"गूगल, नकारात्मकता और एकांत का सफर | आत्मसंवाद की डायरी" || We are slowly moving towards solitude..

0

सकारात्मकता और नकारात्मकता का द्वंद्व

    प्रियंवदा ! कुछ लोग इतने सकारात्मक कैसे रह सकते है? मैं जब कुछ पढता हूँ तो सोचता भी हूँ.. थोड़ा ज्यादा भी सोच लेता हूँ कई बार.. फिर फिर सोचते सोचते थक जाता हूँ.. और सिगरेट्स का धुंआ उड़ा देता हूँ..! गलत है जानता हूँ.. पर मैं इसके त्याग पर आफरीन हूँ.. कैसे यह मुझे समर्पित होकर अपना देहत्याग देती है। 


    सकरात्मता.. कोई कोई होते है, पिम्पल को स्किन कैंसर तक सोचने वाले नकारत्मकतावादी... शायद मैं ही हूँ वह नकारात्मकता का पर्याय..! नकारात्मकता भी तो शायद अच्छी है.. क्योंकि यह है तो ही सकारात्मकता का अस्तित्व उद्भव होता है। कुछ पढ़ते है, किसी से बात करते है तो बहुत फर्क पड़ता है। 


गूगल से परे सोचने की आदत

    एक है न बहुत से लोगो को एक बुरी आदत पड़ गई है, गूगल करने की। थोड़े ओवर-सेंसिटिव, थोड़े ओवर पोजेसिव हो चुके है सब.. बुखार आया तो गूगल करते है, कब्ज हो गई तो भी गूगल से पूछते है... अबे इन चीजों में डॉक्टर से पूछा करो..! गूगल से जानकारी लेनी चाहिए लेकिन उस जानकारी को सहजता से स्वीकारनी चाहिए, गंभीरता से नहीं। क्योंकि बाद में उस जानकारी से मन और बेचैन होता है। 


    गूगल का क्या जाता है, वह तो बुखार और कब्ज को भी कैंसर तक ले जाता है। हिम्मत यही से टूटने लगती है। क्योंकि गूगल कभी हिम्मत नहीं बंधा सकता। वह सिर्फ जवाब देता है, लेकिन उसके जवाब सही है या नहीं वो तो खुद वो भी नहीं बता पाता, वैसे वो जवाब भी नहीं देता, ऑप्शन्स देता है। ढेर सारे ऑप्शन, और उल्टा हमसे पूछता है, तुम्हारा दिमाग कौनसे उत्तर से प्रभावित होता है, वो तुम नक्की करो..!



    यही चल रहा है, किसी और पर कुछ ज्यादा ही निर्भरता रखो तो। अपना स्वयं का एक दृष्टिकोण होना चाहिए, सही है या गलत है वो बाद की बात है, पर स्वयं का एक दृष्टिकोण, एक विचार, एक दृढ-निश्चयता होनी चाहिए। हालाँकि मैं खुद गूगल करता हूँ कई बातो में, लेकिन धीरे धीरे गूगल के उत्तर का स्त्रोत भी चेक करने लगा हूँ.. वरना सच बात तो यह है की गूगल आपको कार में जेक चढ़ाना भी नहीं सीखा सकता जितना कोई आस-पडोशी समझा सकता है। पर हम धीरे धीरे एकांत की और अग्रसर हो रहे है।


    है न प्रियंवदा ! एकांत.. निर्जनता.. बस स्वयं का प्रतिसाद खोजते हुए..!


|| अस्तु ||


 ये भी पढ़ें: जो होगा, देखा जाएगा...
("जब भरोसा खत्म हो जाए, तब भी एक आवाज़ भीतर से कहती है — ‘देख लेंगे...’")

तो बताइए प्रिय पाठक,
क्या आप भी गूगल के उत्तरों से डरा हुआ निर्णय लेते हैं?
क्या आप भी अकेले विचार करते करते थक चुके हैं?

 नीचे कॉमेंट में बताइए…
और हाँ — अगर ये डायरी आपके दिल को छू गई हो,
तो एक ‘शेयर’ या ‘लाइक’ ज़रूर कीजिए…
क्योंकि "उत्तर खोजने से पहले दृष्टिकोण बनाना भी ज़रूरी है।"


#PriyamvadaKeNaam  #सोचतेसोचते_थकगया  #मन_की_उलझन  #सिगरेट_और_संताप  #गूगल_का_दर्द  #मैं_और_मेरा_एकांत  #नकारात्मकता_की_धुंध  #तुम्हारा_अपना_दृष्टिकोण  #डायरी_से_जवाब  #DilawarsinhKiDilaayari

Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)