चार्वाक का दर्शन और वर्तमान की विडंबना
चारवाक का यह दर्शन कहता है कि, पियो, पियो, फिर से पियो, जहाँ तक गिर न पड़ो तब तक पियो, गिरे तो उठो और फिर पियो, क्योंकि पुनर्जन्म नही होता है।
क्या पुनर्जन्म की कोई व्यवस्था है?
मैं तो अक्सर कईंयों को कह देता हूं, "अगले जनम में मत टकराना.." क्या वास्तव में ऐसी कोई व्यवस्था होती होगी? जिसे कर्मफल के नाम पर हम पुनर्जन्म या पूर्वजन्म के नाम पर डाल देते है। किसे पता है, मुझे तो इस जन्म का भी पूरा सत्य नही पता है। या मुझे करना क्या है, मेरा उद्देश्य क्या है, या मैं कर क्या रहा हूँ, नही जानता। फिर मैं ज्यादा सोचने पर खुद ही एक निर्णय पर आ जाता हूँ, "जो होगी देखी जाएगी।" हकीकत में जो होती है बाद में उसे पश्चाताप के रूप में ही काटनी पड़ती है। कुछ निर्णय समय रहते न लिए जाए तो वे पीड़ा का पर्याय बनते है। जैसे मैं तुमसे समय रहते कभी कह न सका, प्रियंवदा..!
अभिगम-परिहार संघर्ष: एक मनोवैज्ञानिक जाल
कल एक स्नेही ने बहुत सही सिद्धांत मेरे सर पर फोड़ा। "अभिगम-परिहार संघर्ष" थोड़ा भारी भरखम शब्द है। मुझे भी समझ नही आया था। मनोविज्ञान से जुड़ा सिद्धांत है। अंग्रेजी में पूछा, सोचा थोड़ा सरल हो जाए, लेकिन वह तो और बड़ा हथौड़ा है, "approach - avoidance conflict".. सुनने में या पढ़ने में कितने अच्छे शब्द मालूम होते है। लेकिन भयानक स्थितिपूर्ण है इसका अस्तित्व। मेने काफी गूगल किया इसे समझने के लिए, बड़ी ही कठिन परिभाषा है। स्कूल के दिनों में रटी जाती व्याख्या वाली यादे ताजा हो आई।
नौकरी में प्रमोशन का द्वंद्व
सीधा सिम्पल समजाऊँ तो मानो की नौकरी में प्रमोशन मिल रहा है, पगार 25 हजार से सीधा 50 हजार हो जाएगी, लेकिन रोज दो घंटे काम ज्यादा करना पड़ेगा, और हफ्ते में एकबार दूसरे शहर की रिपोर्टिंग करने भी जाना पड़ेगा। अब वह व्यक्ति को लाभ तो दिख रहा है कि पगार डबल हो रही है। लेकिन नुकसान भी दिख रहे है, काम के घंटे बढ़ गए और शहर से बाहर भी जाना पड़ेगा। अब उसे लगता है कि ऐसा प्रमोशन नही लेना चाहिए। उसे आर्थिक लाभ से ज्यादा प्रभावकारी काम के बोझे का नुकसान लगने लगा है।
उसकी निर्णयशक्ति द्वंद्व में फंस चुकी है। नुकसान उसे आकर्षित कर रहा है, वह सोचता है कि प्रमोशन नही लेना चाहिए, अपना 25 हजार में भी गुजारा चल ही रहा है। लेकिन कुछ समय बाद उसे यह भी लगेगा कि पैसे कितने महत्वपूर्ण है, डबल पैसों से वह और भी इच्छाएं पूरी कर सकता है। बस यही असमंजस वाली स्थिति, जो उसे एक निर्णय पर आने नही देती, सकारात्मक पहलू और नकारात्मक पहलू दोनो के बीच मे कौन सा लाभकारी है यह भी समझ न पाए वह मनोस्थिति हुई 'अभिगम परिहार संघर्ष'… यह उन स्थितियो में ही होता है जहां निर्णय बहुत बदलाव ला सकता है।
विवाह का निर्णय और लाभ-हानि की गणना
