हम ही वो है जो पुरुष को उत्पीड़न का शिकार मानने से कतराते है... We are the ones who hesitate to accept men as victims of oppression.. Atul Subhash Case...

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"जैसे खाद की दुर्गन्ध में बड़े हुए पौधों पर आए पुष्प सुगंध देते है, दुर्गन्ध सुगंध बन सकती है, काम प्रेम बन सकता है।"
 - सम्भोग से समाधी की ओर - रजनीश ओशो...



प्रियंवदा ! व्यक्ति कुछ साबित करना चाहता हो और उसके पास तर्क हो तो वह सामर्थ्यवान हो जाता है, अपनी बात को परमसत्य साबित करने के लिए। इस पुस्तक में मुझे अभी तक यही बात समझ आ रही है। ओशो बार बार अनेको उदाहरण देकर यही कह रहे है की यह सम्भोग की प्रक्रिया प्रेम का प्राथमिक चरण है। कोई व्यक्ति यदि कुछ पहले से ही मन में निर्धारित कर चूका हो तो उसे एक मात्र प्रकाशपुंज के आगे बाकी प्रकाश की किरणे तुच्छ लगती है। या वह उन्हें ग्रहण समान मानता है। अब प्रभु के अनुयायी मुझ पर कोई कार्यवाही न कर दे इस वजह से भी मुझे कुछ सीमारेखाओं के भीतर रहना पड़ेगा। अभिव्यक्ति का जमाना है भाई, क्या पता कोई चू*या सम्भोग करते हुए पढ़ ले यह..! (छी.. अभद्र बात..) जो भी हो ! सम्भोग भी एक सामान्य सी शारीरिक प्रक्रिया है। प्रेम की अभिव्यक्ति का एक साधन भी है। लेकिन यही एक सब कुछ नहीं है। है, अपने यहाँ काम शास्त्र से लेकर कामुक शिल्पो तक का निर्माण हुआ है मतलब अपने यहाँ यह पाप, या वासना, या फिर कोई मनोरंजन मात्र भी नहीं था। प्रेम की अभिव्यक्ति का चरम भी यह सम्भोग एक मात्र नहीं हो सकता। यह एक सामान्य प्रक्रिया थी, है और रहेगी। लेकिन वहां में ओशो से भी सहमत हूँ की शायद सम्भोग को रोका गया, दबाया गया, तब से यह विकार में परिवर्तित हुआ। वरना बलात्कार का सम्भव ही नहीं था। कोलकाता कांड..! क्या पता आज भी खुलापन होता तब भी परिवारवाद पर संकट बन आता। क्योंकि इस सम्भोग के साथ इसकी जिम्मेदारियां भी तो सिखानी पड़ती। कोई खेल तो है नहीं यह। आज ही कहीं सुना था कि "सड़क और ठरक कहीं भी ले जा सकती है।" क्यों? क्योंकि समझ नहीं है। मार्ग पता है, पर क्यों जाना है, कितना जाना है, कब तक जाना है.. यह सब कौन बताएगा? इस हिसाब से तो, कम से कम सम्भोग की भावना के लिए तो यह पुस्तक सही है। यदि कोई समझता है तो। वरना वासना तो है ही।


