प्रेम, प्रताड़ना और मोह – जब समर्पण विवेक हर ले
प्रियंवदा, प्रताड़ना शाश्वत है..! प्रताड़ना प्रेम है, प्रेम आकर्षण है, आकर्षण अंधा है, और अंधा जगत है। जगत अँधा इस लिए है की जगत में बसे तमाम एक अंधी दौड़ में लगे है। आकर्षण की दौड़। प्रेम की दौड़। प्रताड़ना की दौड़। यहाँ सब शिकार है, सब शिकारी है। प्रेम शिकार करता है, उसका जाल प्रताड़ना है। शिकार की सर्वप्रथम आवश्यकता है बगुले की एकाग्रता। स्थिरता। कैसी स्थिरता? मन की स्थिरता। मन किसी एक पर मोहासक्त होना चाहिए। फिर मोहासक्ति जन्म देती है समर्पण भाव को। स्वयं के विवेक तक का समर्पण।
बस, यह समर्पण भाव को ही प्रेम बंधक बना लेता है। और फिर प्रेम की प्रताड़ना रूपी जाल में जकड़ा हुआ छूट नहीं पाता। जितना छूटने को जोर लगाता है, जाल का सिकंजा उतना ही बढ़ता जाता है। इस प्रताड़ना की कोई सीमा नहीं है। क्योंकि यह एकपक्षीय अनुभव की बात है। अकेलेपन से लेकर, असहजता, या फिर आकांक्षा की समस्त सीमा तोड़कर प्रेम प्रताड़ित कर सकता है। विवेक के समर्पण के पश्चात नरी अंधता ही तो छायी रहती है। तो वही है, अंधत्व, आकर्षण, प्रेम और प्रताड़ना सब संकलित है।
कंगलादेश की भूख और भारत की नैतिकता
भूख कुछ भी करवा सकती है, एक इंसान भूख के साथ तमाम समझौते कर सकता है, एक समाज, या एक देश.. क्षुधा के सामने सब ही दुर्बल है। क्षुधा अपराजिता है। आज सुबह ऑफिस आते समय कानो में ब्लूटूथ लगाए प्रशांत धवन का विडिओ सुन रहा था, खबर थी की ना-पाकिस्तान की सेना कंगलादेश में युद्ध प्रशिक्षण या अन्य किसी कार्य हेतु आने वाली है। कितनी विचित्र बात है न। जिसने कभी जुल्म किया उसे ही आमंत्रित करना। खबर हो या अफवाह, लेकिन कंगलादेश ने तुरंत ही प्रत्युत्तर देते सारी अटकलों पर रोक लगाई। क्योंकि कंगलादेश की समस्या थोड़ी बढ़ गई है।
एक तरफ अराकान आर्मी, जो म्यानमार (बर्मा) के उत्तर पश्चिम जो कंगलादेश की सीमा से अड़ता हुआ राज्य है वो कब्जाए बैठी है। कंगलादेश का म्यानमार से आयात चावल रोके हुए। कुछ समय पूर्व ही बाढ़ ने फसल बर्बाद कर दी, अब अराकान आर्मी भी चावल खरीदने नहीं देती, अब कंगालिओ के पास भारत के अलावा विकल्प तो कोई है नहीं। भारत को इतना भला-बुरा कहने के बावजूद, भारत के तिरंगे का अपमान करने के बावजूद भारत माता अपने पोते पर स्नेह बरसाते हुए लाखो टन चावल देने को तैयार है। नैतिक मूल्य समजो। हम आज भी उस बिच्छू को डूबता बचाने के लिए उसके दंस सहने को तैयार है। प्रियंवदा, नैतिक मूल्य वही है जो व्यक्ति को, समाज को, देश को आदर्श के रूप में स्थापित करे।
आज सोमवार है, सुबह से बिलकुल ही नवरे होकर ऑफिस में चक्कर काट रहा हूँ। हमारी टोली का सरदार गया है घूमने, मेरे भरोसे यह तामझाम छोड़कर। स्टाफ एक और है, उसे सारा काम समझा कर बस सुबह से बिलकुल ही फ्री बैठा हूँ ऑफिस में। २-३ दिन यही हाल रहने वाला है। 31st मनाने लोग प्रवास कर रहे है। मुझे यह समझ नहीं आ रहा है की जब तुम्हे वहां भी जाकर दारु ही पीनी है तो यहां क्या गलत है? माऊंट आबू पर कई किलोमीटर लंबा ट्रैफिक जैम लग चूका है। जैसलमेर के सारे रेगिस्तानी टेंट्स फुल होने के कगार पर है। मुंबई की भीड़-भाड़ में इजाफा हुआ है। हर जगह गुजरात है, हर जगह गुजराती है। गोवा.. दीव, कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ गुजराती नहीं पहुंचा हो।
दारू, थेपला और गुजराती फ्लाइट – वायरल विडंबना
