सबका अपना बोजा निश्चित होता है, वह उसे ही ढोना होता है... Everyone has their own specific burden; it is their responsibility to carry it...

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प्रियंवदा ! संसार में सुखी रह पाना तलवार की धार पर चलने जैसा है। कोई ऐसा भी होता है जिसके साथ आपका सम्बन्ध तो है, लेकिन आप बस उसे निभाते हो। या यूँ कहूं की आप पर बोजा बना है वह। उससे छूट नहीं सकते, या पीछा नहीं छुड़ा सकते..! कोई एक व्यक्ति तो ऐसा होता ही है, जिससे दूरी चाहिए, लेकिन मिल नहीं रही, या फिर दूरी बना लेने में नुकसान है। बहुत सारे नुकसान..



कोई रूठ जाए, और रूठने के पीछे का कारण भी न बताए... उस स्थिति में मेरा दिमाग तो फटने पर उतारू हो जाता है। पता नहीं, लोग कैसे सह पाते होंगे? मुझसे तो अगर कोई रूठता है, तो मैं तीन बार कारण पूछता हूँ, चौथी बार से बातचीत ही बंद..! बाल्यावस्था की बात अलग है। लेकिन तीसी में भी जब किसी को रूठते-मनाते देखता हूँ स्वयं ही सोचता हूँ की 'यह हो क्या रहा है?' या तो मेरे प्रेम में न मानने के कारण मुझे ऐसा प्रतीत होता है, या तो लोग ही कुछ ज्यादा पिघल जाते है इस रूठने मनाने की प्रोसेस में। वास्तविकता यही है कि जिसे जिसकी गरज होगी वह उतना ही भार ढोता है जितनी जिसकी गरज हो..! फिर मैं स्वयं यह भी सोचता हूँ कि 'मैं कुछ ज्यादा ही कडी कठोरता से तो कहीं दुनिया को नहीं देख रहा?' लेकिन आश्चर्य की बात तो अब भी मुझे लगती है कि या तो रूठना नहीं या फिर रूठे हो तो मानना नहीं... यह क्या बात हुई की इमोशनल डेमेज करते रहो? अच्छा रूठे को मनाने में खर्चा होता है वह अलग.. कई सारे गिफ्ट शॉप्स वाले बड़े राजी रहते है, उनका व्यापार अच्छा चलता है, इन रूठे-मनाने वालो के चक्कर में..! लेकिन फिर भी लोग रूठते है, लोग मनाते है। 


यह रूठने मनाने की बात पर याद आया, एक बार एक दोस्त किसी फंक्शन में जाने से ठीक पहले रूठ गया..! दो दिन से बड़ा उत्सुक था, जाना है जाना है.. और जब जानेका समय हुआ तो बोला 'नहीं, मैं नहीं आ रहा...' अब ऐसी स्थिति में मेरा मानसिक पारा बड़े ऊँचे चला जाता है। कहीं फंक्शन वगैरह में मेरी कोशिश रहती है की समय से पांच मिनिट पूर्व ही पहुँच जाओ.. लेकिन एन्ड मौके पर कोई ऐसी चोट करे तो सहन नहीं होती.. और मनाऊं, वो भी मैं? मुझसे नहीं होता..! अपना एक ही नियम है, चलना है तो चलो, मेरे घर का फंक्शन तो है नहीं की मनाने बैठु और समय गवाऊं.. और यह क्या बात हुई की रूठे हुए अक्सर कारण नहीं बताते... किस बात का बुरा लगा है? भाव खाते है कुछ.. मेरे साथ तो अक्सर होता है, कोई भाव खाना शुरू करे, तो मैं तो चलती पकड़ता हूँ वहां से..! २-३ बार पूछ लिया, जवाब मिला तो ठीक है वरना आगे बढ़ जाओ.. मेरे लिए सत्य यही है।


कभी कभी ऐसा भी होता है, कुछ लोग बात बताते हुए प्रत्युत्तर की भी अपेक्षा रखते है। मैंने उन्हें नाम दिया है धक्कागाडी.. यह लोग कुछ बात बताते हुए रुक जाते है, और हमे उनकी बात को धक्का देकर आगे बढ़ानी पड़ती है। जैसे एक समारोह में गया था, तो वहां एक अंकल मिले थे। अच्छा शादी समारोह में लोग अपने अनुभव भी जरूर साझा करते है, भले ही पूछा न हो। मैं रसोड़े के पास खड़ा था तो एक अंकल बोले, 'मेरे घर फंक्शन था तो मैं पचास किलो तो सिर्फ आलू ही लाया था, कितने?' वे तो बात बताते हुए कितने पर अटक जाता है, फिर अपने को धक्का मरना होता है कि 'पचास किलो' फिर वे आगे शुरू करेंगे, की 'तिस किलो तुरई, और दो मन तो बैगन आए थे, कितने?' फिर से एक धक्का, 'दो मन'.. तब गाड़ी फिर से एक बार पटरी पर लौटेगी, 'उन्यासी हजार का तो सिर्फ धान आया था। कितना?' अब चार-पांच प्रत्युत्तर देने के बाद जब मैंने सिर्फ सर हिलाना शुरू किया तब तक उनकी बातो की गाडी नॉनस्टॉप हो चली थी, और फिर तो सर हिलाना भी बंद, और मनोमन सोचना शुरू कि, 'अब इनका स्टॉप आए तो मैं उतरूं इस गाडी से.. कहाँ फंस गया?' उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं होता है, कि उनका यह अंदाज मेरे लिए तो सर पर पड़ते हथोड़े सा है।


प्रियम्वदा, यह सब बाते मैं अपना ही मन बहलाने के लिए कर रहा हूँ। वास्तव में एक बड़ी दुविधा में हूँ। बड़े अजीब अजीब विचार आ रहे है, दुःख लोहा है, और मन चुम्बक। मन अपने आप खिंच लेता सारे विषाद... और फिर उदासी... फिर कभी यह ख्याल आते है कि पूर्वजन्म के कुछ पाप होंगे, जो आज भुगतने है। या फिर मुझमे सामर्थ्य नहीं है एक निर्णय लेने का। या ऐसा भी हो कि मेरी समझ से परे है, और मैं एक निश्चित दृष्टिकोण का आदी हूँ। फिर भी मैं जब असह्य हो जाता है, तब यही भड़ास निकाल देता हूँ। बस कोई समझ न पाए इस तरह.. क्योंकि मुखौटा बरक़रार रखना है मुझे। मुझे भार उठाने का भय नहीं, लेकिन तरीके का भय है। जिसमे मेरा जो 'मैं ' है वह भी मुझे चाहिए। उसके साथ समझौता नहीं कर पाता हूँ। कभी सोचता हूँ कि कई बार फ़िल्मी जीवन होना चाहिए.. जहाँ शुरू से लेकर अंत तक कल्पना मात्र ही स्थायी होती है.. 


ठीक है प्रियंवदा... सबका अपना बोजा निश्चित होता है, वह उसे ही ढोना होता है। 


|| अस्तु ||

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