आज की क्या कहूँ तुम्हे? फिलहाल सवा बारह बज रहे है, याद आया दिलायरी लिखनी बाकी है। हुआ कुछ यूं कि कल तो बड़े जल्दी जगा था, और रात बारह बजे तक सोने को मिला था, तो सुबह तातश्री आठ बजे जगा गए तब जाकर आंख खुली थी। शादियों में देर तक नही सो सकते। ऊपर से अपने पास एक छोटी सी कला है जिसे लोजी बार बार मांगते है शादियों में। साफा बांधना मैंने क्यों सीखा था? आज पछताना पड़ता है। रिश्तेदार नींद से उठाकर साफा बंधवाते है। और मना तो कर नही सकते।
आठ बजे जागकर आधे घंटे में तैयार हुआ। बहुत लंबे समय बाद मैने सुबह उठने के तुरंत बाद चाय नही पी। चल तो सकता है, मतलब आदत नही है। गांव में, और ऊपर से शादी में, नाश्ते में कुछ खास होता नही है। खाखरा.. अरे यहां सुबह दबाकर चाहिए होता है, खाखरा तो दांतो में पड़ा रहता है, पेट खाली..! खेर, वेल-प्रस्थान का रिवाज हुआ। बड़े होने के नाते जेब में छोटासा छेद भी हुआ। लगभग ग्यारह बजे गांव के सारे युवक रसोड़े के लिए सामान लाने गए। अपने यहां शादी में बड़े पतीले से लेकर बड़ी कढ़ाई, और गिलास तक गांव के हॉल से लाना पड़ता है। व्यवस्था है। सिस्टम है। ट्रेक्टर में लोड किया गया, और घर पर उतारा गया। ढेर सारी कुर्सिया। दोपहर होते होते तो भूख दहाड़ने लगी पेट मे। मौसम ठीक है, अपने शहर के मुकाबले ठंड नही, बस ठंडा पवन है, लेकिन पवन की गति कुछ ज्यादा ही तेज है।
तीन बज रहे थे दोपहर के। काम कुछ था नही, गांव में अपना दिन भी नही गुजरता। मैं एक छोटे भाई को लेकर खेतो की और चल दिया। पैदल जाना पड़ता है। मोटरसायकल जा सकती है उतनी ही कच्ची सड़क है। खेत मे घास उगी हुई है। अपने सर तक ऊंची घास.. कोई जोतता है नही। बंजर पड़ा रहता है। फिर एक हमउम्र चाचा के साथ उनका खेत देखने चला गया। और शाम की कुछ व्यवस्था करने का विचार हुआ। एक मंगाई, रम, पाँचेक लिटल लिटल लगाने के बाद शहर कुछ खाने के लिए चल दिये। कार है, ठंड तो वैसे ही नही लगती रम के ऊपर। अभी वापिस आए, और यह लिखने का समय मिला है, समय निकाला है जबरजस्ती..