आज तो सुबह सुबह खर्चा हो गया, कंजूस हूँ, तो खर्चा ही दीखता है। हाँ देखने के लिए खर्चा करना पड़ता है हमे। आँखों पर ढाई और पौने तीन नंबर के बाटली-ग्लास से थोड़े पतले चश्मा चढ़े है। दूरदृष्टि कमजोर है, लेकिन हमे ताना फिर भी मारा जाता है, क्योंकि बिना चश्मा के चाँद तो दीखता है। फिर चाँद से दूर क्या ही देखना? अरे देखना है भाई, अब भविष्य की तरह वर्तमान भी धुंधला ही देखे भला? पास ही कांडला के कारण कोयला बहुत ट्रांसपोर्ट होता है। एक तो मेरा श्याम वर्ण, ऊपर से कोयला भी रोड पर होते है तो बाकी कसर पूरी करने को उतारू होता है, चलते डम्पर्स में से कूद कर कालिख पोतता है, और इसे तो मना भी नहीं कर सकते। क्योंकि डम्पर-चालक से उलझना मतलब मृत्यु के संदेशवाहक से वार्तालाप करना..! तो दिनभर में चार बार तो इस नेशनल हाइवे से गुजरना तय है। गंतव्य पर पहुँच कर जब हाथरुमाल से मुंह पोंछते है तो वह अपने बदन पर कुछ कलुषितता ले लेता है। लेकिन चश्मा उस कालिख में से थोड़ी चुरा लेता है, और नाक के ऊपर जो सपोर्टर्स होते है वे ही चुराते है। अब एक तो चोरी करता है, ऊपर से वह कमजोर भी है। बड़ी मुलायमता से उसे साफ़ करना होता है। आज थोड़ा जोर पड़ गया उस पर, और जैसे उसने चोरी की सजा कबूल कर ली, एक साइड का सप्पोर्टर टूट गया। इस महंगाई में नए चश्मे का खर्चा, और अभी तक का शायद चौदहवा चश्मा आएगा..
खेर, यह सब तो चलता रहता है प्रियंवदा..! सर्दियाँ टूटकर आई है अब तो, सुबह सुबह मॉर्निंग वॉक.. वो क्या होता है भला? वो कुछ दिन का नित्यक्रम कुछ दिन का ही रहा.. और हम ओफ्फिसवर्क वाले मजदूर को तोंद बढ़ाने का जैसे बहाना मिला.. बस सवेरे उठा नहीं जाता। साढ़े पांच, फिर साढ़े छह का एलार्म तो बजता है, लेकिन उसे घंटी बजते ही चुप करा दिया जाता है। वो भी थोड़ा ढीठ ही है, कभी कभी हर पांच मिनिट पर बजता है और मेरे घोड़े बिकते बिकते रह जाते है। किसी दिन इन घोड़ो को होलसेल में बेचना पड़ेगा, या सेल लगानी पड़ेगी। घोड़े से याद आया, एक समय पर मुझे घोड़े के विषय में खूब फोन कॉल्स आते थे। हुआ क्या था कि मुझे ऐतिहासिक बाते पढ़ने का शौक तो था ही, ऊपर से फोटोशॉप करने का एक और शौक पाल लिया था.. तो कुछ ऐतिहासिक बातो को सन्दर्भ के साथ फोटो में साहित्य लिखकर फेसबुक और वॉट्सएप्प पर भेज देता, मुझे क्या पता वायरल होंगे.. कुछ यूनिक करो तो अक्सर वह वायरल हो जाता है। अश्व के गुणधर्म की एक पुस्तक से अश्व की जाती, उसके गुण, उसके अंगो में कहाँ क्या निशानी होती है, यह सब एक लिखकर एक इमेज बनाई और सोसियल मिडिया पर डाल दी... कुछ दिनों बाद किसी का फोन आया, बोला, "मेरी घोड़ी के अगले दो पैर सफेद है, पिछले भी सफेद है, लेकिन कपाल पर सफेद बिंदी नहीं है तो उसे पंचकल्याणी कही जाएगी या नहीं?" अब मैं सोचु कि यह मुझे क्यों पूछ रहा है? तो उसने