आज छह दिसंबर को ही एक कालिख मिटाई गई थी... || on 6th December...

0

देखो ज्ञान का और उम्र का कोई मेल नहीं है। अपने से छोटे है वे कई मुद्दों पर अपने से ज्यादा ज्ञान रखते है। सिखने में कैसी शर्म? अपने से दस साल छोटो के पास दस साल की आधुनिकता का ज्ञान अपने से अधिक पाया जाता है। क्योंकि उनके लिए वो ही था, और हमारे लिए वो बदलाव का संघर्ष था। बहुत सी ऐसी बाते होती है, जो नई सिखने मिलती है। बहुत सी बाते हम भी सीखा सकते है। इसी लिए तो कहा गया है ज्ञान बांटने से बढ़ता है। दो समान विचारधारा वाले हो, वे बड़ी जल्दी समझ सकते है। क्योंकि उदाहरण देने का तरीका भी मिलताझुलता होता है। बहुत सारी समानताए हो तो नजदीकियां भी बढ़ती है। 



लालसा तो होती है। बहुत सी होती है मुझे भी। खासकर पैसो की। देखो भाई, जिसके पास जो न हो उसे वही चाहिए होता है। मैंने पैसे और प्रेम दोनों को नहीं देखा है। प्रेम से तो अब मैं शायद ऊपर उठ चूका हूँ, क्योंकि वास्तविकता से घिरा रहता हूँ। पैसो की लालसा को मैं लालसा नहीं मानता, क्योंकि यह एक ऐसी वस्तु है, जिसके बारे मैं सब बुरा बोलते है, लेकिन इसके बिना एक कदम भी संभवित नहीं। बुरा और भला, यह दोनों बात लोग तभी करते है जब जैसी स्थिति होती है। मैं पैसो को तब बुरा कहूंगा जब पैसे है पर मेरे उपयोग में नहीं आएँगे। और जब उपयोग साध्य है, और पैसे नहीं हो तब मैं उसकी भलमनसाई के गुणगान करूँगा। सिम्पल फंडा है, पैसे है तो प्रतिष्ठा है, पद-वाले आपकी मुट्ठी में रह सकते है, प्रेम का क्या है, पैसे हो तो लोग अपने आप व्यक्त करते है, ध्यान-संभाल रखते है। यही वास्तविकता है, वो जो नैतिकता और नीतिमत्ता, दृढ़ता है वे सब अपवाद है, कोई एकाध दिख जाए तो दर्शन कर आगे बढ़ जाना चाहिए। बाकी दुनिया पैसो की वास्तविकता को अच्छे से स्वीकारती है। गुजराती में कहावत है, 'नाणा विनानो नाथियो, नाणे नाथालाल' - नाणा मतलब पैसा, पैसे नहीं है तो लोग उसे नाथियो - नाथो कहकर बुलाते है, लेकिन उसी के पास संपत्ति आ जाए तो वही लोग उसे नाथालाल कहकर बुलाएंगे। संपत्ति का सम्मान है।


एक गाँव था, गाँव की सीमापर कुछ दिनों से एक साधु आकर रुका हुआ था.. भजनीक साधु। गांववालों को कुछ आस्था हुई तो साधुमहाराज को एक झोंपड़ी बाँध दी। शाम को साधु भजन करते, लोग सुनने को आते। साधु अच्छी अच्छी बाते करते, लोग बड़े राजी होते। गाँव वालो को ऐसा लगता था कि जैसे साधु महाराज उन सबके अपने है, उन्ही में से एक हो ऐसी आत्मीयता बंध गई। कुछ दिनों बाद एक रात को गाँव के कुछ वे लोग जो गांव में साधु की बढ़ती प्रतिष्ठा के ईर्ष्यालु हो चुके थे, ऐसे चार लोगो ने एक रात को साधु की झोंपड़ी में प्रवेश किया। साधु सो रहे थे, तो इन चारो ने साधु को बाँध दिया, और साधु के पास तो क्या ही संपत्ति होगी? फिर भी वे लोग गाँववालो की आस्था के प्रतीक रुपियो के चढ़ावे को ढूंढने लगे।  साधु का सारा समान बिखेर दिया। एकतारा, धूनी की राख, और कमंडल के अलावा कुछ न था साधु के पास। चोरो ने धूनी खोद डाली की कहीं साधु ने इसमें कुछ न छिपाया हो। धूनी नष्ट होते देख साधु से न रहा गया, बलिष्ट तो था ही वह। एक ही जोर में बंधन तोड़ दिए, हथियार तो साधु के पास क्या होगा, एकतारा ही पड़ा था, उसे उठाया। चारो को अच्छे से कूटा, एकतारा टूट गया, फिर तो दे घूंसे-लात। चोरो से मार सहन न हुई, एक बोल उठा, "अरे आप मानसिंहजी तो नहीं?" अब साधु चौंका.. मारना बंद किया और पूछा, "पहचाना कैसे?" तो उन चोरो में से एक ने कहा, "पहले आप बताओ, यह भगवा क्यों? आप तो अच्छे भले यहाँ के ठाकुरसाहब थे।"

