प्रियंवदा !
हंमेशा की तरह व्यस्त ही होगी तुम? मैं नहीं हूँ.. सर्दियाँ, चाय, ठण्ड, अंगीठी और व्हिस्की...! यह सर्दियाँ सदा से मुझे परेशान करती आयी है। परेशान से मतलब है तुम्हारी यादो के समंदर में छोड़ आती है। खारा समंदर। उठाकर पटकता समंदर। अपने गर्त तक ले जाता समंदर। धुप कैसे सेंक पाउँगा मैं, दिनभर तो ऑफिस की पपडियां गिरती दीवारों के मध्य गुजर जाता है मेरा, खिड़की से देखने पर बड़ी दूर धुप दिखती है, तुम्हारी तरह, बहुत दूर। हाँ तुम्हारी अपनी व्यस्तताएं है। मेरी भी है।
यह सर्दियों की ठंडी हवाएं, पूरब से आती हुई जैसे तुम्हारा सन्देश लाती है। तुम्हारी उंगलियों का स्पर्श पाकर खिली कलियों की मीठी सुगंध। बरसो से खड़े इस नीम की शाखाएं झूलती है, और कुछ पंछी फड़फड़ा उठते है, और शाखा बदल लेते है। एक गिलहरी है, कूदती हुई, इस शाखा से उस शाखा तक। और एक बुलबुल.. गुंजन करता हुआ, जैसे एक ही स्मरण कर रहा है, प्रियंवदा.. प्रियंवदा.. प्रियंवदा..! पवनो की गति धुल उड़ाती है। और वह रज आकर जम जाती है वहां, जहाँ उसे नहीं पहुंचना चाहिए था। मेरी चिठ्ठी में, मेरे सन्देश के प्रत्येक शब्द में तुम्हारा बसेरा है। शायद इसी लिए मेरे शब्द तुम तक नहीं पहुँचते। भला तुम ही तुम से कैसे मिलो? क्यों मिलो? मेरे शब्दों से तो शायद कभी ही नहीं। क्यों? क्योंकि मैं नहीं चाहता। नहीं, नहीं, मैं चाहता हूँ। एक बार तो हम मिले.. फिर से किसी मंदिर पर। कुछ देर बैठे। कुछ स्मृतियाँ नई बने। वे जमी हुई रज छंट जाए। और वहां उस शाखा को नया बल मिले। पुनः अपने आश्रितों को छाँव देने लायक बने। कम से कम।
कल रात्रि, मैदान में बैठे हुए, तुम्हारे ही विषय में सोच रहा था। यह फोन अच्छा है। वह चेहरा दिखा सकता है। कल्पनाओ से मिलता हुआ। खोज देता है, किसी को, जो कभी सामने हुआ करते थे। कोई पर्दा नहीं, कोई दूरी नहीं, चार आँखे न जाने कितनी देर तक स्थिर रह सकती है। कोई मापदंड बना नहीं है, न ही बन पाएगा। आँखों की स्थिरता बहुत कुछ कह जाती है, मुंह खोले बिना ही। बस एक नन्हे से स्मित से। वह स्मित, जो लाल नहीं, गुलाबी पंखुड़ियों से बनता था। और उन पंखुड़ियों के किनारे से कुछ ही दूरी पर जलाशय निर्माण होता। उस जलाशय ने भी किसी दिन पानी भरा हो, खारा पानी। लेकिन रहा जा सकता है, प्यासा, पानी के सामने ही, मृगजल के सामने ही।
कैसे? जैसे मैं रहा हूँ। जैसे मैं रहता हूँ। जैसे मैं रहूँगा। स्नेह को सांधता सदा ही। इतनी बार सांध सकता हूँ, कि भले ही श्यामवर्ण हो जाए। जैसे जला हो कुछ। अधजली लकड़ी का अवशेष। उन दिनों से लेकर आजतक जलता हुआ स्नेह। और उस अग्नि से यह ठंडी दूर करने के विश्वामित्र सा प्रयासों में रत मैं।
हम थे स्याही की सुगंध से जीने वाले।
- चाँद
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