आज भी कुछ पढ़ने आए हो तो धक्का ही खाओगे..! क्योंकि शायद शून्यमनस्कता छाई, न ही कुछ quality वाला लिखा जा रहा है, न ही कुछ quantity वाला..! सब तुम्हारी मेहरबानी है प्रियम्वदा..!
फिर एक शब्द दिमाग में आया, आया क्या वैसे किसी ने ठुंसाया.. कहा, वैसे भी तुम्हे आदत लगी है, कुछ चर्चा-विचारणा के पश्चात ही लिखने की तो लिखो 'अपराजिता' पर.. कितना बढ़िया शब्द है ना.. "अपराजिता" जिसे कोई पराजित नहीं कर सकता। जो सदैव से अविजित है। जैसे इच्छाए.. (आज तो वो भी किसी और ने ही कहा है...) इच्छाए सदा से अविजित ही रही है। क्योंकि इच्छाओं पर विजय पाना शायद सबसे कठिन काम है। इच्छाए अनंत है, एक के पश्चात एक टोकरी में भरे मेंढ़को की भांति उछल उछल कर सामने आया करती है। एक अभी पूरी हुई हो या नहीं तब तक तो दूसरी इच्छा बिनमाँगे ही खड़ी हो जाती है। अब उसके पीछे भागो.. शायद इसी में जीवन निकल जाता है। और जब कभी भी इन इच्छाओ से थोड़ी फुरसत मिले तब याद आती है वो पहली इच्छा... जिसकी तो अब बस D.P. ही दिखती है। (देखो इसे कहते है अचानक से बात को मोड़ना..) खेर, इच्छाओ के पश्चात एक और अपराजित होती है, वो है भावनाए.. (यह भी मेरा विचार नहीं है, उधारी है किसी की।) यूँ तो भावना हमारी होती है, मतलब उनपर हमारा अधिकार होता है, लेकिन भावना खुद मनमौजी है। वो भावना की अपनी इच्छा भी होती है, की उसे क्या चाहिए। (देखिये कैसे कनेक्टिंग हो रहा है..) अब भावना की इच्छा है कि उसे किसी से आहत होना है, तो किसी के पलक झपकाने को आँख मारना कहकर भी आहत हो जाए.. और किसी को भरे बजार रुसवा कर दे... भावना अकेली भी सामर्थ्यवान है, और यदि सामूहिक भावना है फिर तो बात ही खत्म... सामूहिक भावना किसी हाइजेक हुए प्लेन के दोसो लोग बचाने के लिए दस आतंकवादी छुड़वा देती है। क्योंकि सामूहिक भावना की सोचने की क्षमता तो होती ही नहीं है। बस भावना है, तो उसकी आपूर्ति होनी चाहिए। भविष्य में क्या परिणाम आएगा उसे कोई मतलब नहीं। वर्तमान की भावना को वर्तमान के ही उचित-अनुचित से मतलब होता है। फिर चाहे मसूद अज़हर जैसा आज कितने की ही लोगो की जान लेले।
अपराजिता एक पुष्प भी है। (यह भी मुझे नहीं पता था। मतलब देखा हुआ था, लेकिन नाम से नहीं जानता।) यह अपराजिता पुष्प में भी वही सामूहिक भावना वाला मामला अब मुझे लग रहा है। (आज सब कुछ कनेक्ट ही करना है आपस में।) आजकल यह पुष्प के बीज ऑनलाइन बिकते है, लोग घर में लगाते है, या घर के पास गार्डन में। अपराजिता के आयुर्वेद मूल्य अपनी जगह है। लेकिन यह पौधा वैसे तो गाँवो की तरफ यूँ की खेतो की बाड़ में ऐसे ही उगा मिलता है। लेकिन शहरो में अब घर पर भी लगाया जाता है। शौक है अपने। वैसे पुष्पों में क्या तेरा-मेरा। यह तो आज लिखने के लिए कुछ नहीं सूझ रहा था तो सोचा यही सब लिख दूँ बाकी मैंने तो आपको पहले ही कहा था, धक्का खाया है।
आजकल छतो पर गार्डनिंग का जमाना है। लोग गमले लगाते है ढेर सारे। एक ने तो मोटी ८-९ की pvc पाइप लगाई है। अंदर मिटटी भर दी अब भिंडी उतारता है। मुझे शौक बड़ा है पौधे लगाने का, लेकिन उसके पीछे जो मेहनत करनी पड़ती है वो अपन से नहीं होती। (वैसे यह बहाना है, पता नहीं कहाँ चूक हो जाती है, पौधे उगते नहीं।) मेरे यहाँ एक महामेहनत से उगाया बिली (बिल्वपत्र), कुछ अपनी इच्छा और उगने की भावना से अपने आप उग आए एलोवेरा, और एक पिली कनेर का पेड़ लगा है। जो मेरी गाडी को छाँव भी देता है। और कुछ फूल, जो मुझे बिलकुल ही पसंद नहीं आते। इच्छा तो अपनी भी होती है कि एकाध जासूद, चम्पा-चमेली, हजारी लगाया जाए, लेकिन वही बात, इच्छा, भावना अपराजिता.. और आलस्य भी..!!!