घर में पाँव न टिकना.. | दिलायरी || not being able to stay at home.. | Dilaayari ||

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कितना आश्चर्य और सुखद होता है वो क्षण जब हमारे मुंह से किसी का नाम निकले और वह व्यक्ति प्रकट हो जाए, या उनकी कोई खबर मिले। फिर ज्यादातर तो हम यही कहते कि, "बड़ी लम्बी उम्र है आपकी।" होता है, दिन में एकाध बार तो यह हो ही जाता है। अच्छा यह व्यक्तित्व पर भी तो निर्भर करता है। किसी की बुराई कर रहे हो और तब वह प्रकट हो जाए तो फिर फुसफुसाते हम ही कहते है कि, "नक्की कालीचौदस की पैदाइश है।" लेकिन अच्छा व्यक्ति, हो तारीफे कर रहे हो तब लम्बी उम्र की बात हो जाती है। बड़ा अजीब है यह सब। हमारा अपने मन अनुसार किसी की निजता में दखल देना। 



प्रियंवदा, एक और विडंबना है। कभी तो काव्य लिखना वो भी छंद में, बड़ा आसान लगता है। और कभी कभी वही इतना कठिन की जैसे दो पंक्तियों की स्फुरणा तो दूर है, लिखी भी नहीं जाती। एक मित्र ने इंस्टा में 'लौटना' विषय पर कविता लिखने को कहा। आज सुबह से ऑफिस के कामो में इतनी व्यस्तता हो चली की और कहीं ध्यान ही न गया। सुबह ऑफिस पहुँचते ही बीते कल के कुछ पेन्डिंग्स निपटाने पड़े। लगभग साढ़े बारह तक यही सब चला। खांचे-खुचे से समय निकालकर इंस्टा पर स्टोरी लगाना और एक स्नेही को भेजना, बस इतना ही हो पाया। दोपहर को २-३ बस धूप में बैठा, हवा बहुत तेज चलती है, सूर्यनारायण का प्रकाश भी पूर्णतः पहुँचता नहीं है, पूरी धुंध भी नहीं छायी है और बादल भी नहीं है, बड़ा ही विचित्र मौसम है। लेकिन मेरी पसंद का है। हवा थोड़ी तेज हो तो बड़ा मजा आता है। धूल की ड़मरिया उड़ती हो, ठण्ड की सिसकिया न उठे तो फिर सर्दियाँ कैसी? अभी तो दिनभर आग सेंकता बैठा रहना पड़े उतना मौसम भी आया नहीं। फिर लगभग दोपहर की उस धूप ने कुछ उर्जासंचार किया, वैसे २ दिन की कुछ कुछ मिनिटो में लिखी गई है वह कविता। वही छंद वसन्ततिलका। तभजजगागा। चार चार के दो अन्तरे और २ पंक्तिया पूर्णाहुति की। ठीक ठाक लगी है मुझ स्वयं को भी। और भेज दी उन्हें जिन्होंने लिखवाई थी। खेर, वह कविता प्रतियोगिता है, और मुझे जरा भी आशा नहीं है कि मेरी कविता चयनित हो।


वैसे आज फोन बहुत कम चलाया है। किसी की गैरहाजरी को हमे भी पूरी करनी होती है। किसी से हिसाब मिलाते है न तब बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है। वो भी तब जब हिसाब लंबा हो, और कलमे ज्यादा। हिसाब किताब में हर किसी पर संदेह जायज है वैसे। स्वयं पर भी। क्योंकि एक छोटी सी गलती बहुत पन्ने पलटवाती है। हिसाब किसी से भी लंबा नहीं खींचना चाहिए। एक तो संदेह का दायरा भी बढ़ जाता है, और मिलाते समय मेहनत बड़ी लगती है। लगभग दो घंटे लगे २ महीने का हिसाब मिलाने में। दो महीने पहले का भाव याद करना, और अंत में डिस्काउंट के नाम पर जब राउण्ड ऑफ़ ही करना हो तब लगता है की दो घंटे बर्बाद क्यों किये? लेकिन वही बात है। कलम अपनी जगह है, व्यवहार और डिस्काउंट अपनी जगह। शाम होते होते अभी ऊर्जाहीन अनुभव कर रहा हूँ। वैसे शाम क्यों कह रहा हूँ मैं, आठ बज रहे है रात के। कुछ बाते मेरी बायडिफ़ॉल्ट होती है। घर नहीं पंहुचता तब तक मेरी रात नहीं होती।


अभी लौट रहा हूँ, घर। और एक गन्दी आदत पाल ली है, जिसे कहते है घर में पाँव न टिकना। भोजन के पश्चात तुरंत ही चौक में। अगर कोई मित्र आ चढ़ा तो ठीक है, वरना अकेले बैठना, लकडिया जलाना, स्टोरीज़ चढ़ाना, थोड़ी देर किसी से चैटिंग, या फिर बस अग्नि की लपटों की निहारते रहना, हवा के साथ झूमती लपटे, दसो दिशाओ में घूमती लपटे। रंगो को बिखेरती लपटे। ऊर्जा से भरपूर लपटे। ख्यालो में खोने का मार्ग दिखाती लपटे। स्थिरता-एकाग्रता को जागृत करती झूमती लपटे। और एकांत... बस एकांत.. चाहिए वही एकांत। 


और गाना, दिनभर वही, "मेरा पिया घर आया, हो लाल जी.." बस तुमसे कब मुलाकात होगी प्रियंवदा..?

(२७/१२/२०२४, १०:१५)


|| अस्तु ||


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