ट्रेन से बस तक – एक निर्णय
लगभग सवा सात को आंखे खुल गई थी मेरी। ऑफिस जानेको निकला नौ बजे रहे थे। लेकिन याद आया, जयपुर वाली ट्रेन बरेली तो आजकल जयपुर जाती है नही, दूसरे रुट से जाने लगी है। और वैसे भी अपने को ट्रेन में जाने की उतनी उत्कंठा भी नही हो रही थी। मित्र को फोन मिलाया तो उसने बताया बस में ही आ जा, सीधे घर के बाहर उतारती है। तो आफिस जाने के बजाए मार्किट चला गया। ज्यादातर ट्रेवल्स वाले बस डिपो के सामने हाइवे पर ही है। एक बढ़िया बस चलती है, जयपुर तक के पन्द्रहसो सवेरे सवेरे छीन लिए उसने.. कल शाम की बुक करा ली मैने.!
टैक्स के पन्नों में उलझा सोमवार
ऑफिस पहुंचा तो सरदार दरवाजे पर ही खड़ा था। काम तो सोमवार को कम ही होता है, लेकिन 3 तारीख है, तो टेक्स वगेरह से जुड़े हिसाब किताब करने में लग गया। दोपहर तक यही चला कि किससे कितने लेने है, कितने लोग overdue हो चुके है.. यही सब..! गजा आया नही था, दोपहर को कहीं जाने का प्रोग्राम न हुआ लेकिन पडोशी के यहां उनके टीडीएस तथा टीसीएस भर आया.. प्रतिमाह की तरह सरकार को सालभर खरचेपानी के स्वरूप कुछ पूंजी जमा करा दी.. जो अगले साल सरकार अपनी मर्जी से कुछ मिलाकर और इनकमटैक्स के स्वरूप में कुछ काटकर वापिस लौटाएगी..!
थोड़ी भूख तो लगी थी, फिर अकेले ही दाबेली खाने चला गया..! शाम तक सरदार ने खातों में उलझाए रखा। वह आने वाली तीन दिन की छुट्टियों की कसर आज ही पूरी कर देना चाहता था शायद.. कब शाम के सात बजे गए कुछ पता न चला। पौने नो को घर पहुंच गया। और अभी साढ़े दस को यह दिलायरी लिख दी..!
लो फिर, जीवन से एक दिन और बीत गया, शुभरात्रि..
(०३/०२/२०२५, २२:२८)
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प्रिय पाठक!
अगर आपने कभी अकेले दाबेली खाई हो,
या सरकार को पैसे देकर उदासी पाई हो —
तो आइए,
एक और दिलायरी पढ़िए:
02 फरवरी की दिलायरी
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