उपनिवेशवाद से नव-उपनिवेशवाद की यात्रा
नव उपनिवेशवाद।
उपनिवेशवाद की व्याख्या तो सीधी सी है कि कोई एक देश किसी अन्य देश पर शासन करते हुए उस देश के समस्त संसाधनों का भरपूर शोषण करे। होता क्या है की शासक देश की फिर कुछ विशेषताएं भी शासित देश स्वीकार कर लेता है। जैसे भारत पर ब्रिटिश राज का उपनिवेशवाद था। और आज अंग्रेजी भाषा हमे विरासत में मिली जो ब्रिटिशर्स की विशेषता मान लो। द्वितीय विश्वययुद्ध के बाद धीरे धीरे यह साम्राज्यवाद भी ख़त्म हुआ, और उपनिवेशवाद भी। लेकिन किसी का अंत किसी और का उदय भी तो होता है।
राजनीति में शक्ति का नया खेल
उपनिवेशवाद का तो मानिये अंत हो चूका, लेकिन वही उपनिवेशवाद नए संस्करण में 'नव-उपनिवेशवाद' बन कर समस्त पृथ्वी पर फ़ैल गया। अब यह नव उपनिवेशवाद को समझे तो जैसे भारत ने राजनैतिक स्वतंत्रता तो पा ली थी, पर आत्मनिर्भर तो था नहीं। कई मामलो में अमरीका और रसिया जैसे देशो पर निर्भर होना पड़ा। यह हुआ 'नव-उपनिवेशवाद'..! जब एक विकसित देश किसी विकासशील देश को अपने पर निर्भर रखे वह एक 'नव-उपनिवेशवाद' ही तो है। आज पाकिस्तान की राजनीती के साथ जैसे अमरीका खेलता है।
बाइडेन के राज में शरीफो के मौज-मजे थे, ट्रम्प चच्चा ने अभी से कह दिया है की नियाज़ी इमरान खान को जेल से रिहा किया जाए। मतलब सोचने जैसा तो यह है की एक स्वतंत्र देश पाकिस्तान में सत्तारूढ़ कौन होगा वह अमरीका की एक राजनैतिक पार्टी नक्की करती है। कुछ और उदाहरण दूँ, तो दुनियाभर में डॉलर की कितनी बोलबाला है। जब ब्रिक्स ने खाली बात की है कि 'डी-डोलराइज़ेशन होना चाहिए।' तब तो तुरूम्प चच्चा ने सीधा यूँही कह दिया कि, 'डॉलर का उपयोग बंद करते हो तो अमरीकी मार्किट का एक्सेस भी नहीं मिलेगा।' जैसे अपने लालू चाचा ने बंगाली बाई को कहा था, 'रेल नहीं माँगा गया था तो नहीं मिलेगा।'
प्रियंवदा की दृष्टि से नव-उपनिवेश
खेर, यह तो हुआ राजनैतिक 'नव-उपनिवेशवाद'.. लेकिन फिर प्रियंवदा ने कहा इसे आम जिंदगी में apply करके देखो..! तुम्हे चारोओर यही दिखेगा..! अब मैं थोड़ा confuse तो जरूर हुआ, कि तारक मेहता का उलटा चश्मा तो समझ सकता हूँ, पर पियंवदा का पुल्टा चश्मा से कैसे देखूं? फिर प्रियंवदा से ही जरा परिभाषित करवाया, "ये कहीं भी देखा जा सकता है.. जैसे कोई आपके साथ थोड़ी अच्छाई करके आपको अपना ऋणी बना लेता है। फिर आपके ऋणी होने का गलत फायदा उठाता है। और आप कुछ कर भी नहीं सकते क्योंकि आपको ऋण चुकाना है। लेकिन एक बात से शायद हम सभी अनभिज्ञ होते हैं कि कोई भी ऋण इतना बड़ा नहीं कि उसको चुकाने में हम अपने शोषण का अधिकार किसी को सौंप दें।"
पत्ता, सिगरेट और दुकान: निर्भरता की कहानी