वो कुछ दिन पहले एक रील देखि थी, दूसरे दिन टीवी न्यूज़ में भी आ गया, बैंगकॉक की फ्लाइट का सारा दारु गुजराती पी गए। फ्लाइट में ३०० से ५०० का एक ग्लास होता है। यह लोग पूरी फ्लाइट का माल पी गए। चखने में थेपला खा रहे है। गजब ही चल रहा है। देखो वैसे ऑफिस आए हो और कुछ काम न हो तब बड़ा कंटाला आता है। कमसे कम सरदार तो होना ही चाहिए। सरदार की गैरहाजरी में दो चीजे बड़ी बुरी लगती है। एक तो कुछ काम है नहीं, दूसरा स्ट्रेस लेवल बढ़ जाता है। मैनेजमेंट में। 2 जने को चोट लगी थी, दस हजार घुस गए। कम से कम सरदार हाजिर हो तो टेंसन नहीं रहता कि 'हाँ, सारा भार अपने पर नहीं है। होगी वो देखि जाएगी।' सरदार हाजिर नहीं है तो होता है कि, 'जवाब देना पड़ेगा।'... इन्शोर्ट जिम्मेदारी का भार लगता है। जो निर्णय कभी नहीं लिए होते है वे तत्काल लेने पड़ते है। कोई आगंतुक है उसे समझना और समझाना पड़ता है। खेर, यही दुनियादारी है, और इससे नहीं भाग सकते।
ऑफिस में जिम्मेदारी और कंटाले का भार
अभी बज रहे है साढ़े सात, बड़ा कंटाला आ रहा था। कुछ भी काम नहीं, कितनी रील्स देखूं? या कितना ही यूट्यूब कर लूँ। लिखने को भी कुछ सुझा नहीं। फिर आख़िरकार एक स्नेही मित्र से बाते हो गई। हमारी चर्चा का मूल वही होता है, आकर्षण, या मोह। जब भी हमारा मन किसी के मोह में फंस जाता है। बड़ा दुःख अनुभवता है। हमारी बातो का आधार हमेशा से 'भावना' रही है। कौनसी भावना क्या असर करती है। और साइड इफेक्ट्स ऑफ़ सो कॉल्ड प्रेम.. वैसे आज की चर्चा और आगे बढ़ गई, समाज में निर्माण होते त्रिकोण, और वर्तुल पर।
मोह के त्रिकोण और सामाजिक वर्तुल की उलझन
जैसे मुझे प्रियंवदा पसंद है, उसे कोई और, और जिसे प्रियंवदा पसंद करती है, उसे भी कोई और पसंद है। एक सांकल.. chain..! धीरे धीरे एक वर्तुल बनेगा। जहाँ पसंदगी की कोई सीमा नहीं। समाज में अक्सर देखने मिलता है, भाभी जैसे शब्द को कलंकित कर दिया गया है। कुछ लड़को ने भाभी को ही अपनी पसंद बना ली है। हालाँकि ताली दो हाथ से बजती है मैं जानता हूँ। लेकिन अक्सर लड़को पर ही इल्जाम लगाए जाते है इस लिए मैंने भी उन्हें ही कसूरवार लिखा है। मुझे तब और आश्चर्य होता है, कई लड़किया पारिवारिक दबाव में किसी और से विवाह कर लेती है, लेकिन अपने प्रेमी को भी छोड़ती नहीं। यहाँ त्रिकोण बनता है। पुरुष की स्त्री, और स्त्री का एक और पुरुष।
समझने के लिए, a पुरुष की पत्नी b है, b का प्रेमी c है। समस्या यह है कि a है वो c के विषय में जानता ही नहीं है। अब सोचिये, a का जीवन तो b और c ने बेफालतू में बर्बाद किया है। अगर a b को छोड़ता नहीं है, तो c का भी बर्बाद ही है। अगर c सब कुछ छोड़ दे तब भी b का पूर्णतः समर्पण a को नहीं मिल सकता। उर्दू भाषियों में a तथा c एक दूसरे के रकीब हुए। हमारे यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था या विचार था ही नहीं तो हमारे पास ऐसा कोई शब्द भी नहीं है। क्योंकि इसे एक दूषण माना गया है। जैसे यह भी अकल्प्य है की एक स्त्री को भी कई पुरुष पसंद हो सकते है। लेकिन यह हम तुरंत ही स्वीकार सकते है की एक पुरुष को कईं स्त्रियां पसंद होती है। वास्तव में बड़ी विचित्र ही व्यवस्था है प्रियंवदा। बात हो रही थी अपनी मोह के विषय पर, लेकिन अपना विचार विमर्श रसपूर्ण आरम्भ से रसहीन अंत तक चला जाता है अक्सर।
“मस्जिद के सामने भी सर झुकता है” – आस्था की नई परिभाषा
खेर, आज एक बड़ी जबरजस्त पंक्तियाँ पढ़ने में आई, किसने लिखी है नहीं जानता,
"अब तो मस्जिद के सामने से गुजरते हुए भी आस्था से सर झुक जाता है। पता नहीं निचे कौनसे भगवान बैठे हो।"
है ना जबरजस्त। यह तो इंस्टाग्राम बस कुछ बातो के लिए ही बदनाम है, बाकी हिरे-मोती यहाँ भी भरे पड़े है। ठीक है फिर, अब आठ बजने को है। घर जाने का समय। खाना-पीना करेंगे, थोड़ी देर आग सकेंगे, और फिर सो जाएंगे। तुम्हारे स्वप्न देखते हुए प्रियंवदा।
चलो अब, विदा दो प्रियंवदा.. और तुम्हारे लिए एक गाना,
"परदेशी मेरे यारा, वादा निभाना, मुझे याद रखना, कहीं भूल न जाना.."
(हाँ थोड़ा बेकार गाना है, लेकिन लाइन अच्छी है।)
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक,
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