"कच्छ से पाटण, फिर पालनपुर होते जयपुर तक: एक यादगार बस यात्रा और इतिहास की झलकियाँ" || दिलायरी : ०४/०२/२०२५ || Dilaayari : 04/02/2025

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कच्छ से जयपुर की सफ़रनामा: समय, दूरी और स्मृतियों का मिलन


सुबह की ड्राइविंग मैराथन: जब मेहमान आए अचानक

    आज तो सुबह सुबह मैराथन हो गई.. ड्राइविंग में..! वो बात आज भी कायम है कि मेह और मेहमान कभी भी आ सकते है। सुबह नौ पांच पर ऑफिस पहुंचा ही था, टोपी बहादुर ने चाय चढ़ाई ही थी, कि मेहमान का फोन आया। बोले आपके शहर में बैठे है। अब मेहमान है, खातिरदारी न करो ऐसे कैसे चले? वापिस घर गया, घर से कार उठाई और मेहमान को लेने गया। वहां से उन्हें लेकर घर लौटा। चायपानी पिए, और उन्हें कार देकर अब वापिस ऑफिस पहुंचा। 

    ८ किलोमीटर घर से ऑफिस, वापिस ८ किलोमीटर घर। वहां से ७ किलोमीटर मेहमान को लेने, वापिस ७ किलोमीटर घर, और घर से फिर से ८ किलोमीटर ऑफिस। और अभी बज रहे है सवा ग्यारह। और अभी १ बजे फिर से १० किलोमीटर मार्किट जाऊंगा, प्रीतम का लेपटॉप उठाने उसकी ऑफिस से। और फिर वापिस ऑफिस आना पड़ेगा, और चार बजे फिर घर... और घर से फिर ट्रेवल्स ऑफिस तक.. शाम सात बजे की बस है। क्या दिन है बाकी आज का।

    दोपहर को चले तो गए मार्किट, मैं और गजा। काम था एक कर लिया। दोपहर बाद एक गाड़ी थी कश्मीर की.. चार उसने ही बजा दिए। बस तो सात बजे की थी, लेकिन घर जाकर थोड़ा तैयार-वैयार होना था। सरदार को बोलकर निकल गया। घर पहुंचा, पेकिंग के नाम पर दो जोड़ी कपड़े डाल लिए बैग में और निकल लिया। लगभग छह बजे ही मैं ट्रेवल्स वाले कि ऑफिस पर था। एक घंटा पूरा उसकी ऑफिस में बैठा रहा।

कच्छ की भौगोलिक और भाषाई विविधता

    लगभग ७ बजे बस आ गयी थी। ठीक ही है बस। नंबर अच्छा है 8888। अभी बज रहे है २१:४८, और अभी तक कच्छ से बाहर नही निकले है। भारत के लार्जेस्ट डिस्ट्रिक्ट में रहने के साइड इफेक्ट्स..! कच्छ यूँ लंबाई में भी बहुत है, पूर्व से पश्चिम शायद सवा तीनसौ किलोमीटर है। उत्तर से दक्षिण लगभग सवासो किलोमीटर.. एक समय पर कच्छ को अलग राज्य बनाने की तीव्र मांग थी, लेकिन किसी ने ध्यान नही दिया। कच्छ के महाराओ श्री प्रागमल जी तृतीय लगभग पिछले वर्ष स्वर्गवासी हुए। उन्होंने खूब मेहनत की थी कच्छ को राज्य बनाने के लिए। भाषाकीय तौर पर भी कच्छ की बोली अलग है, लिपि गुजराती है लेकिन भाषा कच्छी है। सुदूर पश्चिम कच्छ में चले जाओ तो वहां कोई गुजराती समझता भी नही।

