दिलायरी की डींगें जरा ध्यान से पढियेगा... | दिलायरी || Dilaayari...

0

पधारिए प्रभु, दिलायरी की डींगें जरा ध्यान से पढियेगा।



हररोज तो सुबह से ही शुभस्य शुरुआत होती है, आज थोड़ी और जल्दी करते है। कल रात को विषय सोचते सोचते आखिरकार किसी को मैसेज कर दिया, कि भई अपनी तो बुद्धि बेर मार गई है, कोई टॉपिक बता दो लिखने के लिए, लेकिन फिर मैं भी सो ही गया था। आज सुबह साढ़े पांच से फोन चीख चीख कर मुझे जगाना चाह रहा था। मैंने कितनी बार उसे स्नूज़ किया है मुझे स्वयं याद नही है। फिर भी सात बजे शायद जाग गया था, क्योंकि मातृश्री को ग्यारस के कारण मंदिर जाना था। मॉर्निंग वॉक तो अपन करते नही, नहाधोकर ऑफिस पहुंचते हुए लगभग नौ बजे गए थे। 


ऋण में डूबना कितना आसान है, आजकल में किसी से विषय बहुत उधार मांगता हूं। ऊपर से उनसे ईर्ष्या भी खूब होती है, सौहार्द वाली ईर्ष्या। ऐसा है, लोगो का किसी बात को देखने समझने का एक दृष्टिकोण होता है। आज जो नव उपनिवेशकवाद का विस्तृतिकरण किया वो किसी और का ऋण ही तो चढ़ाया है मैंने। अब भले किसी दिन मैं उनका उपनिवेश बन जाऊं तो ऋण है तो है। किसी से एक आत्मीयता सी बंध जाती है। और वह आत्मीयता ऐसी होती है जहाँ निश्छल भाव मात्र होता है। एक सहायता भाव। आजतक उपकारभाव नही दिखा मुझे। वरना हर बात में किसी को डिस्टर्ब करना आज के समय मे बड़ा अजीब और चेपु भी माना जाता है। तो वह नव उपनिवेशवाद के सिद्धांत को रोजिन्दा व्यवहारिक दृष्टिकोण से किसी की सहायता से देखा। फिर लिखने.. नही.. फेकमबाजी में तो अपनी कलम पीछे हटती नही, आगे ही बढ़ती रहती है। शाम छह बजे ब्लॉगपोस्ट पब्लिश भी कर दी। दोपहर को कुछ भी न खाया था। शाम होते होते बहादुर के किचन से छोंक की आती खुशबो जठराग्नि को उदीप्त करने लगी। पाककला में निपुण है शायद यह बहादुर। दोपहर को और शाम को, दिन में दो बार किचन से आती खुशबू मन और पेट दोनो मोह लेती है। ख्याल आता है कि इसका मामला उल्टा होगा, इसकी शादी होगी तो बीवी बड़ी राजी रहेगी, खाना तो यह शायद उससे भी अच्छा पकाएगा। कभी कभी तो लगता है, सारे रस, सारे भाव भोजन में ही आकर समाहित होते है। तुम्हे क्या लगता है प्रियंवदा?


सवा आठ को घर लौट रहा था, तब एक फोन आया, चालू मोटरसायकल पर ही उठाया। सामने से आती आवाज तो नही पहचान पाया, लेकिन उसने एक बार मे ही बताए नाम से पहचान गया। होस्टेलमेट था मेरा। हाँ, क्लासमेट तो नही कह सकते क्योंकि मैं कॉम्प्यूटर इंजीनियरिंग में था, वो आर्किटेक्ट में। लगभग दस साल हो गए पढ़ाई छोड़ी, होस्टल छोड़ा उसे। आज अचानक फोन आते ही मिलना नक्की हुआ। बाजू के शहर में ही आया है। एक जगह मिलना नक्की हुआ। मैं खाना-पीना कर मोटरसायकल को सेल्फ मार ही रहा था कि ख्याल आया कि एक बार पूछ लूं, वो पहुंचा की नही? दोस्त की आदतों से वाकिफ न हो तो दोस्ती कैसी? ऊपर से यह ठंड.. और बीस किलोमीटर का रास्ता.. फोन उठाते ही बोला, 'कल पर रख भाई..' और मैने भी हामी भर ली। अभी यह दिलायरी लिखते हुए होस्टल के दिन बहुत याद आ रहे है। एक रूम, चार बेड। मोबाइल नॉट एलौउड़, इस लिए थ्रिपिन प्लग ही नही होता था रूम में। प्लग होगा तो फोन की बैटरी चार्ज होगी ना। लेकिन हम ट्यूबलाइट की तारे तोड़कर वहां चार्जर लगा लेते। "g.c." होस्टल वाले या इंजिनयरिंग वाले यह दो अल्फाबेट कैसे भूल सकते है। g.c. माने ग्लास कॉपी। कोई भी फील्ड का इंजीनियर बनने से होस्टल के रूम में रहते लोग इलेक्ट्रिक इंजीनियर तो जरूर ही बन गए थे। वरना ग्लास कॉपी कैसे करते? ब्लेड और दो वायर से वोटर हीटर बनाने की प्रक्रिया होस्टल वाले चुटकी बजाते कर देते। सात दिन तक नहाए बिना रहना, वो भी बिना महके.. घर से आए हुए का नाश्ता, और डियोड्रेंट उसी शाम या रात होते तक खत्म न हो जाए तो होस्टल लाइफ है ही नही वो। और उससे भी बड़ी बात, नए आए हुए लड़को को यदि उसके रूम में पिछले साल ही कोई सुइसाइड करके मर गया था कहकर डराया नही, तब तो हो गई होस्टल लाइफ। चोरी कहाँ होती है होस्टल में, खुली लूट हुआ करती थी हमारे समय मे तो। घड़ी मेरी, बूट सबके, मौजे.. वो क्या होते है? होते है तो बस एकाध दिन ही अपने होते है। फिर तो कहां जाते है किसे पता..! 


प्रियंवदा ! प्रकृति खूब इशारे देती है, लेकिन कई बार हम समझते हुए भी आजमा नही पाते। शाम को एक पार्टी के साथ बैठे हुए प्रयाग की ही चर्चा हो रही थी। उसने कहा भी, चलते हो तो चलो। न्यौते खूब आ रहे है। लेकिन उन न्यौतो को निभा नही सकता मैं। 


वैसे आज भी सारे दिन दाएं कान में ब्लूटूथ लगाकर एक ही गाना लूप में लगाकर सुनता रहा। 


"बहोत खूबसूरत है, हर बात लेकिन,

अगर दिल भी होता तो क्या बात होती,

लिखी जाती फिर दास्ताँ-ए-मोहब्बत,

एक अफसाने जैसी मुलाकात होती..


हुज़ूर इस कदर भी ना इतराके चलिए,

खुले आम आँचल ना लहरा के चलिए"


(२६/१२/२०२४, २२:२८)


|| अस्तु ||


Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)