अब पहले तो इस भाषा को थोड़ा सरल और सहज करते है। और कुछ दृष्टांत लेते है मेरे नाम से, लेकिन मुझसे जुड़े मत समझियेगा। मैं और पत्ता अच्छे दोस्त है, मुझे सिगरेट का व्यसन है, पत्ते को नहीं। लेकिन धीरे धीरे मेरे संपर्क में रहते हुए वह मेरे इस व्यसन से भी प्रभावित हुआ, शुरू शुरू में मैंने उसे कुछ सिगरेट्स पिलाई, यह तो हुआ प्रभाव बनाना, लेकिन आज वह सिगरेट का पैकेट जेब में रखता है, और मुझे दो-तीन सिगरेट्स मुफ्त में मिल जाती है। यह हुआ नव-उपनिवेशवाद। शुरू शुरू में उसके सिगरेट्स में इंट्रेस्ट के कारन मैंने उसे पिलाई, अब वह मुझे पिलाता है, बिन मांगे भी।
फिर पत्ता ने एक दिन करियाने की दूकान खोली। मैं उसके वहां सिगरेट्स पीता, १२ की सिगरेट का १५ चुकाता, ३ रुपए जमा रहने देता। धीरे धीरे यह व्यवहार बढ़ा। अब उसकी दुकान पर पंद्रहसौ की उधारी है मुझ पर। क्योंकि मेरे शुरुआती जमा रखने के व्यव्हार से वह प्रभावित हुआ, और आज पंद्रहसौ की उधारी भी वापिस मांगने में झिझकता है। प्रभाव, निर्भरता और शोषण के बिच की भेदरेखा मिट जाए तब उपनिवेशवाद की उत्क्रांति हो जाती है। धीरे धीरे पत्ता पैसे वापिस मांगेगा, मैं उसे याद दिलाता रहूँगा कि मेरे जब ३-३ रूपये जमा रहते थे तब कभी मांगे थे मैंने? अब वह मुझ पर निर्भर है, पंद्रहसौ पर। फिर एक दिन मैं पिछले हिसाब में आठसो चुकाकर १००० की और उधारी बना लूँ तब भी वह व्यवहार के नाम पर चलता रहेगा।
पत्नियाँ: सबसे परिष्कृत उपनिवेशकर्ता?
यहाँ, पत्ता स्वतंत्र है अपने निर्णय लेने के लिए, लेकिन वह मुझ पर निर्भर भी है, पत्ते का शोषण ही हो रहा है। मैं थोड़ा चुकाकर ज्यादा उधारी ले रहा हूँ। रिश्तेदारी में भी तो यह नव उपनिवेशवाद पनप चुका है अच्छे से। कुछ रिश्तेदार संबंध रखते हुए इतना उपनिवेश कर जाते है की जिसका कोई अंत नहीं होता। जैसे पत्नी.. इनका तो क्या ही कहा जाए ? लूटने में इन्होने तो अंग्रेजो को पीछे छोड़ दिया है। कभी जेब से निकाल लिए, कभी लिपस्टिक से लेकर गलेके हार तक के नाम पर खुली लूट मचा ले, जुर्रत ही होगी, अगर मना करने का सोचा तब भी। वैसे शोषण के मामले में शान्ति सबसे पहले शोषित होती है। धीरे धीरे जीवन में यह ऐसे घुसती है कि अपनी ही अलमारी अपनी नहीं रहती। इनके बिना अलमारी से एक हाथरुमाल न मिले एक पुरुष को। पुरुष की सारी मेहनत इन्हे सजाधजाने में लगती है। खेर, उपनिवेशवाद का अंत है ही नहीं। न ही नव-उपनिवेशवाद का।
चलिए फिर आज के लिए इतना काफी है, मैं भी किसी का उपनिवेश होता जा रहा हूँ।
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक!
अगर कभी आपने किसी को एहसान के बदले में बार-बार चाय पिलाई हो… या किसी रिश्ते में अपने ही पर्स की चाबी ढूंढते हुए पाया हो…
तो यक़ीन मानिए, यह पिछली पोस्ट भी आपके दिल को छू जाएगी — जहाँ "बातों का उपनिवेश" और "ओवरथिंकिंग" का भी लेखा-जोखा है।आइए, सोचिए… कहीं आप भी तो किसी के 'नव-उपनिवेश' नहीं बन गए?
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