    आज भी सोचने वाली बात यह है कि कच्छ को दो ही रास्ते जोड़ रहे है, सौराष्ट्र को सुरजबारी। और उत्तर गुजरात को आडेसर। तीसरा रास्ता ही नही, और मामला गंभीर भी है। सुरजबारी का ब्रिज अगर गिर जाए तो कच्छ को जोड़ता सिर्फ एक ही धोरीमार्ग है। सोचने लायक मुद्दा है, एक बार तो पाकिस्तान ने यह कर भी दिया था, दोनो रास्ते बंद कर दिए थे। बड़ी मुश्किल से माधापर की स्त्रियों ने बमबारी के बीच काम करके रनवे बना दिया था.. और डिफेंस हो पाया था। आज इतने वर्षों के पश्चात भी कच्छ और सौराष्ट्र को जोड़ता एक मार्ग ही कार्यरत है। हालांकि अब कंगाल पाकिस्तान की और से डर कम तो है लेकिन बूढ़े सांप का फन है वो भी..!

पाटण का वैभवशाली इतिहास और सोलंकी राजवंश

    कच्छ की सीमा पूरी हो रही है अभी, समय हो रहा है २२:२७। यहां से जिला बदलेगा, पाटण जिला। पाटण नगर यहां से थोड़ा दूर है लेकिन जिलाकिय हद यहां से शुरू हो जाती है। पाटण नगरी ने क्या नही देखा है? एक समय पर वनों में विचरकर बड़े हुए वनराज ने इस नगर की नींव रखी, चापोत्कट वंश, जो चावड़ा कहलाए, यूँ समझिए कि पाटण नामका बीज रोपा, नवमी शताब्दी में। आगे चलकर चावड़ा कमजौर हुए, उनके भांजे चौलुक्यो का जोर बढ़ा, सामंतसिंह मामा को मारकर भांजा मूलराज पाटण की गद्दी पर बैठा। यह वो समय था जब पाटण अत्यंत प्रसिद्ध हुआ, उस बीज से अंकुरित हुआ और बड़ा हो चुका मजबूत वृक्ष, चौलुक्यो ने पाटण की नामना सर्व दिशाओं में की थी। उत्तर में शाकम्भरी - नाडोल के चौहान, पश्चिम में सिंध, पूर्व में मालवा, और दक्षिण में देवगिरी की यादवों तक.. 

    हाँ ! चौलुक्य अर्थात सोलंकीओं को कोई टक्कर नही दे पा रहा था लेकिन ठीक पाटण से कुछ ही दूरी पर वामनस्थली के चुडासमा ही पाटण को घेरते। धीरे धीरे यह दौर भी बिता। सोलंकीओ की भुजा कमजौर हुई। पाटण अभी तक भव्यातिभव्य होता जा रहा था। भीम सोलंकी के समय पर सोमनाथ लूटा गया। कुछ वर्षों बाद नायिकादेवी का संघर्ष हुआ। त्रिभुवनपाल अंतिम सोलंकी राजा हुए, उनके समय मे ही उनके सामंत, जो धोळका पर विराजमान थे, वे वाघेला वंश के लवणप्रसाद के पुत्र वीरधवल वाघेला की नामना खूब हुई। त्रिभुवनपाल के बाद यह वीरधवल के पुत्र विशालदेव राजा बने। और चावड़ा के बाद सोलंकी, और अब सोलंकी के बाद वाघेलाओं के हाथ मे पाटण का राज्य आया। बदलते समयखण्ड में कई सामंत राजा बन चुके थे। राजस्थान में आबू तक भी अब नियंत्रण न रहा था। सीमाएं सिकुड़ती गई.. जहाँ एक समय पर सोलंकी कालीन पाटण अजमेर के चौहानों पर भारी थे वहां कर्णदेव वाघेला के समय पर तो दिल्ली की ओर से आये आक्रान्ताओने सब कुछ ही नष्ट कर दिया था..  पाटण का भी.. कहाँ एक समय पर सिद्धराज जयसिंह सोलंकी की पाटण नगरी थी, और एक आज का पाटण शहर..।

