एक समय पर सब ही अलग थे, कोई वृक्षो की उपासना करता था, कोई नदियों की, कोई सूर्य की, कोई अग्नि की..!! || At one time everyone was different, some worshiped trees, some rivers, some sun, some fire..!!

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छठा नोरता है आज, प्रियंवदा ! मैं कभी कभी अति आशावादी और अति उत्साही हो जाता हूँ.. नवरात्रि में तो वैसे ही यह उत्साह चरम पर होता है। कुदरत अपनी कला लेकर आ चुकी है.. प्रकृति में ठंडक होने लगी है.. गरबा खेलने से हुए पसीने को प्रकृति कुछ ही क्षणों में अदृश्य करने लगी है। यही तो है शरद की सुंदरता.. शरद में यूँ तो ठंडे खाद्य पदार्थों से दूर हो जाना चाहिए पर हररोज गरबा खेलने के बाद १-२ ठंडे आइसक्रीम का सेवन करना जैसे दिनचर्या सी हो गई है.. होगा वह देखा जाएगा.. मैदान के बीचोबीच वर्षो का तपस्वी सा खड़ा पीपल शरद के प्रभाव में अपने पत्ते छोड़ रहा है.. पवन की कोई थपकी उन पत्तो को उड़ाती, और नवरात्रि चौक की सीमा पर दीवार के पास छौड़ आती..! सच मे इन कीटक पतंगों का प्रकाश से प्रेम तो देखे ही बनता है, चौक (नवरात्रि ग्राउंड) में लगे बड़े बड़े हैलोजेन पर इतना टकरा रहे है जैसे कोई प्रेमी अपना सर पटक रहा हो..



प्रियंवदा ! तुमने कहा तो था कि लिखते रहो, कुछ बाते तुमने बताई थी.. पर कभी कभी उत्साह में या भावना में बही कलम, मैं स्वयं ही पढ़ता हूँ तो सोचता हूं कि लिखनेवाले की हृदयोत्पत्ति कागझ पर तब तक ही अच्छी है जब तक उसमे द्वेष, क्रोध या हानि ना छलकती हो.. कहा था न, अति-आशावादी हो चला हूं.. यह बड़े आयोजन वाले डांडिया रास होते है न वहां की पूरे देश से खबरे आ रही है, कहीं कोई झगड़ा हो गया, तो कहीं आयोजको ने धोखा कर दिया, तो कही कोई विधर्मी पहुंच गया.. राजनैतिक या धार्मिक बाते लिखना तो नही चाह रहा पर एक शब्द है जो उड़ उड़कर आंखों से लगता है..! "जिहाद" बहुत ही सुंदर शब्द है.. पर इसी सुंदर शब्द के आचरण में एक क्रूर कुरूपता दिखाई पड़ती है। मूलतः अरबी शब्द जिहाद का अर्थ है नैतिक मूल्यों के संरक्षण के लिए संघर्ष करना। जैसे गांधी ने अंग्रेजो के सामने किया था, जैसे राम ने रावण के विरुद्ध किया वह जिहाद ही तो है। नैतिक मूल्य का संरक्षण करना प्राथमिकता होती है, होनी भी चाहिए..! पर धीरे धीरे यह जिहाद विकृति की और बढ़ा। जब कोई शत्रु सैन्य पहले आक्रमण करता है तब राजपूत मरने के लिए लड़ते है उसे हम केसरिया कहते है, इस्लामी जिहाद यही तो है। किसी नए क्षेत्र को अपने मे मिलाने के लिए नही बल्कि अपने क्षेत्र के संरक्षण में बहाया जाए वह रक्त भी तो जिहाद है। लेकिन आजकल हो क्या रहा है? 'लव जिहाद', 'लेंड जिहाद', और कुछ दिनों पहले ही बहुचर्चित हुआ 'थूक जिहाद'। यह जिहाद नही, क्रूरता है। जब कोई धर्म को मानवता से आगे करता है। 


