ऑफिस की दुपहरी, दाबेली की गर्माहट और फाइलों की बारिश
फिर से एक बार वही ऑफिस-नौकरी वाले जीवन में आ चूका हूँ। सुबह उठो, ऑफिस पहुंचो, दिनभर कम्प्यूटर पर अंगुलियां पटको.. आठ बजे घर की ओर भागो.. सुबह ऑफिस पहुंचा, सरदार मुझसे पूर्व ही आकर आसन ग्रहण कर चूका था। छुट्टियों के बाद दूसरे दिन भी अपनी गैरहाजरी की कमी पुरनी थी.. लगा किताबो में नीली श्याही घिसने में.. दोपहर एक बजे गजा आया, बहुत दिन हो गए, बैंकिंग सर्कल वाले की दाबेली नहीं खायी..! नेकी और पूछ पूछ..?
गजा की बाइक और स्टेशनरी का बहाना
वही मोटरसायकल, ९० की स्पीड.. और फट से सिटी। गजा कुछ ज्यादा ही तेज चलता है मोटरसायकल पर। पहले तो पुरे मार्किट का एक भ्रमण किया, फिर याद आया, लगे हाथ ऑफिस के लिए बॉक्स फाइल्स भी लेते चले, स्टेशनरी वाले से ले ली। फिर पहुँच गए, जिसके बिना शायद हम भूखे ही मर जाए, गरीबो का मसीहा.. दाबेली वाला..! कई साड़ी बैंक्स के कर्मचारी, लंच टाइम में यही पाए जाते है, जो 'लंच टाइम' के नाम पर खिड़की बंद कर देते है वे भी.. हमारा वही ऑर्डर, दो मीडियम...!
शाम को आज तो सारे हिसाब-किताब आज तक के ही निपटा दिए, साथ साथ गजे को लगाया बॉक्स फाइल्स में बिल्स लगाने में.. मोटी मोटी दो फाइल्स गजे ने भर भी दी।
अभी बज रहे है सवा आठ.. और आज कुछ लिखने का विचार तो है, शायद वही व्यस्त होना चाहता हूँ।
ठीक है फिर, शुभरात्रि..!
(२२/०१/२०२५, २०:१६)
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प्रिय पाठक!
अगर ऑफिस की खामोशियों के बीच भी आपने कभी मन की बातें सुनने की कोशिश की हो...
या काम के बोझ तले भी शब्दों की कोई किरण ढूंढी हो —
तो यक़ीन मानिए, आप मेरे अपने हैं।
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