नवरात्रि और बलात्कार—दो छोर, एक समाज
भारत में एक तरफ नवरात्री चल रही है, और एक तरफ बलात्कार.. कोई स्त्री की पुत्र भाव से प्रशस्ति कर रहा है तो कोई पैशाचिक वासना से जबरदस्ती..! कोई भक्तिभाव से प्रेरित कुँवारिका को नवरात्री में भोजन करा है तो कोई नराधम उस कुँवारिका के कौमार्य को राक्षस की भांति निगल रहा है। एक ही समाज के दो पहलु है, यहाँ कभी तो कोई किसी का ही नहीं और कभी तो सब सभी के है। जैसे कोलकाता काण्ड के कारण यहाँ भारत के दूसरे छोर गुजरात में भी डॉक्टर्स ने अपना विरोध जताया था।
हम दूर के अन्याय पर क्रोधित, पास के पाप पर मौन क्यों?
अच्छा एक बात और भी तो है.. हम दूर के मामलो पर अपनी राय रखते है, कड़ा विरोध दर्शाते है पर पास में जो कुछ हो रहा है उस पर चुप्पी साध लेते है.. क्योंकि यहाँ रहना है.. पास में कुछ होता है तो नए समीकरण बिलकुल नजदीक भी आ सकते है.. जैसे की दिल्ली में केजरीवाल ने अब्जो का बँगला बनाया, या किसी राजनेता ने घपला किया तो सारे सोसियल मीडया और सबके मुंह से यही बाते चलती है.. लेकिन अपने ही गाँव / शहर में कोई नदी की मिट्टी ले जाकर खनन माफियागिरी करे तो चुप..! क्यों ? क्योंकि वह नजदीक है, हमला कर सकता है, तो डरना लाजमी है..! फिर यह तो दोगलापन हुआ, की बड़े राजनेता ओ के घपले पर तुम आसानी से बात कर रहे हो लेकिन तुम्हारी ही ग्रामपंचायत में ३ लाख का रोड कोई खा गया है तो तुम पंगा लेना नहीं चाहोगे।
वैवाहिक बलात्कार—क्या यह सिर्फ एक शब्द है या हकीकत भी?
ऐसा ही एक गंभीर मामला है मेरिटल रेप... भारत में तो यह कानूनन अपराध नहीं है। क्योंकि हमारी परम्पराए है, वैवाहिक वचनो की। लेकिन आज के इस अद्यतन युग और पश्चिम के अंधे अनुकरण के कारण इन वचनो का कोई मूल्य बचा है ? हमारे लिए तो यह शब्द ही गाली सामान है, 'वैवाहिक बलात्कार'... हमारी संस्कृति में ही नहीं है.. पर कहते है की होता है..! समझना मुश्किल है की कैसे कोई पति अपनी ही पत्नी का बलात्कार करे ? लेकिन होता होगा, लोग कहते है तो..! बलात्कार की व्याख्या संभोग से जुड़ी है, यदि दो में से किसी एक की अनुमति के बिना संभोग हुआ तो वह बलात्कार है..!!!
मुझे लगता है, बलात्कार की व्याख्या का थोड़ा विस्तृतिकरण आवश्यक है.. जब भी कभी सुनते है कि बलात्कार हुआ है तो बस शारीरिक वासना को किसी पुरुष ने किसी अबला पर अत्याचार कर गुजारा है.. लेकिन भारतीय समाज में यह समझना बहुत मुश्किल है कि विवाहित पति ने अपनी ही पत्नी पर बलात्कार किया हो.. हो सकता है कोई बिगड़ैल-बेवड़ा हो उसने कर दिया हो.. सभ्य और समझदार दाम्पत्य जीवन मे तो यह सम्भव ही नही..! आखिरकार है तो वह वासना ही.. क्या पता कब किसके सर चढ़ जाए.. मेरे लिए तो इसकी कल्पना करना ही सम्भव नही हो पा रहा है..! लेकिन व्याख्या जानता हूँ तो समझ तो सकता हूँ कि यदि पत्नी की इच्छा और अनुमति नही है तब भी उसे प्रेरित कर के या फिर जौर आजम कर अपनी इच्छा की आपूर्ति की हो..
