नींद तो तगड़ी आ रही है लेकिन सोचता हूँ कमसे कम दिलायरी तो लिख ही लूं। सुबह सुबह आज एक धक्का खाना पड़ गया, फिर नाश्ता भी किया। ऑफिस पहुंचा तब नौ बजे रहे थे। सोमवार की सुबह तो न बराबर काम होता है। वह आत्महीनता वाले लेख पर प्रतिभाव मिला तो मन बड़ा प्रसन्न हुआ, और फिर वही प्रयाग के ख्याली पुलाव में कुछ देर खोया रहा। काम न निकल आये ऐसी नौकरी होती कहाँ है? खेर, रोकड़ से खाते मिलाने बैठा ही था, कि कुछ और ही हिसाब में उलझ गया। लगभग दो बजे ख्याल आया कि कार को सर्विस करवाये बहुत दिन बीत चुके है तो ऑफिस से गजे को उठाया, घर जाकर मैंने कार उठायी और फिर मूंह उठाकर चल दिये सर्विस वाले के वहाँ।
लगभग पौने तीन को इच्छा हुई कि जब यहां तक आ ही गए है तो नाश्ता भी करते चले। तीन में चार कम थे, और मोटरसायकल का स्पीडोमीटर डिजिट शॉ कर रहा था बानवे। ऑफिस पहुंचा, और फिर से एक बार रोकड़ तथा खाता निकाला। लेकिन फिर से और ही दूसरे तीसरे हिसाब में लगना पड़ा। फिर शाम सवा सात को याद आया कार वापिस भी तो लेनी है। फोन घुमाया, अगले ने बोला तैयार है, ऑफिस से सर्विस स्टेशन पहुंचा तो वह मेरी ही ऑल्टो साइड में लगा रहा था। मैं बोला दे, तो वो बोला पहले तू दे, मैं बोला फिर तू वो दे, तो उसने स्कैनर दिया, मैंने पेमेंट दिया, उसने कार दी। यूँही लेनदेन पर दुनिया नभती है।
मोटरसायकल उसी के वहां खड़ी की, कार लेकर घर पहुंचा, फिर पडोशी की मोटरसायकल पर उसके साथ वापिस सर्विसस्टेशन गया, और मेरी मोटरसायकल लेकर आया। लगभग नौ बजे गए थे रात के। फिलहाल बज रहे है ग्यारह, और आंखे नींद से बंद होने को है.. तो बस, आज इतना ही। कल मिलेंगे नए पन्ने पर।
(०६/०१/२०२५, २३:०४)