उलझे हुए मन, रिश्तों की दूरी और समाज की बातूनी तासीर || Men will be men..

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उलझा मन और बातूनी समाज

    प्रियंवदा ! उलझे हुए लोग सुलझाते नहीं कभी किसी को। मैं स्वयं ही कई बातो में, कई लेखनी में उलझा हुआ रहता हूँ। शायद भविष्य की इतनी भी कल्पना नहीं करनी चाहिए की वर्तमान से ऊबने लगे मन। कुछ लोग बड़ी असमंजस भरी बाते कर जाते है। या फिर उनकी सहजता को हम गंभीरता में गिन लेते है। हाल फ़िलहाल थोड़ी व्यस्तता के कारण तथा किसी की कमी के कारण भी कुछ लिख नही पा रहा। मुझे किसी ने चेताया भी था, निर्भर मत रहो। मैंने कोशिश की थी। पर अभी उतना स्थिर नहीं हो पाया हूँ। और वही अचानक से आकर कोई मेनका ध्यान भटका जाए..! और हम ठहरे तुच्छ मनुष्य। क्या ही करे, स्वीकार लेते है, Men will be men..



रिश्तों की दूरी में ही मिठास क्यों होती है?

    प्रियंवदा ! तुम्हे पता है, रिश्तों में कड़वापन क्यों आ जाता है? क्योंकि साथ रहते है। इंसानी फितरत में है, जितना दूर हो उतना अधिक सुखी हो। नजदीकियां, या साथ रहना अक्सर आदतों की वजह से चुभता है, क्योंकि हमारा मन सतत नयापन चाहता है। जैसे रोज ही ऑफिस जाना हो, रविवार या छुट्टी का दिन न आता हो तो शायद कोई भी काम कर ही न पाए। क्योंकि एक ही चीज, एक ही बात, एक ही व्यक्ति दोहराते रहना शायद किसी के लिए संभव नही है। तभी हम लोग पहले के आगे दूसरे की बाते करते है, दूसरे के आगे तीसरे की, और तीसरे के आगे पहले की। 


स्त्रियों के सामाजिक संवाद और चक्रव्यूह

    और हमारे पीछे वो तीनो हमारी ही बाते करते है। चाहे अच्छी हो या बुरी, यह बातें एक मुंह से दूसरे कान, और दूसरे मुंह से तीसरे कान फैलती रहती है। हर मुंह अपनी और से कुछ बढ़ाता-घटाता रहता है अपनी सहूलियत अनुसार। और जब वह बात का घटस्फोट या विस्फोट होता है तब वह बड़ा ही भयंकर रूप ले चुकी होती है। स्त्रियों में अक्सर यह गंभीर समस्या है। बहु सास की बाते बनाती है, सास अपनी ननंद की। ननद अपनी सास की, उसकी सास अपनी समधन की.. इस चक्रव्यूह को कौन भेदे..? शायद सभी को यह चक्रव्यूह में मजा आता है। दुनिया बातूनी है प्रियंवदा।


जब शब्द बन जाएं अस्त्र

    आक्रमकता और उत्तेजना आज के समय पर चरम पर है। कुछ लोग अपनी बातों से बड़े मशहूर होते है। बोली से। बोलने की छटा से। जैसे स्टेज कलाकार। बोली क्या नही करवा सकती? किसी को दो उग्र शब्द चढ़ाकर युद्ध करवा सकती है। किसी को आबाद, किसी को बर्बाद कर सकती है बोली। कुछ को गोली की भी जरूरत नही, अपनी बोली से ही मार सकते है। किसी को आता है, शौर्य का सिंचन करना। शब्द पर जान दे दी जाती, ले ली जाती। अंध शब्द ने महाभारत की है। या शकुनि के शब्दों की मायाजाल द्युत के पासो से ज्यादा पलटे है। या कृष्ण के वे शब्द जिसने अर्जुन में हिम्मत भर दी। या फिर वह अ-उच्चारित संकेत, जिसने जरासन्ध का संधिविच्छेद करवा दिया। क्या आसान है जरा भी मेदनी के बीच अपनी आवाज रखना? शब्द रखना? बताओ प्रियंवदा ! और यहां कुछ लोग बातूनी बन रहे है।


    समाज या समुदाय या नागरिक किस और जाता है वह देश मे रहने वाले ही तो निश्चय लेंगे। कोई बाहर से कितना ही दबाव देकर देख ले, स्प्रिंग उछलती है, दबी नही रहती। हाँ थोड़ी दबी भाषा मे लिख रहा हूँ क्योंकि पर्दा जरूरी है। स्पष्टता आजकल काट लेती है। बारबार काट सकती है। 


    ना बस प्रियंवदा ! आज इतना ही.. थोड़ी मायूसी छायी है..


|| अस्तु ||


कभी पाबंदियाँ खुद लगाते हैं, कभी समाज की मान्यताएँ हमें घेरती हैं… लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि पीड़ित बनने की आदत से ही आत्म-अस्वीकृति जन्म लेती है?
इसी विषय पर एक और मन को झकझोर देने वाली दिलायरी यहाँ पढ़िए:
Self-Deprivation Arises From Victim Mentality

प्रिय पाठक,
यदि कभी आपने भी दिल में दबी बातों को लिखा नहीं, बस महसूस किया है —
तो यह दिलायरी आपके ही शब्दों से जन्मी है।

 पढ़िए, सोचिए, और शब्दों में उतरिए...
 यही रहा आज का नया पन्ना।


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