तीन दिन की डायरी : शराब, गरबा और झणझणीत मिसलपाव || Three days have come down to one page..

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जब भूखे पेट शराब पी और ज़मीन घूम गई..

    'तुम बिल्कुल ठीक और स्वस्थ हो' यह ढोंग करना सबसे कठिन है.. हुआ कुछ यूं कि कल मैंने और प्रीतम ने बैठक लगा ली। मैं वो वाला दोगला नही हूँ कि अंडे खाता हूं लेकिन मंगलवार को नही, शराब पीता हूं लेकिन श्रावण में नही.. मेरी जब जो इच्छा होती है, और मेरे सामर्थ्य में होता है तो मैं उसी समय वह कार्य कर लेता हूं.. चाहे ड्रिंक करनी हो, चाहे घूमने जाना हो.. जमा स्ट्रेट.. कोई टर्निंग नही..! कल दिनभर ऑफिस में व्यस्त रहा, दोपहर को खाना भी नही खाया था। शनिवार को यही हाल होता है, ऑर्डर्स पूरे करने के चक्कर मे पूरे सप्ताह की गाड़ियां इकठ्ठी शनिवार को ही आ धमकती है।



    लगभग पाँचेक बजे प्रीतम का फोन आया तो मैंने मजाक मजाक में कह दिया, "बहुत दिन हो गए भाई, मंगा ले कुछ.."


    फिर मैं भी अपने काम मे व्यस्त हो गया, लगभग आठ बजे उसका फोन आया, बोला "आजा दो लिटल लिटल लगाते है.."


    जुबान के पक्के है हम, बस दो ही पटियाला लगाए और फिर दुनिया झूम गई मेरी..! सौ बात की एक बात, यदि इतनी ही चूल है पीने की तो भूखे पेट कभी नही पीनी.. सुबह नाश्ते के बाद कुछ ही नही खाया था, सीधा चकना जिंदाबाद.. लेकिन अपना फिक्स है, पीने के बाद बक*दी नही करनी, चुपचाप बिना किसी हो-हल्ले के सो जाने का। वो जोक था न कि लड़कींया 800 की लिपस्टिक लेकर सबको बताती है, लेकिन लड़के 1500 की बोतल पी कर भी किसी को कानोकान खबर नही होने देते।


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    आज का दिन हैंगओवर में ही गुजरा.. सवेरे वही संडे वाली भागदौड़, ऑफिस जाओ, तीन बजे घर आओ, फिर नाई के साथ कुछ हसीन लम्हे, और फिर मोटरसायकल से प्यार..


    शाम को शाखा में गया। जीवन में अनुशासन भी तो उतना ही जरूरी है.. अपना फंडा सिम्पल है, फ्लो के साथ ही रहना, भेद इतना ही है कि मैं फ्लो से पीछे चलता हूं। पिछली कुछ साप्ताहिक शाखा में अन्य व्यवस्तताओ के चलते अनियमित था, लेकिन धीरे धीरे गाड़ी पटरी पर आ जाएगी..!


गरबा की गर्मी, पसीना और पूर्णता का क्षण

    अभी लगभग साढ़े ग्यारह बजे है, पूरी छप्पन मिनिट नॉनस्टॉप गरबा खेला है.. और आज की गर्मी तो भाई रे, थोड़ी देर तो लगा कि बस प्राण-पखेरू निकल ने को है.. पसीने से लथपथ होकर खेलो तब ही लगता है कि हाँ नवरात्रि सफल है..! जब तक खेलने से मिट्टी की डमरियाँ न चढ़े तब तक मुझे नही लगता कि गरबा खेला गया है..


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    जब मैं व्यस्त होता हूँ तब बढ़िया बढ़िया विषय दिमाग मे घूमते है, जैसे नहाते वख्त, जैसे ड्राइविंग, या राइडिंग करते समय, या कहीं किसी उलझन में हो तब.. कुछ मुझे पसंद आए ऐसे शब्द सूझते है, लेकिन समय नही होता है कि कहीं लिख लू.. जब लिखने बैठता हूं तो कई देर सोचनेबाद भी वह विषय/टॉपिक या पंक्तियां याद नही आती..


