"मन की उलझन, नैतिकता की सीमाएं और असंभव आशाएँ – एक आत्ममंथन" || Because there are no options for results.. ||

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जब इच्छाएँ असंभव को साधना चाहें

    मन कभी कभी असंभव आशाए प्रस्तुत करता है, कई बार बाध्य करता है किसी एक ही विषय को विस्तृत करने के लिए.. इच्छाए होती ही ऐसी है..! कई बार कोई प्रयोग करते है, पता तो होता ही है की परिणाम यही है.. लेकिन उस परिणाम से नाखुशी के बावजूद उसे अस्वीकार्य करना भी संभव नहीं होता है। क्योंकि परिणामों के विकल्प नहीं होते है न..! परिणाम अनन्य होता है, हाँ ! संभावना जरूर होती उस परिणाम में कुछ बदलाव करने की.. लेकिन वह भी एक निश्चित स्वरुप तक ही सिमित है।




स्वांग बनाम भय – जब हम स्वयं से ही द्वंद्व में होते हैं

    कई बार हम स्वयं से द्विमुखी बाते करके एक दिवार खड़ी करते है.. खुद को रहस्यमय दिखाने का स्वांग करते है, हम चाहते है की सामनेवाला स्वयं से ही समझे.. क्यों ? सीधा ही क्यों नहीं कह पाते ? क्योंकि वहां भय छिपा है, असफलता का.. और वह भय का सामना करना हमारे लिए कठिन है। स्वांग खड़ा करना आसान है भय से युद्ध करने से। ऐसा भी तो होता है की जो उपस्थित है उसकी उपेक्षा कर रहे हो, और जो असंभव है उसकी आशा.. या फिर जो उपस्थित है वह अरुचिकर है, और जिसकी आशा है वह अकल्पनीय..! थोड़ा अटपटा लिख दिया है..!


ईश्वरीय संकेत या परिस्थितियों का संयोग?

    कुछ सांयोगिक समानता को कोई निर्देशन मानना बहुत बड़ी गलती होगी। कई घटनाए होती है जिसे हम ईश्वरीय संकेत मानने लगते है.. अरे परिस्थितिया अनुकूल थी तो साधक की साधना फलीभूत हुई। वर्षा ऋतु में दो ही सम्भावना है, या तो शहर पानी में डूबेगा या सूखा पड़ेगा... अतिवृष्टि या अनावृष्टि..! कई बार जीवन में ऐसी घड़ियाँ आती है, हमारी आस्था या तो चरम पर होगी, या भूकंप से भी तीव्र डगमगाती है। क्यों ? 


क्षुधा और नैतिकता – जब भूख मूल्य प्रणाली पर भारी हो

    क्योंकि स्थितिअनुसार पहले से ढले नहीं थे। क्योंकि राह देखते रह गए थे संकेत के। किसी की आशा में स्वयं से कुछ भी पुरुषार्थ न किया। किसी की दिखाई राह पर चलें, स्वयं के पथ का निर्माण न किया। क्षुधा सबसे गंभीर है शायद.. क्षुधा या तृष्णा सिर्फ भोजन-पानी की ही थोड़े होती है ? एक ऐतिहासिक रोचक प्रसंग था की, अकाल में जब अन्नक्षेत्र में धान की अछत हुई तब रोज़ पकाया गया था, स्वयं का अस्तित्व सुरक्षित रखने के लिए मानवीय कृत्य कुछ भी जघन्यपना कर सकता है..!!!


आत्मवंचना की थकान और मौन की शरण

    नहीं, मांसाहार का विरोधी नहीं मैं, ना ही मैं शाकाहार-मांसाहार की तुलना कर रहा हूँ। मैं मूल्यांकन कर रहा था नैतिकता का। समयानुसार नैतिकता के मापदंड बदलते है। जब खाने को कुछ न हो तो मानव अपनी क्षुधा के वश होकर कमजोर को ही पहले निशाने पर लेता है। मैं जब भी स्वयं से खड़ी की हुई उलझन में अटकता हूँ तो लोगो से दूर चला जाता हूँ.. न किसी से बात न कुछ..


    ना ! आज आगे नहीं लिखना.. कुछ ज्यादा ही नकारात्मकता दिखाई पड़ रही है।


“भय से भागते हैं हम, स्वांग की आड़ में,
पर आत्मा जानती है – कौन सा सच है, कौन सा भ्रम।”

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“क्या आपने भी कभी स्वयं से द्वंद्व किया है? जब सब कुछ जानते हुए भी निर्णय कठिन लगे हों? अपनी अनुभूति कमेंट में बाँटें।”


"कुछ बातें पुरुषों की कभी कही नहीं जातीं – वे निभाते हैं, झिझकते हैं, बहाने बनाते हैं, लेकिन दिल के भीतर बहुत कुछ छुपाए रखते हैं। इसी उलझन और सरलता के संगम को शब्द दिए हैं इस पोस्ट में –
 Men Will Be Men – मर्द होने की मासूम मुश्किलें"


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