मैं ओवरथिंकर हूँ, तो सोचता हूँ। आज से बीसेक साल बाद उस लड़की का क्या होगा, जब उसकी कोख से जन्मे बच्चे जानेंगे की उसकी माँ सोसियल मिडिया पर छोटे कपड़ो में नाचती थी, या श्वान का स्तनपान करती थी। अरे उस बच्चे पर क्या बीतेगी, जिसकी माँ ने कपड़े उतारे है। भगवान करे ऐसा बच्चा पृथ्वी पर ही न आए। भला कोई इस दो-मुंहे समाज के ताने कैसे सह पाए? जैसे गालियो का सामान्यकरण हुआ, कपड़ो में सिकुड़न आई, उससे याद आया, दिल्ली में एक लड़की सिर्फ अंतःवस्त्रो में लोगो के इंटरव्यू लेते वायरल हुई थी। वास्तव में उनके परिजन की तरफ से उन्हें इतनी छूट कैसे हो सकती है? समय रैना के शो में एक लड़की आई थी। शो में उनका स्टेज परफॉर्मेंस था, परफॉर्मेंस के नाम पर अच्छी भली एक ड्रेस को कैंची से जगह जगह पर काटकर थोड़ा मॉडिफाय करना था। लड़की के आया लड़का, जो लड़की के ड्रेस को फैशन के नाम पर काट रहा था, वह विधर्मी था। और वह लड़की यह पर्फोर्मांस करने के लिए अपने पति को बिना बताए आई थी। स्वच्छंदता की सारी सीमाए लांघ दी गई। कितना अजीब है, एक पत्नी है, एक बच्चे की माँ है वो, और करती क्या है, स्टेज पर अपनी ड्रेस कटवाना। टेलेंट के नाम पर यह सारी नैतिकता को तार तार करना था। उस पति पर क्या बीती होगी? जिसकी पत्नी किसी और पुरुष से अपने शरीर के उन हिस्सों से कपडा कटवा रही हो जहाँ या तो उसके पति का हक है, या उसके बालक का। फिर सोचता हूँ कि इसी भूमि पर कुछ स्त्रियां सिर्फ इसी लिए जलकर स्वर्ग चली गई की कोई उसके मृतदेह को भी न देख सके..! कुछ स्त्रियों ने इस लिए कुँए में कूदकर जल-जौहर कर लिया कि उनका जो शत्रु है उसमे नैतिक की एक बून्द भी नहीं है। वह स्त्रियों को दासी और गुलाम समझता है। जबकि यहाँ की एक एक स्त्री साम्राज्ञी के कम न थी। उसी दौर के बाद से स्त्रियां पिछड़ती गई। और फिर आज समय आया, चरित्र का निर्माण करने वाली, स्वयं ही चरित्रहीनता का परिचय देते हुए सॉसियल मिडिया पर गंध मचा रही है। फिर तो वे लोग भी कैसे गलत कहे जाए जो कहते है, नारी नारायणी नहीं है।
सोसियल मिडिया तब तक अच्छा है, जब तक उसे मात्र मनोरंजन के हेतु उपयोग में लिया, जाए तथा इससे कुछ सीखा न जाए। सिखने को बहुत कुछ उसके पास उपलब्ध है। पर जो नहीं सीखना होता है, अक्सर वही सिख लेते है लोग। जैसे अर्धनग्नता, जैसे अपशब्द, जैसे अपमान। अपने यहाँ 'तू' कहने पर कभी युद्ध खेले गए है। अपने यहाँ गाली भी कितनी सभ्य थी, "हिंगतोल" यह वास्तव में गाली है भी और नहीं भी। इसका शाब्दिक अर्थ होता है, जो हींग तोलता है। हींग तोलना कोई बुरी बात नहीं। पर जब वीरता की बात आती है तो कभी भी अगर किसी से तुलना की जाती तो उसे यह गाली स्वरुप में कहा जाता। और आज की गालिया... सात पुश्ते लपेट ली जाती है गालियों के नाम पर। पुरुष तो पुरुष, स्त्रियां भी इन गालियों का बड़ा खतरनाख उपयोग करती है, जिसमे किसी स्त्री जाती को ही कुछ बुरा कहा गया हो। गालियां बस अपना क्रोध व्यक्त करने का साधन है। लेकिन उनका भी एक दायरा हो, एक सीमाबन्द हो तो बहुत अच्छा। हालाँकि कुछ शब्द है, भाषाकीय भूल-भुलैया से, एक भाषा में अपशब्द है, दूसरी भाषा में वह एक सामान्य बोलचाल का शब्द है। दक्षिण की भाषाओ के बहुत से शब्द हिंदी में गाली है। गुजराती के कुछ शब्द हिंदी में गाली है। उन गालियों की उच्चतम श्रेणी आज मेरी और से उन्हें समर्पित जो आज सॉसियल मिडिया पर बस फेमस होने के नाम पर कुछ भी अभद्र कर रहे है। फिर यही वे ग्लेशियर कल पिघलते हो तो अच्छा है आज ही पिघल जाए। moab कल कही गिरता हो तो आज गिर कर पूरी पृथ्वी का विनाश कर दे। क्योंकि संतुलन बनाने के नाम पर मार-काट आज भी जारी है। अपमान के प्रतिशोध के नाम पर, या विस्तरण के नाम पर कल रात इजराइल के फेंके एक बम में रिक्टर स्केल पर ३ मैग्नीट्यूड का भूकंप ही भले आ जाए। या फिर आज सोलह दिसंबर को बड़बोली पाकिस्तानी सेना से नाक ही क्यों न रगड़वाई हो पर आज भी उनके सोसियल मीडिया के बनावटी शेर अपनी मिसाइलों का गाज़ी नाम रखकर फख्र अनुभवते है। अबे उस गाजी ने ही तुम्हे अब्दुल या गफार बनाया है। मुहम्मद अली जिन्ना के दादा खुद झीणाभाई ठक्कर थे।
सो बात की एक बात, ९३००० को सरेंडर करवाना भी कोई आसान काम नहीं। अब आप कहो की सोशल मीडिया से पाकिस्तान पर कहाँ पहुँच गए तो कुछ तर्क बनाना पड़ेगा, रुको.. हाँ मिल गया तर्क.. देखो सोसियल मिडिया पर भी मुजरा चल रहा है। और उन ९३००० ने भी अपनी बंदूके भारतीय फ़ौज के चरणों में रखकर तीन बार कुर्निश / मुजरा तो किया ही होगा? नहीं किया हो तो मैं कल्पना तो कर ही सकता हूँ, कैसे ९३००० ने एक साथ झुककर अपना दांया हाथ अपने सर तक ले जाते हुए कहा होगा, "बाप बाप ही होता है।"
चलो यार, बहुत निंदा हो गई.. बहुत गालिया दे दी मैंने भी।