दिलायरी 05/01/2025

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आज सुबह तो एक फंक्शन में जाना था। पहुंचा। ठीक ठाक रहा। वही हिंदुस्तानी परंपरा। नव बजे का बोलकर दस बजे तक शुरू करना। फिर ऑफिस गया। लगभग १ बजे सरदार आया। यह वित्त वितरण में एक बात बड़ी दिलचस्प है। यहां सबकी लालच से रूबरू होने को मिलता है। किसी को पगार बढ़वाने की लालच है। किसी को मजदुरी बढ़वाने की। किसी को ज्यादा पैसे चाहिए। किसी को एडवांस चाहिए। और कोई तो पैसे लेकर भी मूंह बिगाड़ता है। लगभग तीन बजे फ्री हुआ। घर आया, तीन बजे काहेकि भूख बची होती है? फिर भी थोड़ा चाय-नाश्ता तो किया। पाँचेक बजे वही साप्ताहिक शाखा..! 



शाखा में पथ प्रेरक का एक लेख पढ़ा गया जो बड़ा ही रुचिकर विषय लगा, और गंभीर भी। फिर वही, रविवार था। राष्ट्रीय कार्यक्रम की कोई इच्छा नही थी, तो गजा बोला चलो नाश्ता करने जाएंगे। अपन तो थे ही वेल्ले। निकले तो नाश्ता करने ही थे, लेकिन एक जगह कुछ हो-हल्ला होता देख रुक गए। मुद्दा तो यह भी सही था। एक मकान बन रहा है, कॉर्नर प्लाट है, दोनो रास्तो पर उसने थोड़ा थोड़ा रोड दबाया। एक अंकल ने पहले एक बार विरोध किया तो उन्हें थोड़ा दबा दिया गया था। और वह मकान वैसे मेरी नजर में भी था। क्योंकि पिछली होली से मकान बन रहा है, एक साइड का रास्ता तो सालभर से उसके मकान के सीमेंट रेती बजरी की वजह से बंद पड़ा है। और अपना रास्ता वही है। एक बार तो मेरा भी मन किया था कि जाकर उससे पूछूं कि 'कब तक तेरा यह कुतुबमीनार बन जाएगा? बन जाए तो कमसेकम रास्ता तो खोल।' लेकिन फिर वही शहरी परंपरा। अपने काम से मतलब रखने वाले लोग हो चुके है हम भी। 


लेकिन पता चला कि उन अंकल को भी उसने दबाया है तो आज उस मकान वाले को प्यार से समझाया कि देख, अब यह महानगरपालिका हो चुका है। प्यार से यह दबाई हुई जगह छोड़ दे, वरना जेसीबी एक घंटे का सिर्फ हजार रुपये ही लेता है। मैं यूँ समझूंगा की हजार रुपये खो गए मेरे। तब वह बड़ा ही विवेकपूर्ण तरीके पर आ गया और बोला, 'ठीक है बापु ! हटा लूंगा मैं।' दुनिया प्यार की ही भाषा समझती है प्रियंवदा। जेसीबी वाला प्यार। 


गजा मुझे टोकते हुए बोल पड़ा, 'क्यो किसी से उलझते हो। मार्किट जाना है लेट हो जाएगा।' फिर वही कुछ देर टहलना हुआ, और पावभाजी + पुलाव का नाश्ता करके घर लौटे। अभी सवा दस हो रहे है। एक और मुद्दा लिखना है वह लिख लेता हूँ।


ठीक है अब विदा दो, नए पन्ने पर जरूर पधारो।

05/01/2025, 22:18


|| अस्तु ||


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