सांतलपुर और राधनपुर: भूले-बिसरे सामंतों के किस्से

    खेर, अभी पहुंचा हूँ सांतलपुर..! कच्छ के अंतिम नगर आडेसर के बाद पाटण का प्रथम नगर सांतलपुर आता है। सांतलजी झाला का बसाया हुआ नगर..! अभी के पाकिस्तान में एक नगर हुआ करता था जो केरंतिगढ़ के नाम से जाना जाता था, अब तो लुप्त हो चुका है, लेकिन टीला कहा जाता है आज भी। केरंतिगढ़ में मखवान या मकवाणा वंश था, जो समय के चलते, और आक्रांताओं से परेशान होकर गुजरात की और आए थे। केशरदेव मखवान / मकवाणा के मौसेरे भाई थे पाटण के सोलंकी.. पाटण के सोलांकिओने उन्हें सामंत रखकर जागीर दी 'पाटड़ी'। उसी केशरदेव के वंश में एक पुत्र हुए सांतल जी नाम से उन्होंने यह सांतलपुर बसाया था।

    अभी पहुंचा हूँ 'पर'। गांव है, लेकिन संसदसभा में इस गांव का एक किस्सा खूब चर्चा पाया था।

    वाराही गया। इस गांव का नाम ही पौराणिक है। मुझे याद तो नही आ रहा पर एक माता है जिनका नाम वाराही है, वराह का मुखधारी माता।

राधनपुर: बाबी पठानों का गौरवशाली इतिहास

    बस के शीशे बिल्कुल ठंडे हो चुके है। है तो ac sleeper वॉल्वो.. लेकिन ac बंद कर रखा होगा, या तापमान नॉर्मल रखा होगा। शीशों पर औंस है। समय हो रहा है अभी २३:४४.. बारह बजने में बस सोलह मिनिट कम। लो अब तो पंद्रह ही रह गई। राधनपुर पसार हो चुका। राधनपुर नाम के पीछे भी दो-तीन कहानी है। एक कहती है चावड़ाओ के समय मे राजा राडनदेव के नाम पर बसा वह राधनपुर। दूसरी कहती है उसके पास से जीती गई थी.. एक कहानी है रायधन जी नाम के राजा की.. मतलब की शहर है बहुत पुराना.. लेकिन ख्यातनाम हुआ जब मराठाओ से संधि के पश्चात बाबी वंश के पठानों द्वारा यह एक राज्य निर्मित हुआ। 

    पहले गुजरात सल्तनत का सूबा हुआ करता था, और दिल्ली के मुगलों ने वहां बाबी वंश के पठानों को सूबेदार नियुक्त किया था। मराठाओ का जोर बढ़ा तब कमालुद्दीन बाबी ने संधि कर ली और राधनपुर के आसपास के विस्तार पर वह राज करता रहा। और अंत मे भारत के निर्माण में राधनपुर का विलय भी भारतसंघ में हुआ। वैसे यह छोटा राज्य न था,  ग्यारह तोप की सलामी पाता राज्य हुआ करता था।

डीसा और पालनपुर: खेतों, आलू और नवाबों की धरती

    नब्बे की स्पीड पर भागती यह बस.. बड़ी तेजी से गुजरते खेत.. खेतो में चमकती लाल, ब्लू, हरी लाइट की बाड़, मतलब करंट लगाया है। खेत मे रात को जंगली पशु न आ जाए, और सुअर तथा रोज़ फसल बर्बाद न करे इस लिये। अंधेरा पूरा है, और अर्धचंद्र, वह भी लाल क्षितिज से मानो एक हाथ ऊपर खड़ा है। अगला शहर है डीसा। एक समय पर कहा जाता था कि डीसा यानी आलू, और आलू यानी डीसा.. समोसे में आलू शायद खत्म हो जाए पर डीसा की यार्ड में आलू न हो ऐसा हो नही सकता। आलू की बड़ी यार्ड है, और शायद आसपास में आलू की ही ज्यादा खेती होती होगी। बगैर आकार के आलूके बिना आज तो कई सारे पकवान की कल्पना करनी भी मुश्किल है। 