भारतीय उपमहाद्वीप पर जिसका सिंचन हुआ वह सनातन वर्षो से फलीभूत तपस्या और संयम का ही परिणाम है। कुछ दिनों पहले में एक मासिक-सामयिक पढ़ रहा था। भारत की आज़ादी से पूर्व करांची से गुजराती में प्रकाशित होता 'उर्मि' और अहमदाबाद से प्रकाशित होता 'नवरचना' एक समय पर एक होकर गुजराती भाषा मे 'उर्मि नवरचना' बना। आज भी कई पीएचडी होल्डर्स अपने लेखों में इन्ही सामयिक का रेफरेंस लेते है। धर्म, विज्ञान, लोकसंस्कृति, खगोल, इतिहास, जीव जगत, और कहानियां.. सनातन पर सुंदर लेख था। कैसे समय समय पर हमारे यहां लोगो ने अग्नि पूजा की, सूर्य पूजा की, प्रकृति पूजा की, देव मूर्तिया निर्माण हुई, मंदिरों का आविष्कार हुआ.. विधियां उत्पन्न हुई.. भेद इतना ही था कि कही भी धार्मिक कारण से कोई युद्ध नही किया गया। बल्कि सर्व को हमने उतना ही सम्मान दिया, तभी तो आज हम प्रभात में सूर्य को जल अर्पण करते है, पीपल को पानी चढ़ाते है, मंदिरों में दानादि प्रवृत्तियां करते है। वरना एक समय पर सब ही अलग थे, कोई वृक्षो की उपासना करता था, कोई नदियों की, कोई सूर्य की, कोई अग्नि की..!!


इंशोर्ट, जिहाद वस्तु सही है, बस उसका आचरण करने की रीति अनुचित है, या तो यूँ कहूँ की किसी ने जिहाद के नाम पर रॉंग नंबर लगाया है इनका..


अच्छा चलो इनकी इतनी तारीफ की है तो अपनी भी कर लेवे ? अपने में कई ओ को जातिवाद नजर आता है..! जाति क्या है? वर्णव्यवस्था में अपना स्थान, पद और कर्म जो चिन्हित करती है वह होती है जाति..! (थोड़ी जल्दबाजी में जाति को जाती लिखा जाए तो समझ लेना.. प्रूफरीडिंग वाला पिज़्ज़ा खाने गया है।) जैसे ब्राह्मणो का कार्य था शिक्षण एवं धर्म-कर्मकांड द्वारा लोगो मे आस्था, ज्ञान - विज्ञान, और समय के साथ चलाते रहना। सबका अपना कर्म था, वही उनकी पहचान थी। 


भगवत गीता का एक श्लोक है, "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः" यह चारो वर्ण कर्माधारीत थे। धीरे धीरे इन वर्णों के भीतर ही अनुविभाग हुए जो विवाहादि संबंधों को स्थिर करने तथा अपने गुणकर्मो को भिन्न रखने के लिए हुए.. पांच पीढ़ी बाद कहीं एक ही वंश में विवाह न हो जाए, गुणसूत्र बना रहे, गुणसूत्र के लक्षण जीवंत रहे इसी कारण बने अनुविभाग, जो जातियाँ हुई..! जैसे पशुपालकों में कोई नई गौ या भैंस, अश्व की खरीदी होती तो जानकर लोजी आज भी उस पशु के पूर्वजों को जानने की प्राथमिकता रखते है, की इस अश्व की माँ कौन है, इस अश्व को जिससे दोराया वह हर अश्व कौनसे प्रकार का और कहां का है, उस नर अश्व के माता-पिता कौन है ? फिर हम तो मनुष्य है.. प्रत्येक जाति के कुछ लक्षण थे, समयकालानुसार वे बने रहने चाहिए थे, आज भी बने रहने चाहिए.. लेकिन इस व्यवस्था में भी एक खोट खड़ी हुई, की एक जाति दूसरी जाति के प्रति ऊंचनीच का भाव रखने लगी.. एक दृष्टांत देता हूँ, मैं जहां काम करता हूँ वह एक जाति / समुदाय के लोग बहुत ज्यादा है, इस विषय मे उनका महारथ भी है.. अब एक दिन आरक्षण की बात चल रही थी तो बातों बातों में मैंने उनसे पूछ लिया कि भाई जाति कौन सी है आपकी? तो उन्होंने कहा हम ब्राह्मण है। लेकिन फिर उन्होंने यह भी बताया कि obc में आरक्षित है.. अब यह तो दो बात एक साथ हुई, ब्राह्मण भी है और obc भी.. मैंने सर खुजाते पूछा कि आपके पूर्वज काम क्या करते थे ? तो उन्होंने बताया कि लकड़ी के साधन बनाना.. अब आगे लिखना उतना आवश्यक नही..! देखो कोई किसी के यहाँ जन्म लेता है तो उसे उस जाति का ठप्पा मिल जाता है.. लेकिन वह ठप्पा उसे सगर्व अपनाना चाहिए, और दूसरी जातियो के प्रति स्वयं को न नीचा मानना चाहिए न ऊंचा.. और हमे भी तो समझना चाहिए कि आज मैं क्षत्रिय घर मे जन्मा हूं लेकिन मेरा काम व्यापार से संबंधित है तो कर्म से क्षत्रिय नही रहा.. पर हाँ मेरे भीतर, मेरे गुणसूत्र में कहीं न कहीं उन पूर्वजो के लक्षण अवश्य होंगे जो समयानुसार जागृत होंगे ही..! अतः मेरा मत तो यही है कि जातियाँ बनी रहनी चाहिए, लेकिन जातियो में परस्पर द्वेष तथा ईर्ष्या का भाव नही होना चाहिए..


