प्रियंवदा..! आज आकाश में चंद्र, गुरु और यूरेनस एक रेख में आए है.. और एक तुम हो.. जिसे देखना ही जैसे असंभव हो चुका है। हाँ मैं जानता हूं कि हमारे बीच इतने फासले है जिन्हें मिटाना असंभव है, पर इतनी भी क्या कठोरता बरतना? क्या मैं तुम्हे देख भी न पाऊँ? मैं तो वहीं हूँ जहाँ तब था, हाँ बदल बहुत गया हूँ। समय की मार खा खा कर। वे स्वप्न कभी सच न हुए, दिन में देखे थे, शायद इसी लिए। खुली आंखों के स्वप्न। दिवास्वप्न। अब तुम शायद कहो कि बीत गया वह भूल जाओ.. लेकिन कैसे, और क्यों? क्या मेरे ख्वाबो पर भी मेरा अधिकार नहीं? अब तो मुझे वे ख्याल भी आते है कि सचमे तुमने कभी भी मुझे याद भी किया होगा? तब भी तुम्हारी कुछ महत्वाकांक्षाएं थी, आज भी अवश्य ही होगी.. शायद मै जानता हूँ तुम्हे। या बस मेरा तुम्हे जानना भी एकतरफा था। नही था। एकतरफा नही था। फिर तुम मुझसे दूर क्यों हो? नैतिकता सदैव थी। आज भी है, शायद यही एकमात्र कारण है, तुम सदैव सामने हो लेकिन दूरियां भी अपना परिचय बनाए हुए है। ऐसी दूरी जितनी शनि के अपने वलयो से है। शनि से साथ बने वलय एक निश्चित दूरी बनाए हुए है। सदैव साथ…फिर भी दूर।
मैं तो विधाता से भी अब रूठता नही। शायद उससे शत्रुता मैंने सच मान ली है। हाथ आया पर मुंह को न लगा। शुरू से यही एक सिद्धांत मेरा परममित्र है। वो कवि की कविता सच थी, मैं दरख़्त हूँ, तुम राही.. कई बातें है जिन्हें पर्दे में कैद रखना पड़ता है। वही नैतिकता। अब वे गाने भी मैं भूल चुका हूं, जिन्हें मैं अक्सर गुनगुनाता था। समय बहुत सी बातें भूला देता है.. सारी नही। समय को ऐसे ही सर्वशक्तिमान होने का उपनाम नही मिला है।
यह जलती अग्नि शीतलता भगाती है, पर ठंडे पड़े ह्रदय को ऊष्मा देने में अक्षम है। उस आंतरिक हिम को पिघलाने में तो सौरुष्मा भी अक्षम ही अनुभवता हूँ। उसे कलुषितता क्यों न कहूँ.. जब जानता हूं, अब बहुत कुछ असंभव है, पर मान नही पाता। यहां मन और ह्रदय दोनो ही एक पक्ष में बैठ जाते है जब तुम्हारी बात आती है प्रियंवदा ! वरना यह मन और ह्रदय का एक पाले में ला पाना भी विश्वविजय से कम नही.. एक तुम्हे छोड़कर यह सदैव ही एक दूसरे की और पीठ दिखाकर बैठे मालूम पड़ते है। पर जब भी तुम्हारी याद आती है, दोनो ही परमसखा कि भांति तुम्हारे वर्णनों को लालायित हो उठते है। पर अफसोस.. तुमने ही एक दूरी बनाए रखी है। कम से कम तुम्हारे नित्यदर्शन का तो हक हो मुझे? क्या मेरी इतनी कामना भी अनैतिक है? मेने चंद्र की भांति तुम्हारी परिक्रमा की है। तुम्हारे उस स्वरूप की, जो अंकित है, कुछ वर्षों के नित्यक्रम की..! वहीं मंदिर, जहां हम कुछ देर साथ होते.. फिर मैं उन स्मृतियों को इस प्रियंवदा को सोंपने के लिए ह्रदय का एक खंड भरता था। वह कूप है। कभी खाली नही होता, पूरा भर भी नही पाया। कभी सूखा भी नही वह।
प्रियंवदा.. बस इतना मान लो.. भले दूर रहो, बस दूर मत करो।