"बड़ी कठोर होती है यह तारीखे,
दास्ताँ को जुबाँ पर लिए घूमती है।"
क्या होता अगर तारीखे जिन्दा होती? कोई तारीख हंसती रहती, कोई मायूस होती, कोई उदासी लिए बैठी रहती, तो कोई तो बस डरी-सहमी सी ही रहती। कितनी सारी कहानियां सम्हालकर रखती है, कोई पूछे तो सही.. लेकिन इतिहास वो वस्तु है जिससे लोग प्रेरणा लेकर भी कई बार दोहरा देते है। पता है की पहले ऐसा हो चूका है लेकिन फिर भी वही गलतियां हो जाती है। मुझे कभी कभी इतिहास से एक इश्क भी होता है तो कभी कभी इससे क्रोध भी आता है। या यूं कहूं कि का इससे सिखने के बजाए इसे आजमाने लगे है। मुझे क्रोध तब आता है जब कोई लड़की इंस्टा पर मुंह पर कपडा बाँधने के तरिके तक का हिन्दुकरण करे.. वैसे परिधान धर्म से जरूर जुड़ा हुआ होता है लेकिन अगर उसी तरह रहना है तो फिर अध्यतनता भी छोड़ देनी चाहिए। परिधान में सिरस्त्राण का महत्त्व ही अलग था। सिरस्त्राण से अर्थ है की पगड़ी। आज के समय में पगड़ी सिर्फ सिख-सरदारों ने या तो घर के किसी बूढ़े ने ही धारण कर रखी है। सिरस्त्राण के कई प्रकार थे। साफा, पगड़ी, टोपी, मुकुट.. पगड़ी का सबसे महत्वपूर्ण काम था सर को चोट से बचाना। दादा जी की उम्र में जो पगड़ी बांधा करते थे, वे लोग सर पर कांसे की एक कटोरी जैसा रखकर उस पर पगड़ी बाँध लेते, कोई लाठी सर पर मार दे तो बचाव हो जाए। पहले बात-बात में तलवार-लाठिया चल ही जाती थी। बचपन में सुना भी था की घर से निकलो तो हाथ में लाठी साथ रखा करो। एक समय ऐसा भी था की कोई बिना सर ढंका व्यक्ति सामने आता दिखे तो अपशुगन माना जाता। पगड़ी में भी हमारे यहाँ कई प्रकार है, जाति अनुसार भी प्रकार है, और प्रान्त अनुसार भी.. लेकिन वो विषय फिर कभी..!
हिटलर ने एक बार यहुदीओ को मारा, यहूदी आज भी पूरी दुनिया को चीख चीख कर कहते है, "हम पर अत्याचार हुआ।" और खुद के प्रति दुनियाभर की सहानुभूति लेने में लगे रहते है। हालाँकि बात सही है, उनपर हुआ था वो अत्याचार। जो लोग जानते है वे मानते है। लेकिन भारत में कभी भी इतिहास में हुए Massacre के बारे में बातचीत नहीं होती। अगर होती है तो वो भी कहीं दबी ही रह जाती है। हम जानते ही नहीं है। और शायद इस विषय में उतना रस भी नहीं लेते। क्योंकि वहां हारे है हम, हार को स्वीकार भी ली है। Massacre / हत्याकांड.. हम लोग इस बात को बार बार भूल जाते है हमारे साथ कई अत्याचार हुए है, हमारी ही भूमि पर, आक्रांताओ ने हमे कई बार रौंदा है, लेकिन हम क्या करते है? दोष का ठीकरा फोड़ देते है कि राजपूतो में एकता नहीं थी। या फिर हमारे यहाँ के शाशक कमजोर थे उनके मुकाबले। ऐसा कुछ भी नहीं था, हमारे यहाँ एक बड़ी विषम समस्या यह रही है की बड़े भाई से नाराज होकर छोटा भाई अक्सर दुशमन के पाले में जा बैठता। जरुरी नहीं की भाई ही हो, प्रजा में से भी कोई हो सकता है, या लालच के वश या प्रतिशोध के नाम पर भी बहुत से बाहरी विधर्मी को न्यौता देकर बुलाया गया था। और कई बार तो बस सत्ता- विस्तारण के लिए भी हुए युद्धों में सामूहिक हत्याकांड