बताया की गूगल में एक फोटो में आपका नंबर था... अब मुझे याद आया कि उस इमेज में मेरा नाम और नंबर मेने एड किया था क्योंकि मैंने बनायीं थी वो इमेज, तो लोगो के बदले मैं तब नाम और नम्बर ही उपयोग में लेता था। फिर बड़ी मुश्किल से उसे समझाया कि भाई मुझे अश्व ज्ञान नहीं है। लेकिन उसके बाद तो यह सिलसिला बहुत लंबा चला.. कुछ लोग फोन करते की मुझे घोडा खरीदना है, कुछ लोग फोन करते कि मुझे बेचना है। अब चाहता तो उन खरीद-बेचने वालो को मिलाकर दलाली खाता बैठकर.. लेकिन वह मुझे अरुचिकर जान पड़ता है। क्योंकि जब आपको ज्ञान हो अश्व का तब तो बात अलग है, लेकिन मुझे तो बस उतना ही पता था जितना मैंने उस इमेज में लिखा था। आज लगभग आठ-नौ साल के बाद भी कभी कभी किसी का फोन आ जाता है, कि मुझे अश्व खरीदना है, तो मैं बड़े प्यार से अब "रोंग नंबर" कहकर काट देता हूँ..! अरे रे.. सर्दियाँ से सारंग तक पहुँच गए प्रियम्वदा..!
दिसंबर वैसे दबाके बैठा है, बहुत से कविओ का जन्मदाता दिसंबर.. नवजात कवि लिखेंगे,
"तुम लाल सूट के ऊपर जब वो हरा स्वेटर पहनती हो,
सच कहता हूँ मान प्रिये, बस बर्फ पिघलाती चलती हो.."
अबे अपने यहाँ कहाँ बर्फ गिरती है कि तुम्हारी प्रिये उसे पिघलाए? वो बेचारी खुद इस ठण्डमें दुबक कर बासी बर्तन धोने से कतरा रही होगी अपने घर पर। लेकिन नहीं, वह ताजा ताजा कवि है। उगती कोंपल कौन कुचले..? उधर से प्रिये भी जवाब में लिखती होगी कि,
"यूँ महोब्बत में पिघलाने की बाते न किया करो मेहबूब,
इलेक्ट्रिसिटी के ज़माने में मोमबत्ती मायूस है।"
अब मैं कुछ कहूंगा तो तुम कहोगे की यह कहता है। प्रिये, तुझे इतनी ही मोमबत्ती से मुहब्बत है तो इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के कनेक्शन कटवा ले, पैसे भी बचेंगे, और मुहब्बत भी मायूस नहीं होगी... लेकिन नहीं, अब फिर से वह सनम का सदमा लिखेगा,
"तुम मायूसी की बात छोड़ दो, प्रेमी हँसते-गाते है,
सपनो में बस छायी हो तुम ऐसी मीठी राते है।"
जूठा, या फिर कल्पना में खोए उसने रात भर छेद वाले कंबल से आती ठंडी में ठिठराते हुए अधकचरी नींद में तम्बूरा स्वप्न देखा होगा? लेकिन नहीं, उदित कवि है, उसे रोकते नहीं। उधर से उसकी प्रिया भी दो दिन से बगैर नहाई, (इलेक्ट्रिसिटी कटवा दी, और चूल्हे पर गर्म किया पानी पर्याप्त नहीं था) प्रत्युत्तर में पंक्तिया कहती है,
"इस विरहा की ठंडक को अपने भीतर उतरने दो महबूब,
मैं तुमसे इसी रूप में मिलने आती हूँ.."
अब बेचारे मेहबूब को ठण्ड लग गई, क्योंकि प्रिये ने कहा था, नाक बह रही है, फिर भी लिखता है,
"तुम शशि स्वरूपा शीतलता की एक नयी ही सीमा हो,
मैं जम भी जाऊं तब भी प्रिये, तुम ही तो मेरा बीमा हो।"
अब इन दोनों के वार्तालाप को हम बिच में सुनने वाले पंचातीये क्यों बने...? इन दोनों को लगे रहने दो, और मुझे विदा दो.. शुभस्य शीघ्रम..