प्रियंवदा ! आज शाखा में एक शब्द ने बड़ा आकर्षित किया। संघ का एक सामयिक है, जिसमे संपादकीय लेख बड़े प्रभावकारी होते है। अच्छा संघ लिखने के कारण कोई गलतफहमी न हो जाए इस लिए संघ अर्थात 'श्री क्षत्रिय युवक संघ'। वर्ष 1946 में श्री तनसिंह जी ने इसकी स्थापना की थी। क्षत्रिय समाज के हित संरक्षण एवं समाज सुधारणा हेतु। बदलते युग मे क्षात्रबाल विरासत से विमुख न हो जाए यह शायद उन्होंने बहुत पहले ही सोच लिया था। शाखा की कार्यप्रणाली ठीक वैसी ही है जैसी RSS की। लेकिन यहां कोई पदभार नही है। बड़ी बात यह है कि यह संघ श्रेय नही लेता। मैं कभी कभी पथप्रेरक और संघशक्ति पढ़ लेता हूँ। कुछ ज्ञानवर्धन तथा ऐतिहासिक बाते मिल जाती है।
आज शाखा में संख्या कम थी। खेल के लिए पर्याप्त नही थे। तो सोचा बाँचन किया जाए। 4 जनवरी 2025 के पथप्रेरक में संपादकीय लेख बड़ा जोरदार है। शीर्षक था 'पीड़ित मानसिकता से जन्मती है आत्महीनता'..! पथप्रेरक में करंट अफेयर्स भी आ जाते है। संपादक ने विस्तार से चर्चा की है आत्महीनता का भाव और समाज पर उसके प्रभाव की। बात कुछ ऐसी थी कि भारत के उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति पद पर विराजमान श्री जगदीप धनखड़ ने एक बार कहा कि 'मेरा विरोध केवल इस लिए किया जा रहा है, क्योंकि मैं एक किसान का बेटा हूँ।' प्रत्युत्तर में देश की सबसे बड़ी विपक्ष पार्टी के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि 'मैं एक मजदूर का बेटा हूँ, इस लिए मेरा संघर्ष आपसे ज्यादा है।'
मैंने यह रिल्स में वीडियो देखा था। लेकिन तब उतना ध्यान नही गया था, क्योंकि हमे आदत डलवाई गयी है आंखों से लेज़र निकलते हुए savage reply और angry dramatic background music वाले वीडिओज़ की। जहाँ या तो सुधांशु त्रिवेदी महाराज, या जयशंकर साहब छाए रहते है। आज जब यह संपादकीय लेख सुना, फिर पढा तब वास्तविकता पर ध्यान गया। उन दोनों में एक महोदय देश के उपराष्ट्रपति है, दूसरे महोदय देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के सर्वोच्च नेता है। और दोनो ही बड़ी कमजौर और ओछी बात कर रहे है। अरे आप उस सभा मे पहुंचने के लिए बड़ी बड़ी गाड़ियों में जाते हो। अरे आप के पास विश्व की श्रेष्ठतम में से एक सिक्युरिटी है। आपके लिए दौड़ता शहर रोक दिया जाता है। आपमें देश की स्थिति निर्माण करने की शक्ति-सामर्थ्य है। आप देश के सर्वोच्च पद पर रहते हुए खुद की तुलना एक सामान्य किसान तथा मजदूर से कैसे कर सकते हो? पद छोड़कर किसानी और मजदूरी कर लो। आप खुद को शक्तिहीन और सामर्थ्यहीन कैसे कह सकते हो? इतने बड़े पद पर होते हुए आप स्वयं को पीड़ित बता रहे हो?
