प्रियंवदा, दिलायरी के पन्ने तो भरे जा रहे है, लेकिन इसका मूल स्वरुप और जिस कारण से शुरू की थी वह आमूल परिवर्तित हो गया है। सोचा तो यही था की दिनभर में हुए कुछ प्रसंग ही इसमें सम्मिलित हो, लेकिन दिनभर के साथसाथ अन्य भी बहुत बाते इसमें चली आई। वैसे भी अपना वो मामला सॉर्ट है की जो सोच रखा है वह कभी होता ही नहीं है। मन पर पाबंदिया लगा पाना बड़ा कठिन काम है प्रियंवदा ! और अपने पर कोई और ही यदि पाबंदिया लगाता है फिर तो बात ही पूरी अलग है। जैसे बचपन में यह सोचना कि कब घरवालों के हुक्मो से आज़ादी मिलेगी... या अब सोचते है कि कब यह रोज के मशीन सी जिंदगी में कुछ नयापन आएगा। लेकिन हकीकत में तो जो नयापन आता है उसके लिए हम कुछ तो तैयारियां कर के रखते है, बाकी अपने से सम्हाला नहीं जाता। क्योंकि नया होता है। उसे कैसे आत्मसात करना है, अनुभव है ही नहीं। फिर धीरे धीरे हम वही पुरानेपन पर लौट आते है। ज्यादातर यही होता है, कुछ बातो को छोड़कर।
प्रियंवदा ! पाबंदी वैसे है क्या? बाध्य करना, या लाचार करना। कई बार हम स्वयं ही खुद को इतना लाचार कर लेते है। लेकिन कोई दूसरा नहीं कर पाना चाहिए। जैसे मैं सिगरेट्स जरूर पीता हूँ लेकिन, उसकी तलब मुझे लाचार नहीं कर सकती। क्योंकि विकल्प हर चीज का होता है। जैसे लोकडाउन में सिगरेट के शौकीनों ने बीड़ी के ठूठ नहीं छोड़े। जैसे तम्बाकू के आदी ने वृक्ष के सूखे पत्तो को होंठ में दबाया है। १० रुपये की गुटखा १४० तक के भाव में खरीदी है। वहां होनी चाहिए पाबंदी। तलब क्या नहीं करवा सकती? जितने ज्यादा आदी है वे उतने ज्यादा कांपते है। शराबी को देखना, शाम होते होते हाथ कांपते है। क्यों? क्योंकि समय रहते अपने पर पाबंदी नहीं लगाई थी। दुसरो द्वारा थोपी गई पाबन्दी भी यदि नैतिक है तो क्या समस्या है? जैसे कि हेलमेट पहनना। अच्छा कुछ चीजे हमे डर ही सीखा सकती है। मैं बड़ा ही घमंड में था, हेलमेट क्यों पहनना? घमंड इस बात का चालान के नाम पर जबरजस्ती मुझसे हेलमेट कोई क्यों पहनवाए? पहनूंगा तो अपनी मर्जी से, और मर्जी मुझे है नहीं। लेकिन कभी किसी का बिच सड़क पर खुला मगज देखा है? उसी दिन जाकर हेलमेट खरीदा, और पहनना शुरू कर दिया। वैसे डर मात्र मृत्यु का नही, यह चिंथड़े होने का है। मृत्यु तो अच्छी है, समस्त चिंताओं से तत्काल मुक्ति।
वैसे यह मुक्ति उन्हें ही चाहिए होती है, जो बंधन में है, पाबंदियों के बोझ तले है। मुक्ति क्यों चाहिए? क्योंकि एक कल्पना खड़ी हुई है कि इन पाबंदियों के पश्चात एक मुक्तता है, जहाँ सब कुछ अपने मनानुसार कर सकते है। लेकिन यह एक कल्पना मात्र है। पाबंद मस्तिष्क का विचार। सोम से शनि निश्चित जल्दी उठने वाले इन्तेजार करते है रविवार का। बस आराम से जागने के लिए। पाबंदी नही है जल्दी जागने की। लेकिन होता क्या है, हफ्ते भर की एक नियमितता खो जाती है, फल स्वरूप मिला क्या? अनियमितता। जैसे पाबंदियों से भरी गुलामी के पश्चात अचानक से आज़ाद हुए भारतीय को पता ही नही था देश कैसे चलाना है? माउंटबैटन को किसी से कहा नही गया था 'साइमन गो बैक'.. गरज थी.. तात्कालिक पाबंदी हटी थी। अनुभव नही था। धीरे धीरे सीखा। लेकिन वह स्वतंत्रता कैसी थी? स्वशासन की। मुक्ति तो मिली थी, लेकिन उस मुक्ति का भार तत्काल कोई भी झेल नही पाया था। पाबंदियों के कारण ही शायद हम सभ्य हुए है। पाबंदियों के कारण ही हम जीवित भी तो है।
प्रियंवदा, एक और ऐसी ही चीज है, जिसे 'मान्यता' कहते है। ऐसा बहुत कुछ है जो मान्यता पर भी टिका हुआ है। सत्य नही पता लेकिन मान्यता है। जो बात पूर्णतः नही कह सकते उसे मान्यता का आधार दो तो वह बात कारगर हो जाती है। जैसे 'मान्यता है कि यहां ऐसा हुआ था' के नाम पर बड़े बड़े प्रसंग आज भी रोचक तरीके से गाए जाते है, कहे जाते है। मान्यता को बहुमत प्राप्त है। किसी एक मस्तिष्क की उपज होती तो विचार कही जाती। लेकिन कोई एक विचार बहुत से लोगो का एकमत कर दे, और बहुतों को अपने विश्वासछत्र के भीतर ले तो वह मान्यता हो जाएगी। जैसे राम तथा कृष्ण से जुड़े स्थान। उन्हें मान्यता ही कहा जाता है। जैसे कुछ लोग मानते है धरती चपटी है। मान्यता हुई। जैसे किसी ने चार कील अपने शरीर पर लगने से देहत्याग किया और ईश्वर कहलाया, मान्यता है। वरना देवव्रत (भीष्म) के शरीर मे सैंकड़ो तीर आरपार हुए थे, और छह महीने जीवित रहे थे। मान्यता असीमित भी है। मान्यता को खड़ी करने में धारणा तथा स्वीकृति अकाट्य है। एक धारणा को कई सारी स्वीकृति के पश्चात ही वह मान्यता में परिवर्तित होती है, और फिर वह मान्यता वास्तविक जीवन मे कई सारे प्रभाव डालती है। जैसे शगुन अपशगुन की मान्यता है। कुछ प्राकृतिक - अप्राकृतिक संकेतो को मानते हुए शगुन अपशगुन की मान्यता हो चली। जैसे रात को नाखून नही काटने चाहिए। अरे पहले नेल-कटर नही हुआ करते थे इस लिए दिये कि रोशनी में धारदार छुरी से नाखून काटने में चोट का भय था इस लिए रात्रि को नाखून नही काटे जाते थे। लेकिन नही, रात को नाखून काटना अपशगुन है, और यह एक मान्यता है।
खेर, आज इतनी बाते बहुत है प्रियंवदा.. अब तुमसे फिर मिलूंगा दूसरे पन्ने पर।
|| अस्तु ||
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