एक और वासना है, धन वासना..! भारतीय न्याय प्रक्रिया में स्त्री संरक्षण के लिए कुछ अत्यंत कड़क कायदे बनाए गए है। लेकिन उन कायदो का दुरूपयोग भी खूब हो रहा है। कल-परसो में अतुल सुभाष के बारे में बहुत से लोग बातें कर रहे है। AI इंजीनियर था वह। बेंगलुरु में नौकरी करता था। उसने विवाह किया। पत्नीपीडित पुरुष हुआ। हाँ ! पत्नी भी पीड़ा पहुंचाती है। यह तो समाज ने पुरुष को कठोरपन दिया है। लेकिन वह घर में भी कठोर नहीं होना चाहता। अतुल सुभाष ने चौबीस पन्नो की मृत्युनोंध लिखी, और आत्महत्या कर ली। उस मृत्युपत्र के कुछ अंश मैंने पढ़े। तीन करोड़ उस औरत ने मांगे तलाक के लिए। पांच लाख तो जज ने मांगे है.. सबसे पहली कार्यवाही तो उस जज पर होनी चाहिए। गुजराती में कहावत है "वाड़ चिभडा गळे..."हिंदी में "रक्षक ही भक्षक" जैसा.. सोचने वाली बात है, यह तो इसने अपने मृत्युपत्र में लिखा है, और कितने इन फेमिली कोर्ट्स के जज ऐसा कुछ करते हो उनकी जांच कौन करेगा? न्यायाधीश की पदवी को लांछन लगाया है अगर अतुल के आरोप सच है तो। फिर कभी कभी यह भी विचार आता है, ऐसे कठिन कानूनों के कारण भी कई सारे रिश्ते टूटने से बच जाते है। या फिर ऐसा भी कहूं की जिन्हे इन कानून, इन न्याय की सचमे जरूरत है वे कभी यहाँ तक पहुंचे ही नहीं, और जो कोई इन कानूनों के लूपहोल्स जानते है वे बड़ी आसानी से किसी को इस तरह मकड़ेजाल में बांधते है। और धीरे धीरे उसे निगल जाते है। हजम कर जाते है। इक्वलिटी... लिंग समानता की बात अगर करते है तो फिर कानूनों में भी इसे अच्छे से उतारा जाए.. मैं पुरुष हूँ इस लिए अतुल का पक्ष नहीं ले रहा, मैं फेमिली कोर्ट में एक बार जा चुका हूँ, गवाह बनने। वहां कुछ लोग आए थे, जिनकी कहानियां रोचक और करुण भी थी, खासकर पुरुषो की। कुछ कड़क क़ायदे होते है उनके MISUSE होने के चांस भी ज्यादा होते है। जैसे बलात्कार का केस हो गया, शहर के पास एक गाँव है, उस गाँव के डॉक्टर पर ही बलात्कार का केस चलवा दिया एक औरत ने। सच कौन जूठा कौन, लेकिन वह डॉक्टर बिलकुल बर्बाद हो चूका, समुदाय ने न्यायलय से पहले फेंसला सुना दिया, बहिष्कृति का। दूसरा कड़क कानून है एट्रोसिटी का। मैंने कईओ को सुना है, जो घटना के समय खेत पर थे, और अभी जेल में है। न्याय की लम्बी और खर्चालु प्रक्रिया कोई नहीं चाहता। यह सिर्फ टीवी और मूवीज़ के कोर्टरूम्स इतने अच्छे दीखते है, वाकई में तो बदबूदार फाइल्स से भरे, और गैरहाजिर जज या फरियादी को पुकारता छड़ीदार ही वहां होता है। जो भी कभी कोर्ट गए है वे अच्छे से एक कोर्टरूम को समझ सकते है। वास्तव में तारीखे खींची जाती है, लम्बाई जाती है। कोर्ट के बाहर ही समाधान के मौके के नाम पर महीनो खिंच लिए जाते है। गवाह की हाजरी के नाम पर एकाध तारीख बढ़ा दी जाती है। १० नवंबर के दिनांक पर, १७०००० से ज्यादा केस गुजरात कोर्ट में पेंडिंग चल रहे है। ११५००० सिविल, लगभग ५४००० क्रिमिनल। अरे कम से कम क्रिमिनल्स की प्रक्रिया तो तेज करो। फेमिली कोर्ट्स में ५४००० केस फैंसले की इन्तेजारी में है, और २३ केस ऐसे जिन्हे दस साल से अधिक वर्ष बीत गए है। इससे अच्छी तो पंचायत थी, तुरंत फेंसला हो जाता था। यह जो एक निरपराधी को बचाने के लिए बाकी हजारो अपराधिओं को ससुराल में बैठे दामाद वाली फेसेलिटिस से तो निकालो कम से कम..! 


हम ही वो है जो पुरुष को उत्पीड़न का शिकार मानने से कतराते है। या फिर सोच भी नहीं सकते। जैसे कभी मेरिटल रेप का सुनते ही नजरअंदाज करते है। मुझे वाकई विचार हो रहे है की वह अतुल सुभाष किन किन स्थितिओ से गुजरा होगा.. उसे क्या अनुभूति हुई होगी जब जज ने कहा होगा, "पांच लाख दे, तेरा सेटलमेंट हो जाएगा.." या फिर वह अनुभव क्या होगा जब जज के सामने ही उसकी पत्नी कहती है कि "तुम आत्महत्या कर लो।" कितना क्रूर सिस्टम है। वह अतुल का दिमाग कितना तेज होगा, या कितना सहनशील होगा की वह आखरी कदम भरने से पहले कितनी सारी प्लानिंग्स करके गया। वही बात हो गई, कि जीते जी जो नहीं बदल पाया, वह मृत्यु के पश्चात वह देख नहीं सकता, कैसे आज भारत के समस्त सोसियल मिडिया पर उसी के चर्चे है। बेंगलुरु पुलिस ने खुदने अतुल की पत्नी पर केस दर्ज किया है। मिडिया अतुल के ससुराल को पूछ पूछ कर उत्पीड़न करेगा, तब उन्हें अतुल पर जो पीड़ा बीती है उसका शायद अनुभव होगा। लेकिन.. अफ़सोस यहाँ लेकिन करके लिखना पड रहा है कि वह अतुल इतनी प्लानिंग करने के बाद आत्महत्या कर रहा है तो बस खाली आत्महत्या चिट्ठी में कुछ गलत लिखकर ना गया हो। वैसे माना तो जाता है की मरनेवाला कभी जूठ नहीं बोलता। पर संदेह हर किसी पर हो तो झांसा टलता है।


खेर, सरकार से भी अनुरोध है कि समानता हो तो वास्तव में समानता हो। यह एट्रोसिटी, आरक्षण, ये बलात्कार के केस, या इस तरफ एलीमोनी का केस हो, वहां थोड़ी जल्द प्रक्रिया हो, जज पर भी एक नियंत्रण का दायरा हो, और कुछ प्रत्यक्ष दंड करो, जो भी जिसे भी शिक्षा हुई उसे थोड़ी महिमामंडित करो, ताकि लोगो को पता चले की इस अपराध का यह दंड है। 


|| अस्तु ||


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