    आलू से मुझे एक ही चीज याद आती है वो है स्टार्च। स्कूल के दिनों में याद करा दिया गया था कि आलू में स्टार्च की मात्रा ज्यादा होती है। बड़े होने के बाद आलू खाने के अलावा एक उपयोग में लेना किसी ने सिखाया, आलू को दो टुकड़ों में चीरकर उसे कार की विंडशील्ड पर घिस देना चाहिए अगर सर्दियों के रात्रि की ड्राइविंग करनी हो तो, उससे औंस नही जमती कार के शीशे में। शायद स्टार्च की वजह से। लेकिन अब तो ऐसे केमिकल मार्किट में अवेलेबल है जो विंडशील्ड पर लगा देने से कार के अंदर ऐसी शुरू हो या बंद, बाहर का तापमान गर्म हो या ठंडा, कार के शीशे नॉर्मल रहते है। 

    वैसे डीसा का राजकीय इतिहास कुछ खास तो नही लेकिन पालनपुर नवाब के राज्य में आता था, और शायद आर्मी केम्प था। फिलहाल भी कुछ वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री मोदी ने डीसा में एक एयरबेज़ बनाने की बात कही थी, जो शायद अब निर्माण हो चुका है, और पाकिस्तान से बहुत नजदीक पड़ता है यह एयरबेस इस लिए पाकिओ ने विरोध भी जताया था कुछ। समय हो रहा है ०१:०२.. नींद आ नही रही मुझे। इतनी महंगी टिकिट लेने का भी कोई फायदा नही.. हाँ, सुविधा के नाम पर मेरे लायक यहां चार्जिंग पॉइंट है वही मेरे पैसे वसूल है।

आधुनिकता और विरासत की साझा सवारी

    लोजी आ गया पालनपुर। नवाबो का पालनपुर। जालोरी नवाब का पालनपुर। दिल्ली के तख्त से हुक्म छूटा था, और राजस्थान के जालोर से नवाब साहब को पालनपुर सूबे को सम्हालना था। हुआ यहां भी ऐसा ही, जैसे ही गुजरात सल्तनत, और दिल्ली का तख्त डोला, इधर बहुत से सामंत, सूबेदार राजा बन गए। स्वतंत्र राजा। मूलतः बिहारी थे, पश्तून। जालोर में स्थायी हुए, गुजरात सल्तनत, दिल्ली सल्तनत, और जोधपुर के वर्चस्व, और मराठाओ से मोलभाव करके अंततः पालनपुर में यह लोहानी पशतुन अपना राज्य जमा पाए जो भारतसंघ में विलय पर्यंत रहा... बनासकांठा जिला का आज यह मुख्यमथक है। बनास डेरी का भी.. अमूल के बाद शायद गुजरात की दूसरी सबसे बड़ी दूध डेरी। बस के ड्राइवर -कंडक्टर अपनी जेब गर्म करने के लिए शहर शहर से अगले शहर तक कि सवारी चढ़ा ले रहे है। और समय हो रहा है अभी ०१:२१..

    मुबारक हो मुझे ही.. आखिरकार मेरी आँख लग गई थी..! अभी बज रहे है सुबह के ०६:१८ और ब्यावर से बस निकली है किशनगढ़ के लिए..! वैसे सोजत आया तब भी मैं जगा था, लेकिन नींद आ रही थी मोबाइल को चार्जिंग पर लगाकर सो गया था। बस के टॉयलेट वगेरह है। इस लिए यह स्टॉप नही ले रही कहीं। कच्छ में सामखियाली के बाद कहीं रुकी ही नही है। सरकारी होती तो अभी तक ३ स्टॉप तो चाय के ले लिए होते। 

    ठीक है लगभग सुबह पौने नो को मैं पहुंच गया था। जहां उतरना था, जयपुर से कुछ किलोमीटर पहले।

(०४/०२/२०२४)

|| अस्तु ||

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