दुनिया से भयंकर दुनियादारी है प्रियंवदा..! और इसे तो टाल भी नही सकते। एक और वस्तु बड़ी कठिन है वो है 'ना' कहना। किसी को ना कहने में तो जैसे जिह्वा को बड़ा जोर पड़ता है। फिर चाहे खुद के ही पैर पर कुल्हाड़ी पड़े। सह लेंगे, वाली भावना आ जाती है। एक और बात बड़ी नुकसानदेह है। रिश्तों में बड़ा होना। बड़े से तात्पर्य है, उम्र में बड़ा होना। छोटे होते है बचपन की चॉकलेट से लेकर जायदाद तक मे बड़ो से ज्यादा पा लेते है। यह एक सत्य है।
प्रियंवदा, लोग नए साल में स्वयं से नए वादे कर रहे है, नए संकल्प ले रहे है। पूरा साल उसी संकल्प को आधार मानकर एक लक्ष्यांक के लिए मेहनत करेंगे। एक नियत दिनचर्या.. एक नियत कार्यप्रणाली.. एक दृढ़ नियम। और एक हम है प्रियंवदा, मैं तुम्हे जपना भूलता नही, और तुम दर्शन देती नही। आज का रविवार कैसा था पता है? पहली बार तो साढ़े पांच का एलार्म बजा तब आंखे खुली। उसके बाद सीधे सात बजे, उसके बाद साढ़े आठ को इस लिए उठना पड़ा कि निंद्रा ही जा चुकी थी। घर से निकलते ही नित्यक्रमनुसार जगन्नाथ। जगन्नाथ से निकला तो मोटरसायकल का अगला टायर बैठा हुआ मालूम हुआ। अब्दुल की दुकान पर गया तो वो पहले ही 2 टायर खोले बैठा था। अब साढ़े दस बजे और इन्तेजार नही कर सकता था, तो हवा भरी, और चल दिया। वैसे भी ट्यूबलेस टायरों का यही फायदा है। हवा भरो और चल दो। खेर, ऑफिस में तो आज वही रविवारीय वित्त-वितरण कार्यक्रम होता है। ठेकेदारों से भावताल करना, थोड़ी बहसबाजी, और हिसाब किताब मिलाते हुए दो-ढाई कब बज जाते है पता नही चलता।
दोपहर तीन बजे घर पहुंचा तो न भूख थी, न ही आराम करने की इच्छा। ठंडी इतनी भरपूर नही, लेकिन पानी जरूर ठंडा लगता है, ऊपर से आलसी जीव मेहनत भी नही करना चाहता, इसी लिए मेरी यम के भैंसे जैसी मोटरसायकल सीधे बाजार में ले जाकर तालाब में बैठी भैंस की तरह नहलवा दी। और कुछ काम तो था नही, लेकिन वही पांच बजे संघ शाखा।
Exact पांच बजे शाखा शुरू हो जाती है, मैं पांच बजकर दो-तीन मिनिट पर पहुंचा तो प्रार्थना चल रही थी। शाखा में हम 3-4 ही बड़े है, बाकी सब बीस की उम्र के होंगे। प्रार्थना और सहगान के बाद कुछ खेल खेलना था। संख्या कम थी इस लिए बैठे बैठे ही कुछ खेलना तय हुआ। अब बैठकर खेले जाते खेल सारे ही बौद्धिक होते है। नक्की हुआ quiz खेली जाए, विषय संघ, रामायण और महाभारत से जुड़े हुए प्रश्न ही पूछे जाए। लेकिन हम 3-4 बड़ो के लिए विषय मर्यादा न थी। प्रियंवदा, ये युवक महाभारत किसने लिखी उसका भी जवाब नही दे पाते है। एक प्रतिद्वंद्वी ने सवाल पूछा कि 'कर्ण की माता का नाम बताओ?' तो मैंने सहजता से पूछ लिया कौनसी वाली.. अगले को खुद को ही नही पता कि कर्ण की जन्मदात्री और पालक माता अलग है। उससे भी विकट है कि ये युवकों के मन मे कोई प्रश्न ही नही उठते है। मुझे तो यही बड़ा आश्चर्य लगता है कि एक मैं हूँ जो कभी सवालों पर उतर आया तो ईश्वरीय अस्तित्व पर तक सवाल खड़े कर लेता हूँ, और एक ये युवक है, जिन्हें स्वयं के वंश की उत्पत्ति के विषय मे भी रुचि नही है। यह एक वाकई गंभीर समस्या है। युवान को इतना तो जागरूक होना चाहिए कि कल कोई उसके अस्तित्व पर प्रश्न पूछ लें तो प्रत्युत्तर दे सके।
