाद फिर PS-1 देखनी शुरू की है वो भी नहीं देखी थी मैंने। वैसे अब लगता है की दुग्गल साहब अब प्रेक्षक है। धीरे धीरे कुछ इच्छाएं जागने तो लगी है। 


अभिलेख पटल — इतिहास की डिजिटल झरोखी

    खेर, एक बात और, एक वेबसाइट है, अभिलेखपटल की..! ऐतिहासिक दस्तावेजों से भरी हुई। नाम ही है अभिलेख पटल.. मतलब अंग्रेज कालीन भारत की कई सारी हस्तप्रत को सरकार ने डिजिटल स्वरुप में संरक्षित कर के कुछ हिस्से ओपन पब्लिक कर दिए है। मुझे मेरे गाँव का An Instrument of Accession भी मिला.. लेकिन नसीब.. वो ओपन ही नहीं हो रहा। हमारा गाँव भी एक तालुका था, ब्रिटिश भारत ने कई सारी श्रेणियां बना रखी थी, जमीनदार, तालुका, नॉन-सेल्यूट प्रिंसली स्टेट तथा सेल्यूट प्रिंसली स्टेट। सेल्यूट प्रिंसली स्टेटस में भी सात ग्रेड हुआ करते थे, उन ग्रेड के हिसाब से ही उन्हें गन सलामी दी जाती थी। हमारा गांव तालुकदारी में गिना जाता था। उस समय पर प्रत्येक तालुकाओं की सीमारेखाऐं निश्चित हुई थी तो उससे जुड़ा हुआ एक पत्र डिजिटल स्वरुप में उस साईट पे पढ़ा..! और रस जाग गया, वो भी क्या समय रहा होगा...!


    ठीक है, अब समय हो रहा है १९:४७, और अब विदा दीजिए। 

    शुभरात्रि। 

    (०७/०३/२०२५, १९:४८)


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