बलात्कार की व्याख्या को विस्तार चाहिए
अच्छा, मुझे यहां एक और कारण दिख रहा है, पर शायद मैं उसे पूर्णतः शब्दो मे व्यक्त कर न भी पाउँ..! पुराने समय से स्त्री को पुरुष की सेवा में लगाया गया है। पुरुष को स्त्री का स्वामी कहा गया है, तो पुरुष में भी स्वामित्व का भाव जन्मा। अब जहां स्वामित्व का भाव है वहां एक लघुताग्रंथि बन जाती है उपभोग की। और स्वयं की वस्तु का उपभोग करने में कोई मर्यादा होती नही। दूसरी एक बात और है, स्त्री में सम्मोहन की शक्ति है, वह चाहे वह कर सकती है। फिर भी वह कभी भी समस्त पुरुष को अपना दास नही बना पाई..!
कारण है कि स्त्री में भी परस्पर ईर्ष्या भाव है। हम देखते है कि सारे वैवाहिक जीवन जिसमें कई लोग खुश नही रह पाते, कारण बहुत से है। कोई अपने साथी से संतुष्ट नही है, किसी की अपेक्षा कुछ अधिक थी, किसी को एक दूसरे का स्वभाव पसंद नही है, कोई विश्वासघात करता है, कोई उत्तर-दक्षिण ध्रुव है, तो कोई तो नदी के किनारे समान बस अंत तक साथ चलते है एक निश्चित वैचारिक दूरी के चलते..! समाज / समुदाय की मर्यादा बनाए रखने के लिए ही विवाह का निर्माण हुआ होगा, दूषणो से समाज के संरक्षण हेतु ही विवाह के वचनों का निर्माण और निर्वाह हुआ होगा। तब किसी के पास शेष समय न था, तो दूसरी समस्याएं भी न थी।
आज समय अलग है, टेक्नोलॉजी का use करके मनुष्य ने समय बचाया है.. और फिर उस बचे समय मे खाली मन अनैतिकता की ओर अग्रसर होने लगता है। यह बात इस लिए याद आई कि एक रील देखी थी जिसमे एक स्त्री उकड़ू बैठकर बैठे बैठे ही एक कदम आगे चल रही थी, और पीछे आ रही थी, और समझा रही थी उस योग-आसन के अनेको लाभ..! और मैं सोच रहा थी कि यह इस योगासन से होने वाले लाभ को बता रही है उससे अच्छा वह डायरेक्ट यूँ क्यों नही कह देती की घर मे बैठे बैठे पोंछा लगाओ..! मनुष्यजाति सचमे अजीब है, शारीरिक श्रम वाले कामो को हमने मशीनों को सौप कर खुद ने जिम जॉइन की है..!!!
मानसिक बलात्कार का कोई कानून क्यों नहीं?
आदत से मजबूर विषय से भटकने की..! मतलब यह तो निश्चित है की शारीरिक जौर-जबरदस्ती हुआ बलात्कार.. मैं सोच रहा हूँ क्या मानसिक प्रताड़ना को बलात्कार की श्रेणी में नही रखा जा सकता ? पिछले कुछ वर्षों में बहुत से लोग जागरूक हुए है, जो समझते है बलात्कार की व्याख्या, कारण तथा परिणाम भी..! यदि कोई विवाहित पुरुष अपनी पत्नी को मानसिक त्रास देता हो तो ? उस मानसिक त्रासदी की तो खरोंचे भी नही दिखती ? बात बात पर स्त्री को टोक दिया, चार लोगों के बीच उसकी खिल्ली उड़ा दी.. उसे मूर्ख कहा, अपशब्द कहे.. क्या वह एक प्रकार का बलात्कार नही? चलो अब बहुत हुआ यह एकतरफी बलात्कार..
ऐसा नही है कि वैवाहिक जीवन मे सिर्फ सारे दुःख स्त्री के हिस्से ही आए है.. पुरुष भी बहुत सी शांति को खोता है..! क्या हो अगर कोई काली मजदूरी कर के आया हुआ पुरुष शाम को घर लौटा हो, दिनभर परिश्रम से थका हो, उसके ऊपरी अधिकारी ने उस पर गुस्सा उतारा हो, इस थके हारे पुरुष के घर आते ही उसकी पत्नी अलग से ताने कसे...! या फिर कोई परिवार में सासु-बहु की न बनती हो और वे दोनों ही उस पुरुष को अपने पक्ष में रखना चाहती हो.. या उस पुरुष की दशा सोचिये जो उसकी पत्नी का पक्ष भी नहीं ले सकता और अपनी माता का भी..