    यह शनिवार, रविवार और आज सोमवार का लेखन है.. वाचक भी कन्फ्यूज़ हो रहा होगा। यह पेरेग्राफ आज यानी सोमवार को लिख रहा हूँ, अभी अभी बाजार से लौट हूं, कुछ तो सरकारी कामकाज निपटाने थे, कुछ यूं ही बाजार में टहलना था। एक MMV करके फ़ूड कोर्ट खुला है तो सोचा लाभ ले आऊं.. वैसे ही जिह्वा आजकल कुछ ज्यादा ही चटोरी हो चली है.. महाराष्ट्र कभी जाना हुआ नही, और यह MMV महाराष्ट्रीयन नास्ता वाला था, मिसलपाव, वडापाव, सेवउसल, कोथंबीर वडी.. वगेरह वगेरह..! अपन भाई tmkoc के पुराने एपिसोड्स के डायहार्ड फैन रहे है, उसमे भिंडी मास्टर झणझणीत मीसल की खूब तारीफें करता.. तो उसे ही आजमाया जाए..! 


मीसलपाव की मार और वडापाव का सहारा

    एक मिसलपाव और एक वडापाव ऑर्डर किया.. मीसल थी तो झणझणीत पर मेरे जैसे देशी आदमी को उतनी रास नही आई.. अबे हम गुजराती लोजी नास्ते में जो चवाणु/चेवड़ा खाते है उसे यहां सब्जी की तरह छोंक मार कर रस्से(तरी) वाली सब्जी और साथ मे पाव दे दिए.. बोला खाओ.. यही है मीसलपाव..! दारू वाले चकने की सब्जी.. खैर, मजाक नही बना रहा, पर पहले से पता होता कि यह पांच-दस वाले नमकीन की 'सब्जी' है तो ट्राय ही नही करता.. यार मटर, मूंग, भुजिया, बूंदी, सेव, एक साथ कैसे और उससे भी बड़ा क्यों ? मीसल का मरा मन तो वडापाव भी न भर सका.. थोड़ी जल्दबाजी में मीसल ने जुबान जला दी.. ठीक ही हुआ, कुछ ज्यादा ही चटोरिपने पर उतर आई है..


प्रीतम, अधूरी बातें और भाईगिरी के सबक

    अबे अपने प्रीतम ने दिल तुड़वा लिया कहीं.. अब मुझे चींटिया काट रही है कि कैसे और क्या हुआ, और एक वो है जो जवाब ही नही दे रहा.. अब बार बार उसे पूछना मुझे भी ठीक नही लग रहा, और उसने भी बाद में बताऊंगा कह कर बात टाल दी.. जालिम दुनिया.. भाई रे जालिम दुनिया.. फिर भी एक बार शाम होते होते मैने पूछ लिया, "बताना यार क्या हुआ.." तो कहता है, "सॉर्ट हो गया मामला.." यह तो वही बात हो गई कि कोई कहानीकार अपनी कहानी को उत्सुकता के शिखर पर चढ़ा गया और अचानक से बैठ गया कि "ना भाई, आगे न लिख रहा मैं तो.."


    फिर मुझे उदय शेट्टी की तरह कहना पड़ता है, "अब क्या करूँ मैं इसका, मार भी तो नही सकता, प्यार जो करता हूँ.."


    वैसे यह प्योर डायरी छाप लिखा है.. रॉ एंड अनफिल्टर्ड.. अंग्रेजी भी हिंदी में.. एक ही पन्ने पर तीन दिन उतर आए है..!


|| अस्तु ||


जहां तुमने इसी प्रकार जीवन के बहाव और संकल्पों को टटोला था। इसे यहाँ जोड़ा जा सकता है—
"कभी कभी लगता है कि न तो गरबा, न शराब, न मिसल... बस कुछ संकल्प चाहिए, जैसे मैंने नए साल की पहली सुबह तय किए थे..."


कभी तुम्हें भी ऐसा हैंगओवर आया है? या गरबा की थकान में आत्मा तक पसीज गई हो?
 कमेंट में बताओ, और इस डायरी को शेयर करो—क्योंकि सच्ची बातें सिर्फ जर्नल में नहीं, जमाने में गूँजनी चाहिए।
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