हुए थे। जब खिलजी ने चित्तोड़ कब्जाया, उसके बाद फिर अकबर ने चित्तोड़ कब्जाया तो उन्होंने सिर्फ भूमि नहीं ली, भूमि की लाज भी छीनी थी, तिस-तिस हजार लोगो को गला रेतकर मार डाला गया था। तैमूर.. जो सिर्फ भारत के वैभव से आकर्षित होकर आया था, दिल्ली को लाल रंग दी थी, एक अंदाज है की एक लाख से अधिक लोग मारे गए थे। कुछ अपनों ने भी गलती से किए थे, मारवाड़ में खेजड़ली का हत्याकांड.. गंभीर है ऐसे हत्याकांड.. कभी जानना कूप कलां के हत्याकांड के विषय में, सीखो ने अपने अनेक बार मस्तक दिए है, लेकिन कूप कलां में निःशस्त्र वृद्ध, स्त्री और बालको को गोलाकार घेरकर अब्दाली ने मार दिया, उसे अत्याचार की किस श्रेणी में रखा जाए? अंग्रेज कालीन भारत में तो और निर्ममता से कहर बरपाया गया। मानगढ़ हत्याकांड.. आज गुजरात में पड़ता मानगढ़, कभी उस पहाड़ी धार्मिक प्रसंग में इकठ्ठा हुए आदिवासीओ पर अंग्रेजो ने तोप और मशीनगन्स लगाकर अंधी आग बरसाई थी। जलियांवाला तो किसे नहीं पता होगा। 'कनड़ा का कहर' यह भी एक इतिहास की गरता में छिपी कहानी ही है, कनड़ा के पर्वत से कतारबंध कुछ बैलगाड़ियां उतरी, सभी बैलगाड़ियों में कटे सर थे, आज भी शिखर पर ८० से ज्यादा खांभी (मृतक की याद में खड़ा किया पथ्थर-शिला) खड़ी है... साबरमती एक्सप्रेस के विषय में कुछ कहने की जरूरत है? सनातनी या हिन्दू कहने मात्र से बस हो गया इतना काफी नहीं है। हमे याद रखना चाहिए, इतिहास के उन पन्नो को, जहाँ क्रूरता की तमाम हद्द भुला दी गयी हो। इतिहास प्रेरणास्थल है, जहाँ राम कृष्ण, प्रताप शिवाजी, जैसो से सीखना चाहिए तो साथ में वे जो अकारण ही कुर्बान हुए उन्हें भी तो याद रखना चाहिए।
बांग्लादेश.. आज प्रतिदिन वहां हिन्दुओ के साथ वह हो रहा है जो कभी पश्चिमी पाकिस्तान ने बांग्लादेश के मुस्लिमो के साथ किया था। माफ़ करना मेरी भाषा को लेकिन जब अनगिनत बांग्लादेशी महिलाओ का बलात्कार हुआ, तब कितनी ने गर्भधारण किया होगा किसे पता? क्या आज वह पश्चिमी पाकिस्तान की जुबान नहीं बोल रहे? क्या पता उन्ही के वारिस हो? फिर कहा जाता है की मजहब नहीं यह नहीं सिखाता, वो नहीं सिखाता.. सीधी बात है, आचरण से पता चलता है कि किसका धर्म उसे क्या सिखाता है। पानी नहीं है वहां, मल त्याग के पश्चात पथ्थर उपयोग में लेते थे वे, वहां से उत्पन्न हुआ यह पंथ आज यहाँ शांतिदूत बनना चाह रहा है। आघात का प्रत्याघात होता है, जितनी बार सोमनाथ भंग हुआ, पुराने से अधिक वैभवशाली हमने उसे पुनः खड़ा किया। अमृतसर का हरमन्दिरसहिब, कभी अब्दाली ने वहां तोपे चलाई थी, आज स्वर्ण से सज्जित है। अयोध्या, वैभव से भरपूर.. कथनी और करनी.. इसका भेद तुम्हे जानना होगा.. समझना होगा। शांतिदूतो की स्त्रियां देखि है, छत से ईंटे चलाती हुई। जब स्त्री ही इतनी घृणास्पद है तो उसकी कोख से उत्पन्न होती संतति कितनी दूषित होगी?
आह.. आज लग रहा है मैं विष उगल रहा हूँ.. मेरे रोम में अग्नि की तपन अनुभव कर रहा हूँ.. पंखा पांच पर चल रहा है। उसे और इसे यही रोक देना चाहिए।