समाज के डर से रो नहीं सकता पुरुष
या फिर उस पुरुष की दशा की कल्पना करो जो विवाह से पूर्व कितना मुक्त था, कहीं भी बिना किसी रोकटोक के विहरता था, या फिर वह पुरुष की कल्पना करो जो उसकी पत्नी का दासत्व स्वीकार कर चूका है। उस पुरुष की मनोदशा क्या होगी जिसका बाहरी दुनिया में प्रभुत्व है पर घर में उसकी एक नहीं चलती ? समाज इन पुरुषो को विविध नाम देकर इनकी मजाक उडाता है वह अलग। बिलकुल ऐसा भी नहीं है की शारीरिक प्रताड़ना हुई तो वह हुआ बलात्कार, स्त्री के द्वारा पुरुष को दिए गए मानसिक तनाव को भी तो बलात्कार की श्रेणी में क्यों नहीं लिया जाता ? ओवरथिंकिंग तो नहीं लग रही ?
यह हकीकत है, आसपास समाज में द्वितीय दृष्टिकोण से देखिये। कई पुरुष के चेहरे पर हास्य के पीछे कोई गहन गंभीरता दिखेगी.. ना नहीं दिखेगी ! क्योंकि वह किसी से नहीं कहता। कोई कोई पीड़ा उसे ही सहनी होती है.. चाहे जीवनभर..! उसके हास्य के पीछे छिपी गंभीरता वह खुद ही नहीं चाहता की कोई जाने.. क्यों ? क्योंकि वह स्त्री की तरह रो नहीं सकता। रो क्यों नहीं सकता ? क्योंकि समाज की दृष्टि में रोना दुर्बलता का चिन्ह है, दुर्बल पुरुष की वांछना समाज भी नहीं करता।
मुक्ति कहाँ है? समाधान कौन देगा?
वैसे कभी कोई अपना दुखड़ा सुनाता है तो मुझे लगता है सुन लेना चाहिए..! जहाँ तक मेरा अनुभव है, ज्यादातर लोग परेशानी में मदद नहीं मांगते.. उन्हें बस कन्धा चाहिए होता है..! पुरुषो की बैठक में क्या होता है ? रूपक अलंकार को प्रचुरता से उपयोग करके मेरे दोस्त के साथ ऐसा हुआ कहकर वह अपनी पीड़ा को उगलता है। क्योंकि उसे भी तो कहीं अपने मन की कलुषितता को उड़ेलना है.. कोई कोई होते है जो सदा रोते दीखते है तो कोई हमेशा मुस्कुराते मिलेंगे। समस्या किसके जीवन में नहीं होती ? सबकी अपनी अपेक्षाए है, सबके अपने दृष्टिकोण है, सबका अपना व्यवहार है, उसे आचरण में लाने का तरीका है।
पुरुष को भी बोझ उतारने का हक चाहिए
कोई किसी से बाते कर अपना बोझ हल्का करता है, कोई मेरी तरह कभी कभी बैठकी कर लेता है, कोई एकांत पाकर चीखता है, कोई कुछ तोड़फोड़ कर लेता है। यह अंदर के भार से निवृत्ति पाने का तरीका ही ऐसा है। अंतर्मन से द्वंद्व करो तो विष भी मिलेगा, जिसे निगलना ही होता है। या फिर मेरी तरह अपने निर्णयों से प्राप्त परिणामो से असंतोषित होकर आगे कोई नूतन साहस करो ही ना। बस निष्क्रिय बन बैठ जाओ.. निःशब्द.. नीरवता.. भीड़ में ओझल हुआ सा। या फिर द्विमुखी बनो, दुःखो की एक सुइटकेस भरो, उसे अपने भीतर ही दफना दो, और मुख पर मुखौटा रखो.. सदा मुस्कुराते रहने का.. लोगो को दिखाओ, तुम खुश हो..
विषय से भटकना सामान्य है.. सिम्पल सी बात है, स्त्री को भी तो स्वयं को दुर्गा या रणचंडी बनना होगा, कब तक वह पुरुषो की आश्रित रहेगी ? दुनिया का एक ही फंडा है.. अपनी समस्या का हल अपने आप को ही निकालना पड़ता है। लोग राह दिखा सकते है, पर आवाज तो स्वयं को ही उठानी पड़ेगी.. यह आज जो भी उटपटांग लिखा है उसका कारण प्रीतम है, मेरा कोई दोष नहीं.. उसीने कल शाम को गलत तार छेड़ दिए..
|| अस्तु ||
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चुप रहना भी एक सह-अपराध है।
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यह लेख भी एक ऐसी ही बैठक की उपज है, जब गरबा के बाद प्रीतम से हुई बातचीत ने कुछ असहज, कुछ अनसुने सवाल उठाए।
उन तीन दिनों की पूरी दास्तान, जिसकी आँच ने इस लेख को जन्म दिया, पढ़िए यहाँ:
तीन दिन की डायरी: शराब, गरबा और झणझणीत मिसलपाव