- जिससे हम लड़ना चाहते है, वही हमारी कमजोरी है। और तब द्वंद्व पैदा हो जाना स्वाभाविक है।
- कसम खाने वालों से हमेशा सावधान रहना जरूरी है, क्योंकि जो भी कसम खाता है, उसके भीतर उस कसम से भी मजबूत कोई बैठा है, जिसके खिलाफ वह कसम खा रहा है। और वह जो भीतर बैठा है वह ज्यादा भीतर है, कसम ऊपर है और बाहर है। कसम चेतन मन से खाई गई है। और जो भीतर बैठा है, वह अचेतन की परतों तक समाया हुआ है।
- संयमी आदमी बड़े खतरनाक होते हैं। क्योंकि उनके भीतर ज्वालामुखी उबल रहा है, और ऊपर से वे संयम साधे हुए हैं। और इस बात को स्मरण रखना कि जिस चीज को साधना पड़ता है -- साधने में इतना श्रम लग जाता है कि साधना पूरे वक्त हो नहीं सकती। फिर शिथिल होना पड़ेगा, विश्राम करना पड़ेगा।- सम्भोग से समाधी की ओर - रजनीश ओशो..
प्रियंवदा ! वांचन करते समय कुछ बाते बड़ा मन मोह लेती है। जैसे मैंने ऊपर कुछ मुद्दे टाँके है। कई बार हम भीतर अंतर्द्वंद्व में उलझे रहते है। किसी के साथ बैठे हुए भी अकेले होते है, कहीं खोये हुए रहते है। कुछ विचारो का आपस में तुमुल युद्ध चल रहा होता है। उस युद्ध की थकान अवश्य ही हमें ही अनुभव होती है। पर फिर भी हम इस युद्ध से कभी परहेजी नहीं करते। कुछ लगाव होता है, आकर्षण, जिससे निजाद चाहिए होता है, एक पर्याप्त दूरी चाहिए होती है। या अपनी भावनाओ पर नियंत्रण रखना चाहते है। पर लगता है जैसे अपना काबू छूट रहा है। मन मुक्त हो चूका है। फिर हम उसीसे लड़ने लगते है। मन पर नियंत्रण का अनंत चलता युद्ध, जहाँ संधि के सिवा कोई विकल्प नहीं, न हार, न जित..!
किसी भावना पर नियंत्रण हेतु हम कसम तक खा लेते है की नहीं, आज के पश्चात वो बात तो करूँगा ही नहीं। वो काम तो करूँगा ही नहीं। उसकी ओर देखूंगा तक नहीं। लेकिन कसम जितनी मजबूत होती है, उससे दस गुना अधिक हमारा मन चंचल होता है। किसी से दो शब्द मीठी बात क्या हो गई, उसके स्वप्न दिखाना शुरू कर देता है। कल्पनाओ में घेर लेता है। जैसे हमारी निर्णयशक्ति को बांधकर उसका कथन ही सच हो ऐसा आभास प्रतीत कराता है। कसम या सौगंध, वहां अवश्य चरितार्थ होती है जहाँ निर्णयशक्ति सर्वोपरि हो। लेकिन यदि मन की चंचलता ही बलशाली हो तो फिर तो प्रोफाइल फोटो छुपके से देख आना और बाद में कसम को याद करके अफ़सोस करना भी सामान्य सा ही लगेगा। कुछ सौंगंधे भी ऐसी होती है, धर्मसंकट भरी। हाँ कहो तो हाथ कटे, ना कहो तो नाक। बलिदान मांग लेती है। कुछ खुशियों का। कुछ चेष्टाओं का। और वह बलिदान अनिवार्य होता है।
संयम है ही वही, बम की पिन निकालकर भी उसकी क्लिप को कस कर पकड़े रखना। जितनी जोर से मुठी भिंची हो, उतनी ही जल्दी वह विश्राम भी मांगती है। मुझे लगता है, संयम बड़ा ही कठिन काम है। क्योंकि संयम का परिघ बहुत बड़ा है। इसके वर्तुल के भीतर बना रहना बहुत मुश्किल है। जैसे क्रोध पर संयम रखना। जैसे भावनाओ को अव्यक्त रखना। जैसे किसी पुरानी यादो से, कमजोरी से लड़ना, द्वंद्व करना, कसम खाना, और उस कसम को जिवंत रखना। संयम के बिना असम्भव ही है। मैं अक्सर उन पुराने घावों को कुरेदता हूँ। कुछ भाग्य के दिए घाव.. या मेरी चुप्पी के दिए हुए। यथा समय पर अव्यक्त रहा हुआ मैं आज असमर्थ भी हूँ, बस उन गलतियों को ढोते रहने के अलावा। फिर वह भी तो जगत का अलिखित आदेश है कि गलती है तो भुगतो। तुम्हारी चुप्पी ही तुम्हारे भुगतने का कारण है। जैसे कभी भीष्म, कृपाचार्य ने चुप्पी को भुगता था। कुछ संयम बनाने होते है। कुछ दुसरो पर थोपने भी होते है। उन पर निरिक्षण भी रखना होता है। उनकी चेष्टाओं को समय समय पर समझना होता है। वरना भुगतने के अलावा संयम और कुछ भी नहीं सौंपता।
सबकी अपनी समझ है, अपने स्वतंत्र विचार.. सबके अपने प्रेम है, सबकी अपनी व्याख्या। फिर मैं यदि कहूं की सब मेरी तरह अंधे है, किसी ने प्रेम को नहीं देखा, तो गलत नहीं होगा। यह शायद एक अनुभूति होती होगी। जिन भावो की व्याख्या हम जानते है उन से कुछ अलग अनुभूति, या जिन भावो के पश्चात कुछ शेष बचा वह अनुभव.. उसे नाम दे दिया गया होगा 'प्रेम'..! क्योंकि सबके विचार से प्रेम सबका ही अलग अनुभव है। प्रेम बहरूपिया है।