मुझे लगता है, मेरा अंगत मत है कि आप जिस स्थिति तथा पद पर हो वहां के एटिकेट्स को जानिये, समझिए। मुझे वो वाकिया याद आता है जो कुछ दिन पहले ही राजवीरसिंह से सुना था कि अमरीका का राष्ट्रपति कार धो रहा था, किसी ने फ़ोटो खींच ली। दूसरे दिन हल्ला हो गया कि राष्ट्रपति के पास फालतू समय है अपनी कार धोने के लिए। USA के राष्ट्रपति को माफी मांगनी पड़ी थी। क्योंकि वहां जनता चाहती है कि राष्ट्रपति को अपना सारा समय देश की उन्नति में लगाना चाहिए। उसे सतत सोचते रहना चाहिए कि प्रजा की भलाई किसमे है। लेकिन अपने यहां उल्टा है। जितना ऊंचे पद पर है, उतना उसे down to earth हम देखना चाहते है। केजुकाका यह मुद्दा अच्छे से समझते है इस लिए नोटिस करना, उनके कपड़ो पर। हमेशा बिल्कुल सादे आम प्रजा जैसे कपड़े पहनते है। दिखावा है। छलावा है। आठ करोड़ की स्मार्ट टॉयलेट सीट है उनके आवास में। बताओ, टॉयलेट सीट्स भी स्मार्ट हो गई है। लालू जी का दूध दुहते वीडियो देखकर लोग बड़े राजी हुए कि बिल्कुल सादा आदमी है, खुद ही गाय दुह रहा है। अरे उसके पास गाय दुहने का समय ही क्यों है? उसे तो प्रजा की भलाई में व्यस्त रहना चाहिए।
आत्महीनता का अर्थ क्या है? स्वयं को कमजोर समझना। खुद को ही अपमानित करना। स्वयं की शक्तिओ को न पहचानते हुए स्वयं को लाचार समझना। अच्छा, जो भी आत्महीन के भाव से ग्रसित है वह कभी भी हर्ष उल्लास को पूर्णतः अनुभवता भी नहीं है, व्यक्त भी नहीं करता। सड़ा सा मुंह लिए बैठे रहेगा। शंकाशील भी हो जाता है, सद्गुणों में भी शंका करता है। खुद तो निराशा की गोदी में बैठे हुए सारी दुनिया को कष्ट और प्रताड़ित करने वाली समझने लगता है। और दुखी रहता है आत्मालोचन की प्रवृति से। स्वयं की ही उतनी आलोचना कर लेता जितनी उसके शत्रु भी न करे। स्वयं की आलोचना करना अच्छा है, अपनी प्रवृत्तिओ में सुधार हेतु। लेकिन वह आलोचना उतनी नहीं होनी चाहिए की आत्महीनता में परिवर्तित हो जाए। उचित अनुचित के बिच अंतर करना आना चाहिए। एक स्पष्ट समझ होनी चाहिए उचित अनुचित के बिच की भेद रेखा को समझने के लिए। यह जो आत्महीनता बताई गई, महानुभावो द्वारा, इसे 'विक्टिम कार्ड' क्यों न कहा जाए? थोड़ा और गौर किया जाए तो एक महाशय अपने को किसान कहकर भारतीय भूमि के एक बड़े वर्ग किसान को आकर्षित कर रहे है, क्या यह पुरे किसान वर्ग को दयनीय नहीं कह रहे दूसरे शब्दों में। इतने बड़े पद पर होते हुए आपको तो किसानो की हिम्मत बंधानी चाहिए, ढाढ़स देनी चाहिए, न की इस तरह आत्महीनता के भाव को बढ़ावा देना चाहिए। यह आत्महीनता का भाव पुरे एक समाज, समुदाय को प्रगति करने से रोकता है। या फिर इसे एक गन्दी राजनीती समझनी चाहिए, की आप उस किसान समुदाय का उल्लेख करके उनके नेतृत्व पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे है? उस वर्ग के नाम पर सर्व लाभ, सामान्य व्यक्ति से विशेष लाभ तो आप ही को मिलेगा नेतृत्व करने से। बड़ा दुष्परिणाम यही है इस आत्महीनता से की फिर आत्मगौरव तथा स्वावलंबन जैसी सात्विकता कैसे आ पाएगी? बहुत आसान है एक समाज, समुदाय की समस्या सुनाना। समस्या हर कोई सुना सकता है। आप जिस पद पर है वहां आपको इस समस्या का समाधान देना चाहिए, न की आपको स्वयं को भी लाचारी दिखानी है। आज एक समाज, या समुदाय के पास हजारो समस्या है, मैं स्वयं गिना सकता हूँ। बार बार समस्या दोहराने से आत्महीनता ही आती है। आत्मगौरव छिन्नभिन्न हो जाएगा। आज मैं यदि बार बार कहता रहूं कि फलाने समाज में शिक्षा की कमी है, बार बार कहता रहूं, तो जो उच्च पद पर है उनका भी अपमान है, और जो उच्च पद की प्राप्ति को प्रयत्नशील है उनका भी। मुझे समस्या बताने से ज्यादा समाधान के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए, शिक्षा की कमी है तो मुझे शाला पर काम करना चाहिए, समाज को समझाना चाहिए शिक्षा के लाभ को। उन्नति की राह दिखानी चाहिए। यह नहीं कहना चाहिए की मैं अनपढ़ रह गया इस लिए मेरी उन्नति नहीं हो रही है। उन्नति इस लिए नहीं हो रही है क्योंकि मैं आत्महीनता से ग्रसित हूँ। लंगड़ा है तो है, उसे बैसाखी के सहारे चलना होगा। अंधा है तो है, उसे आत्मविश्वास तथा गौरव होना चाहिए अपने पैरो पर खड़े हो पाने का। और उसे यह आत्मविश्वास दिलाना बड़े पदाधिकारिओं का कर्तव्य है।