अब मुद्दा निकला है तो साथ ही साथ यह भी लिख देता हूँ कि भाई साहब, आरक्षण बंद करो बे.. तुम्हारा आरक्षण सिस्टम फैल है.. उल्टा यह तकनीक बन गई है किसी को फंसाने की.. तुम्हे समाज मे सुधार करना है तो नैतिकता पूर्ण मूल्यों से लोगो के बीच जाकर सुधार करो, कानून का तो दुरुपयोग भी होता है.. और इसी कारण से विग्रह भी खड़ा होता है.. इसी विग्रह का एक दृष्टांत लिखता हूं।


एक गांव है हमारे यहां। बड़ा गांव है, सवर्णों का है। हुआ कुछ यूं था कि गांव के बीचोबीच एक पशु मर गया। स्वाभाविक सी बात है पंचायत के पास फरियाद हुई, उस पशु को हटाने ले लिए पंचायत तथा गांव वालों ने दलितों को काम सौंपा। ऐसा नही है कि गांव में कुसम्प था, सारे जाति-समुदाय मिलझुलकर रहते थे, लेकिन उस दिन पता नही क्या हुआ, जिसका काम था वह अकड़पने पर उतर आया, बोला, "पहले हम तुमसे दबते थे, अब हमारे पास सरकार के नियम है, मर्जी होगी तो उस मृत पशु को हटाएंगे, वरना ना भी हटाएं।" अब सीधे - अकारण ही ऐसे वर्ताव के कारण गांव वाले भी क्रोधित हुए, सरकार के कड़े कानूनों के कारण कोई सीधा कदम तो नही उठाया बस गांधीवाद को अपना लिया.. बहिष्कार कर दिया पूरे एक समुदाय का.. सवर्णों ने उनसे बोलचाल बंद की, अपने खेतों में काम देना बंद किया, अपनी दुकानों से सामान देना बंद किया.. देखो कानून होते है तो उनके तोड़ भी होते है.. आज सरकार किसी जाति को अपनी मुट्ठी में रखे और किसी जाति को अपने पैरों से कुचलना चाहे किसी कानून के दम पर तो अब तो यह सम्भव नही। धीरे धीरे उन लोगो ने गांव से पलायन कर दिया, और उनका स्थान दूसरे लोगो ने ले लिया, और जो दूसरे आए वे आज वहां अच्छे से फुले-फले है..! तात्पर्य यह था कि यदि तुम किसी को उंगली नही करते तो कोई सामने से तुम्हारी उंगली नही तोड़ेगा। वैसे यह मुद्दा संसदभवन में भी गुंजा था कि गुजरात के एक गांव में आज भी अश्पृश्यता आचरण में है, हालांकि उन लोगो ने बोल जरूर दिया पर उस प्रसंग का वास्तविक कारण जानने में रस नही लिया बस आक्षेप कर दिया कि सवर्णों ने अत्याचार किया।


आज कुछ ज्यादा ही लंबा लिख दिया प्रियंवदा..! अच्छा है मैं इन ज्वलंत मुद्दों पर लिखते समय गोपनीयतारूपी फायर-एक्सटिंग्विशर साथ रख लेता हूँ।

(दिनांक : ०८,०९/१०/२०२४, १२:५०)


|| अस्तु ||


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