"क्या बताऊ भाई, सरकार ने जोते उसकी जमीन के कायदे में जमीन छीन ली, रहे उसके मकान में तीन मकान चले गए। खुद के लिए भी दो गज जमीन न बची, तो क्या करता, भगवा धारण कर लिया। लेकिन इस गाँव का मोह नहीं छूटा तो घूमता-फिरता यही चला आया। बढ़ी हुई दाढ़ी में मेरे गाँव वाले ही नहीं पहचान पाए पर तुमने कैसे पहचाना?"

"ठाकुरसाहब आपका रंगरूप बदला है, पहनावा बदला है, लेकिन कूटने का तरिका वही है, मेरी पीठ में पहला एकतारा पड़ा तभी समझ गया था कि हो न हो मानसिंहजी ही है।"

और सभी हंसने लगे।


यह कहानी लिखने का कारण यह था की कई बार हम आमूल परिवर्तन कर ले स्वयं का, लेकिन अंतर का बदलाव इतनी जल्दी नहीं हो पाता। मानसिंहजी बहार बहार से तो बदल गए, पर अन्याय देखकर कूटना नहीं रोक पाए। यही कुछ मुलभुत स्वाभाव की बाते है। चोर भी कितना चालाक है, एक ही फटके में पहचान गया। पहले भी स्वाद चखा हो वह दूसरी बार में तुरंत पहचान जाता है। जैसे यह बांग्लादेशी.. इन्हे भी एक बार इकत्तर का स्वाद चखना पड़ेगा शायद.. वैसे आज याद तो नहीं था प्रियंवदा ! पर आज छह दिसंबर को ही एक कालिख मिटाई गई थी। कितने वर्षो की एक निशानी मिटाकर आज के दिन करसेवको ने एक बढ़िया काम कर दिखाया था। ढोल और शांतिप्रचारक को समय समय पर बजाते रहना चाहिए। दोनों के सुरताल भी ठीक रहने चाहिए, क्योंकि यह बेसुरे होने में समय नहीं लगाते। कोठारी बंधुओ को बहुत कम लोगो ने याद रखा होगा। बाबरी के विषय में ज्यादा कुछ लिखता हूँ तो शायद मैं अतिश्योक्ति कर जाऊंगा। क्योंकि कभी कभी मुझे उदय कंट्रोल होता नहीं है। ऐसे विषयो पर तो ख़ास, फिर वो सर तन से जुदा तो मुझ पर भी लागू होता है। क्या पता किसी दिन कोई जाहिल कुरता ऊंचा करके कोई खंजर निकाल ले.. मौत से डर नहीं लगता, जाहिल के हाथ से मरने से लगता है, क्या पता मुझे ऊपर कोई अप्सरा न मिले..! ले, हूर की कामना तो मुझे भी है, बस वो बहत्तर फुट लम्बी नहीं होनी चाहिए। अरे भूल गया, अपने स्वर्ग में लम्बी-नाटी की समस्या ही नहीं है। वहां तो शायद सुंदरता और सुशीलता ही होती है। देखो जाने को तो नर्क भी जा सकते है पर ऐसी छोटी और नीची सोच मैं रखना नहीं चाहता। वो क्या है कि कल्पना करो, या स्वप्न देखो तो बड़ा देखो.. जैसे किसी दिन हमारे पूर्वजो ने राममंदिर का देखा था। वरना मंदिर न तो शिक्षा देते है, न ही स्वास्थ्य, लेकिन धर्म है तो हम है। हम है तो धर्म है। पूरक है। 


कुछ कह नहीं सकते प्रियंवदा... आजकल कोई भरोसा नहीं है, कहीं मैं तुम्हारे दर्शन को व्याकुल होकर नैनसुखतृप्ति की कामना लिए खड़ा होऊं और किसी छत से ईंटा आ गिरे..


|| अस्तु ||


Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)