प्रियंवदा ! स्नेह की छांया में पला विश्वास, आघात का अनुभवहीन है तो वह बहुत ही संवेदनशील है। कई बार हम विश्वासों का भी जाला बुन लेते है। और वे विश्वासी तंतु बार-बार कहीं न कहीं टूटते रहते है। फिर भी जब तक केंद्र न टूटे हमे इतना फर्क नहीं पड़ता। मिट्टी के घड़े बनते देखे है? मिट्टी में एकजुटता न आ जाए तब तक उसका घड़ा बनना असम्भव है। विश्वास भी उसी घड़े जैसा है, जो अपनों के प्रति हमारे सद्भावो की एकजुटता से जन्मता है। बहुत गंभीरता दिखाई पड़ रही है। थोड़ी मात्रा घटाते है।
एक पुस्तक है, उस लेखक का जिसे उसके अनुयायीओं ने भगवन का दरज्जा दे रखा है। मैं भगवन की व्याख्या पर नहीं आना चाहता। लेखक का नाम है 'रजनीश ओशो', और पुस्तक का नाम है 'सम्भोग से समाधी तक'। प्रियंवदा ! आज मैं कहना चाहूंगा की "DON'T JUDGE A BOOK BY ITS COVER" ... वरना मैं तो यह भी कहता हूँ की पुस्तक का नाम और कवर प्राथमिक परिचय है तो बुक को जज करने के लिए उपयुक्त तर्क तो है ही। अब जहाँ शुरुआती शब्द ही सम्भोग हो तो लिखने में, बात करने में झिझक होनी स्वाभाविक है, क्योंकि हम अज्ञानी है। और हम भूल चुके मंदिरो पर छपे सम्भोग से जुड़े शिल्पो को। क्योंकि जब सम्भोग का अनहद उपयोग हुआ तब यह वासना में परिवर्तित हुआ, और पशुता से भी निचली श्रेणी में चला गया, क्योंकि पशुता में भी सम्भोग की वर्ष में एक बार ही ऋतु आती है। लेकिन मनुष्य मनमौजी हुआ। शुरुआत में स्नेह और विश्वास की बात कर रहा था तो विचार आया की प्रेम को भी लपेटे में ले ही लिया जाए.. तो याद आया, कुछ दिनों पहले किसी ने इन महाशय की रील में प्रेम क्या नहीं होता है यह भेजकर कहा था कि "तू प्रेम की व्याख्या खोज रहा है, तो प्रेम क्या क्या है, वो छोड़, प्रेम क्या नहीं है, वो लिखता जा, जो बचा वो प्रेम होगा।" शाला में गणित के कुछ प्रश्न होते थे जिनके जवाब पता हो लेकिन रीत याद नहीं आ रही होती तब जवाब से प्रश्न की ओर बढ़ते थे तो रीत अपने आप बन जाती है। जैसे वो पझल होती है, चीज़ को चूहे तक पहुँचाने वाली, मैं अक्सर चीज़ को चूहे तक पहुंचाता। चूहा क्यों मेहनत करे? आलसी था, चूहा और मैं दोनों। तो प्रेम का यदि सीमांकन करना है तो कोई तो कहता है प्रेम अनंत है, फिर विश्वासघात क्यों होता है भाई? विश्वासघात तभी हुआ न जब प्रेम की सीमारेखा समाप्त हो गई थी...! अब इन किसी समुदाय के भगवन के अनुसार प्रेम अपने भीतर ही है। अब अपने भीतर एक किला भी है, जिसमे प्रेम कैद पड़ा है। अबसे कोई नहीं कहेगा की प्रेम में अपार शक्ति होती है। क्योंकि जब प्रेम खुद ही एक किल्ले को नहीं भेद पा रहा तो, उसके झरने नहीं फूटते, उसकी खुद की इच्छा होगी तब प्रकट होगा। मतलब प्रेम स्वयं ही कितना स्वार्थी और घमंडी है कि उसकी इच्छा होगी तो वह आएगा.. या फिर यह भी उसकी व्याख्या - परिभाषा की कल्पना मात्र है, अरे भाई भगवन ने कहा है तो होगा ही। लेकिन एक बात तो है, यह प्रभु दृष्टांत बड़े सही देते है, शायद वांचन का ही परिणाम है। और एक मैं हूँ जिसे क्या पढ़ा चूका हूँ यही याद नहीं रहता।
एक दृष्टांत है कि किसी शिल्पी को जब पूछा गया की पथ्थर में मूर्ति है ही कहाँ, आप तो बस पथ्थर को तोड़ रहे हो। तब उस शिल्पी ने जवाब दिया कि मूर्ति तो पथ्थर में छिपी हुई है ही, मूर्ति बनाई नहीं जाती, आविष्कृत होती है, अनावृत होती है। दृष्टांत के माध्यम से कहा गया कि प्रेम भी अनावृत होता है, मतलब प्रेम इंट्रोवर्ट भी है, उसे बाहर लाना पड़ता है। उस पर कुछ आवरण है, इस लिए दीखता नहीं। पता नहीं, क्या क्या झेलना पड़ रहा है इस प्रेम को समझने के लिए।
प्रियंवदा.. प्रेम जो भी कुछ भी हो, पर एक सुंदर कल्पना तो जरूर ही है। मनोरंजक है। और मनोरंजन सत्वगुण को सिद्ध करने में बाधक है। तो प्रेम भी...