वैसे मैं भी यह विमर्श लिखकर ही कर रहा हूँ, क्योंकि बोला तो मुझसे भी नही जाता। अनजान भीड़ के सामने वक्तव्य देना, या कैमरे के सामने बोल पाना हिम्मत मांगता है बहुत ज्यादा। मुश्किल से एक बार स्टेज पर चढ़ा हूँ। मित्रो ने बड़ा आग्रह किया था उस दिन की एक कविता सुना दो, लेकिन मैं मना करता रहा, आखिरकार उन्होंने सिर्फ दो पंक्तियां ही सुननी चाही, लेकिन तब भी मेरी जिह्वा न उठ पायी। भार लगता है, कैसा भार? कई सारी आंखों का अपने ऊपर केंद्रित होने का भार। बहुत ज्यादा असहजता अनुभवता हूँ। लेकिन यदि मित्र वर्तुल है तो इतनी असहजता नही होती। वहां एक दृढ़ विश्वास होता है, पता नही कैसा विश्वास? क्योंकि गलती होने पर सबसे ज्यादा, और सालो तक खिल्ली यही मित्र उड़ाते है, फिर भी मित्रो के आगे असहजता अनुभव नही होती। मेरे सवाल पूछने की बारी आई तो मैंने पूछा 'गार्गी ने किसके साथ शास्त्रार्थ किया था?' युवकों के लिए तो गार्गी शब्द ही प्रथम बार सुना हुआ था। फिर मेने अपने मित्र गजा जो प्रतिद्वंदी दल में थे, उनकी और देखा तो उन्होंने फट से जवाब दे दिया, 'याज्ञवल्क्य'.. दूसरे सवाल की बारी आई तो मैंने पूछा कि 'भारत के देशी राज्यो में से गुजरात मे कितने देशी राज्य थे.. संख्या कितनी थी?' जवाब किसी को नही पता था, लेकिन ऑप्शंस देने पर गजा ने तुरंत ही कहा, '222'... क्या ही करे, हम दोनों का रुचिकर विषय यही है कि हमे सब जानना है। प्रत्येक विषय, प्रत्येक पुस्तक, प्रत्येक ज्ञान.. वैसे प्रत्येक ज्ञान के मामले में गजा मुझसे आगे है, क्योंकि वह जिसके पीछे पड़ा उसकी जड़ें तक खोद देता है। दारू के पीछे पड़ा था तो दारू का दुश्मन बनकर पृथ्वी पर दारू समाप्त कर देना चाह रहा था, 'पी-पी कर'। स्टॉक मार्केट के पीछे पड़ा था तो वो सारे इंडिकेटर तक सिख आया। आजकल संघ के पीछे पड़ा है, और मुझे डर है कि संघ प्रमुख न बन बैठे। बड़ा ही धुनि है।
अच्छा, शाम के भोजन के पश्चात पत्ते का भी फोन आया, 'भाई माल पड़ा है, लेगा?'
यह भी एक धूनी है, वो जलती हुई धूनी, धुएं वाली.. कही भी हो, पत्ते का दिन में एकाध बार फोन आना, और मेरा उसे करना तय है। कारण की जरूरत नही पड़ती हमे। बस उसे कुछ बात याद न आए सीधे बोलता है 'पाँचेक हजार जी-पे कर दे..' और मुझे कोई बात याद न आए तो मैं कहता हूं, 'कोई सेटिंग करवा दे यार..' कोई कोई मित्रता ही ऐसी होती है। जहां हमे कोई मर्यादा नही होती.. किसी भी हद तक मस्ती की जाए। अभी ताप सेंक रहा हूँ, क्योंकि खाना खाने के पश्चात माल (व्हिस्की) पचता नही।
चलो, फिर आज शायद बहुत ज्यादा बाते कर दी, और बता दी..!! विदा दो अब.. और तुम तो कमसे कम बुलाओ कभी प्रियंवदा.. लोग कुम्भ के न्योते दे रहे है और एक तुम हो।