अब मान लो कि कार खरीदनी है तो वहां यह स्थिति नही होगी, वहां उसे सिर्फ कौनसी कार लेनी है वही सोचना है। जैसे कोई व्यवसाय शुरू करना है तो वहां ज्यादातर सकारात्मक विचार ही होंगे, नकारात्मक विचार एक ही है फेल होने का। इस लिए वह स्थिति भी अभिगम परिहार संघर्ष की न हुई। एक और उदाहरण गूगल ने बताया, किसी को शादी करनी है, शादी का निर्णय भरपूर अभिगम परिहार संघर्ष की स्थिति का निर्माण करता है। क्योंकि यहां लाभालाभ का दायरा बहुत बड़ा है। जैसे सकारात्मक पक्ष में हो गए एक साथी मिल गया सुखदुख का, नई यादे बनेंगी, या फिर शारीरिक जरूरतों का निर्वाह हो जाएगा।
जब निर्णय खुद पर ही भारी लगने लगे
नकारात्मक पक्ष में आर्थिक घर्षण, बहसबाजी, या फिर ससुराल पक्ष में कोई अनबन..। अब व्यक्ति को निर्णय लेना है कि शादी करनी चाहिए या नही। उसे एक साथी भी चाहिए, लेकिन फिर उस साथी का भी आर्थिक भार उसे सहना होगा। उसे कुछ खुशियां चाहिए, लेकिन शादीसुदा जीवन मे झगड़े भी तो होते है। उसे नवीन जीवन का अनुभव लेना है लेकिन नए रिश्ते कैसे हो वह उसके वश में नही है। अब उसे नकारात्मक पहलू ज्यादा वजनदार लगेगा। फिर वह विवाह करने के विचार से या तो हट जाएगा, या फिर उसे टालते रहेगा। लक्ष्य तक पहुंचने में नकारात्मक पहलू उसे लक्ष्य तक पहुंचने से पहले भटकाता जरूर है।
प्रियंवदा, यह मनोदशा सबके ही साथ होती है, बस उसे कोई जानता नही है। मैं भी कल तक नही जानता था। या आज जान चुका हूं तब भी क्या बदल जाएगा.. तुम तो..
क्या बिना प्रमाण के सत्य अधूरा होता है?
प्रियंवदा ! सत्य को प्रमाणित करने के लिए कोई प्रमाण न हो तो क्या वो सत्य नही होता? मान लो कि मैंने तुम्हें देखा था कहीं, लेकिन कहाँ वो मुझे याद नही। और महीनों बाद मैं तुमसे कहूँ की तुम वहां थी, मेने देखा था। लेकिन तुम कहो कि नही, मैंने तो वो जगह तक नही देखी। अब मैं तो झूठा हो चुका। या फिर अब मुझे यह स्वीकारना होगा कि फिर मुझे भ्रम हुआ हो तुम्हे देखने का..! दोनो ही स्थिति बस साक्ष्य के अभाव से वंचित है। यह एक उदाहरण था, सत्य को प्रमाण की कितनी आवश्यकता है उसे समझने का।
बिना प्रमाण के सत्य का प्रभाव नही है। सत्य यदि देह है तो प्रमाण पैर मानो उसके। प्रमाण के बिना सत्य चल नही पाता। सत्य का अस्तित्व रहेगा लेकिन पंगु सा। जैसा मैं पंगु हूँ, तुम्हारे आकर्षण में। तुम्हारे सत्य को जानता हूँ, पर स्वीकार नही पाता। क्योंकि यही मेरा सत्य है, जो तुम्हे चाहता है, तुम्हारी कामना करता है।
|| अस्तु ||
और हाँ प्रियंवदा... बातों का सिलसिला अगर कभी थमता न दिखे, तो यह भी पढ़ लेना:
बहुत सारी बातें, बहुत सारी चैट्स…
शायद किसी टंकी के पास बैठा कोई पुराना लवेरिया, आज भी किस्सों में ज़िंदा हो…
प्रिय पाठक…
यदि तुम भी कभी किसी “प्रियंवदा” को सोचते-सोचते अपने ही मनोविज्ञान में उलझ गए हो,
यदि निर्णय लेने की जगह तुमने सिर्फ "हम्म" कहा है...
या अगर कभी सत्य को समझने की कोशिश में प्रमाण ढूँढते-ढूँढते थक गए हो —
तो तुम अकेले नहीं हो।
अपने विचार, अपनी उलझन, या बस एक "हम्म" भी हो — नीचे टिप्पणी में छोड़ जाओ।
क्योंकि कभी-कभी, एक अजनबी पाठक ही सबसे अपना हो जाता है।