"प्रियंवदा, ठुमरी, कचौड़ी और एक अदद चायवाला - सर्दियों की डायरी" || I believe more in hope.. || Dilaayari ||

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प्रियंवदा ! ठुमरी, कचौड़ी और चाय – मेरी सर्दियों की डायरी

    प्रियंवदा !


सोमवार की अस्तव्यस्त शुरुआत और ठुमरी की संगत

    आज दिनभर फरीद अय्याज़ को सुनता रहा। लगभग गीत सुन लिए। बहुत दिनों पहले एक रील देखी थी, उसमे वह ठुमरी गीत था। "कन्हैया याद है कुछ भी हमारी.. " कल युटुब स्क्रॉल करते समय सामने आ गया वीडियो। तब से अभी तक यही सुन रहा हूँ।  एक गन्दी आदत लगी है, कोई भी गीत हो, पसंद आ जाए तो लगातार २-३ दिन वही सुनता रहता हूँ। और फिर भूल जाता हूँ। नहीं याद रहते मुझे गाने। कुछ दिन कुछ गीतों की चानक चढ़ती है, और उतनी ही जल्दी उतर भी जाती है। तुम बताओ, क्या तुम्हे भी ठुमरी पसंद है?

कचौड़ियों के बीच – बिहार बनाम मारवाड़

    वैसे तो आज का सोमवार वैसा ही था जैसा हंमेशा होता है। वही रविवार के आलसपन से लड़ने के लिए आया हुआ सोमवार। जैसे आधे दिन की छुट्टी के आधे नशे का अधकचरा हैंगओवर सा सोमवार। या फिर अस्तव्यस्तता को फिर से पटरी पर लाता सोमवार। यही सब बिल्लिंग्स के कामो में उलझा रहा। दोपहर को भूख तो नहीं थी, पर यूँही ऑफिस से छुटकारे के नाम पर ही कचौड़ी खाने चला गया। वैसे कचौड़ियो में भी प्रकार होते है। लेकिन मुझे दो प्रकार पता है। एक है मारवाड़ियों की कचौड़ी, एक बिहारियों की कचौड़ी। 

    सीधा फर्क तो यह है की दोनों की बनावट अलग है, स्वाद भी। मारवाड़ियों वाली का स्वाद अच्छा लगता है मुझे। समोसे बिहारियों के अच्छे है। पिछले कुछ दिनों में लंच समय में शहर के लगभग नास्ते चख लिए है। दाबेली, समोसे, कचौड़ी, दहीपुरी, कड़क, इडली-साम्भर, मेंदूवड़ा, चाट, बर्गर, पावभाजी, मिसलपाव, वडापाव, पिज़ा, और भी है, याद करने बैठु तो सारे ही नाम लिख दूंगा। हाँ जिह्वा चटोरी हो चली थी। अच्छा, यह सब ठूंसने के उपरांत बढ़ता शरीर रोकने के कोई उपाय भी नहीं आजमाता। 

    शायद इसी लिए उस तिब्बती लड़की ने मुझे 3XL जैकेट पकड़ा दिया। और अब बदलने की गुंजाईश न होने के कारन ओवरसाइज़ फैशन के नाम पर पहन रहा हूँ। चुना लगा गई ओ.. शायद तुम्हारी ही तरह। लेकिन तुम्हारा चुना महंगा है, अच्छा भी। अच्छा इस लिए कि यही सब तुम्हारे नाम ही लिख रहा हूँ मैं।

टोपी बहादुर की चाय और अदरक की सौगात

    प्रियंवदा ! जीन बहादुर के बाद नया टोपी बहादुर रखा है। इसका काम अच्छा है। चाय तो ऐसी बनाता है कि कैसे बखानू? बिलकुल मुझे चाहिए वैसी ही कड़क। चीनी कम, पत्ती ज्यादा, थोड़ी काली, लेकिन रोम रोम में जागृति ला देती है। तुम्हारी यादो को पल्ले में झटक देती है इसकी चाय। तुम्हे जलन तो नहीं हो रही होगी? दोपहर में वह अपने लिए खाना बनाता, और भूख मेरी जागृत हो उठती है। सबसे बढ़िया तो यह है कि अब उसके एक बार ही कहने पर मैं अदरक के लिए १०० रूपये दे सकता हूँ। और क्या चाहिए एक आदमी को प्रियंवदा, पिने के लिए चाय है, लिखने के लिए तुम हो। 

    बाहर ठण्ड है, लेकिन ऑफिस में शर्ट की बाजू चढ़ा लेनी पड़ती है। अभी सर्दियों ने भरपूर कहर ढाया नहीं है। तुम बताओ, तुम्हारे क्या चल रहा है। पूछ तो ऐसे रहा हूँ जैसे तुम्हारा प्रत्युत्तर आएगा। लेकिन क्या करूँ? पुरुष हूँ। आशा में कुछ अधिक ही विश्वास रखता हूँ। 

    दिनांक : २३/१२/२०२४, १९:१०

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक,
अगर प्रियंवदा की स्मृतियों में डूबते हुए आपको भी किसी चाय वाले की याद आ गई हो, या किसी ठुमरी ने छू लिया हो मन… तो नीचे कॉमेंट करें। और अगर अब तक आपने मेरी डायरी चार आँखें कब तक? नहीं पढ़ी है — तो यक़ीन मानिए, वह भी इसी ठण्ड के ताप में लिखी गई थी।

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